साहित्य सरोज कहानी प्रतियोगिता 2025, कहानी पर कमेंट जरूर देंं।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में एक गांव है ‘कारोई’। यह गांव अपनी ज्योतिष विद्या के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध है। दूर-दूर से लोग इस गांव में अपने भविष्य को जानने की उत्सुकता लेकर आते हैं। ज्योतिष के साथ-साथ यहां तंत्र-विद्या भी अपनी जड़ें जमाए हुए है। इसी ज्योतिष और तंत्र-मंत्र के बगीचे में भरत नाम का एक बाल-पुष्प खिला। पढ़ाई में उसका दिल नहीं लगता था। खींच-तान कर किसी तरह वह दसवीं कक्षा तक तो पहुंच गया, परन्तु अब सामने थी बोर्ड की परीक्षा, जिसे बिना किसी तिकड़म के पास करना उसके बूते की बात नहीं थी। सोच विचार करने पर उसे बाबा साधू राम व्यास का ध्यान आया। दौड़ा-दौड़ा वह बाबा के घर पहुंचा। बाबा भृगु-संहिता का पाठ कर रहे थे। भरत सीधा उनके पैरों पर गिर पड़ा।बोला, “बाबा, पंचांग देखकर बता दो मुझे परीक्षा में सफलता कैसे मिलेगी?”बाबा ने पंचांग के पन्ने पलटते हुए गम्भीर आवाज में कहा, “बालक, तुम्हें सफलता तो मिलेगी, परन्तु इसके लिए तुम्हें ज्ञान प्राप्त करना होगा।”
“प्रभु, यह ज्ञान कैसे और कहां मिलेगा?”
“इसके लिए तुम्हें गुरु का चुनाव करना पड़ेगा” बाबा ने आंख मूंद ध्यान-मुद्रा में कहा उस दिन से भरत एक गुरु की तलाश में लग गया।एक दिन वह अपने वर्ग-शिक्षक के पास गया और पूछा, “मास्साब जी, क्या आप मेरे गुरु बनेंगे ? मैं ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं।”शिक्षक ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर, मंदबुद्धि समझकर उन्होंने उसे प्राचार्य के पास भेज दिया। प्राचार्य ने कहा कि गुरुओं का भी गुरु तो गूगल है, तुम उसे ही गुरु बनाओ।” बात समझने में देर लगी, परन्तु समझ में आते ही उसने अपनी गाय बेचकर स्मार्टफोन खरीद ली और फिर गूगल पर सर्च किया, “ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है?” सर्च ईंजन से उत्तर मिला, “महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति पीपल वृक्ष के नीचे साधना के उपरांत मिली थी।”
संकेत साफ था। गांव के बाहर एक पीपल वृक्ष के नीचे वह ध्यान-मुद्रा में साधना करने बैठ गया। उस दिन उसे ज्ञान तो नहीं मिला, परन्तु एक बिच्छू ने डंक अवश्य मार दिया। वह चीखने लगा: “क्या यही ज्ञान है? यह तो बहुत दर्दनाक है।” उसकी चीख सुनकर लोग दौड़े-भागे आए। उसके इर्द-गिर्द भीड़ इकट्ठी हो गई। कुछेक ने तो उसका मज़ाक भी उड़ाया। काफी जद्दोजहद के बाद वह ठीक हुआ। इस दौरान ग्रामवासियों के बीच एक चर्चा छिड़ गई कि आखिर ज्ञान की प्राप्ति होती कैसे हैं।किसी ने कहा कि ज्ञान की प्राप्ति तो मां सरस्वती के आशीर्वाद से ही हो सकती है। किसी ने कहा ज्ञान का तो नहीं पता, पर बादाम के तेल से याददाश्त जरुर बढ़ती है।
किसी ने ब्रह्म-काल के महत्व को समझाया।किसी ने पोखराज पत्थर को नगीना बनाकर अंगूठी पहनने की सलाह दी। भरत पूरी श्रद्धा से इन सुझावों को मन की पुस्तिका में लिखता गया। टी.वी. में उसने विज्ञापन देखा “मैंटोस खाओ, दिमाग की बत्ती जलाओ”
रेडियो पर गीत सुना, “खइके पान बनारस वाला, खुल जाए बंद अकल का ताला ”
अनुलोम-विलोम और कईअन्य योगासन भी उसने किए। आयुर्वेद के जानकार एक बाबा के परामर्श से उसने “मेधावटी” खरीदी। बुद्धि-वर्द्धक चूरन को भी आजमाया।मगर, इन सबके बावजूद वह मासिक परीक्षा में फेल हो गया।
गांव के ही एक ज्ञानवान व्यक्ति ने उसे बताया कि ज्ञान की प्राप्ति बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद से होती है। घर में सबसे बड़ी तो दादी-मां ही थी। भरत मनोयोग से उनकी सेवा में लग गया। परन्तु, इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ।
एक दिन गांव के मुखिया ने उसे खाट पर लेटे देखकर तानेकसी की, “भरत बाबू, जीवन में सफल होना है तो पसीने बहाओ।” अगले दिन से ही वह धूप में बैठकर पसीने बहाने लगा। सफलता तो मीलों दूर थी, वह बीमार अवश्य हो गया।स्वस्थ होते ही उसने पुरोहित जी को बुलाकर सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी। ज्योतिषी के पास जाकर हस्तरेखा दिखाई। मगर, उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आई।स्कूल के शिक्षक को कहते सुना: ” विद्या-धन उद्यम बिना कहो जू पावे कौन, बिना डुलाए ना मिले ज्यों पंखे का पौन।”
उसने गूगल पर सर्च किया, “उद्यम क्या है?”
जवाब आया , “उद्यम एक व्यापक अवधारणा है जो व्यवसाय, प्रयत्न, नवोन्मेष और जोखिम उठाने से जुड़ी है. यह किसी व्यक्ति या संगठन को अपनी रचनात्मकता और क्षमता का उपयोग करके एक नया व्यवसाय या परियोजना शुरू करने और विकसित करने की अनुमति देता है।”
बात समझ में नहीं आई । हां, पंखे डुलाने वाली बात समझ में आ गई। उसने एक देसी पंखा खरीदा और दिन-रात तन्मयता से उसे डुलाने लगा। मगर, बात इससे भी नहीं बनी।
गांव में एक मौनी बाबा पधारे। बस, फिर क्या था भरत उनके पैरों पर गिर गया। आंसुओं की धारा बहा दी। बाबा द्रवित हुए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं, मगर कागज पर दो पंक्तियां लिख कर उसे थमा दी:
“काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च। अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्॥”
उसने इस श्लोक का विश्लेषण अपने तरीके से किया।
‘काकचेष्टा’ का अभिप्राय उसने समझा। जहां जो भी खाने-पीने की चीज दिख जाए, काक अर्थात् कौवे की तरह झपट्टा मार के भाग जाओ।
‘बकोध्यानम्’ के उसने दो अर्थ लगाए। पहला तो यह कि ध्यानमुद्रा में बक-बक करते रहो, और दूसरा कि पानी में देर तक स्थिर बगुले की तरह खड़े रहो और मछली नजर आए, तो टूट पड़ो।
काफी मशक्कत के बाद उसे पता चला कि श्वान का अर्थ होता है–“कुत्ता” । अब “श्वानऩिद्रा” को सिद्ध करने के लिए वह कुत्ते को साथ लेकर सोने लगा।
भोजन में कटौती कर दी। सिर्फ कुरकुरे और ‘हल्दीराम के भुजिए’ पर निर्भर हो गया। इस तरह वह अल्पाहारी बन गया।
गृह यानी घर का भी उसने त्याग कर दिया। बगीचे में कुछ लोग ताश खेलते नजर आए, वह पूरा समय वहीं बिताने लगा।सकारात्मक सोच के साथ वह समय का अपनी समझ से सदुपयोग किया। वार्षिक परीक्षा हुई और परिणाम भी निकला। हर बार की तरह इस बार भी वह फेल हो गया।
उसे दुखी देखकर किसी ने सुझाव दिया कि कचहरी के बाहर एक बाबा बैठते हैं। उनके पास एक सिद्ध-योग तोता महाराज हैंं, जो किस्मत की पर्ची निकालते हैं। डूबते को तिनके का सहारा! दौड़ते-भागते वह कचहरी गेट के पास गया, जहां एक बाबा अपने ताम-झाम के साथ विराजमान थे। सम्पूर्ण समर्पण के साथ वह उनके चरणों में गिर पड़ा। काफी अनुनय-विनय और मान-मनौव्वल के बाद तोता महाराज एक पर्ची निकाले, जिसपर राम चरित मानस का यह दोहा लिखा था:
“सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ।
हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ।”
बाबा ने इसको सरल भाषा में समझाया कि पास-फेल होना तो क़िस्मत की बात है। आजकल भरत क़िस्मत को बदलने का जुगाड़ लगा रहा है। इस मंदबुद्धि को कौन बताए कि परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए अध्ययन आवश्यक है, अंधविश्वास नहीं।
दिनेश कुमार राय
चंद्रशेखर नगर, गोला रोड, पटना
मो. 9771294806
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