हेमंत चौकियालकी कहानी सुजाता

कहानी संख्‍या -06,गोपालराम गहमरी कहानी प्रतियोगिता -2024,

मुम्बई जैसे भागदौड़ वाले महानगर से वह पहली बार अपनी सहेली मीना के साथ देवभूमि के प्रवेश द्वार रिशिकेश पहुंची थी। मीना पहाड़ की रहने वाली थी तो स्वभाव से ही वह एक आम पहाड़ी अल्हड़ युवती थी, जिसके स्वभाव में शर्मिलापन बचपन से ही शामिल था वही सुजाता महानगरीय वातावरण में पली बड़ी थी तो उन्मुक्त रहन सहन पहनावा और बोलचाल उसके व्यवहार में स्वाभाविक रूप से समाहित थी। दोनों आज ही राजधानी मेल से रिशिकेश पहुंची थी। दोनों की मुलाकात कक्षा तीसरी में प्रवेश के  मुम्बई के मलाड़ इलाके में उस वक्त हुई थी वक्त हुई थी, जब दोनों के पापा एक ही जब विक्रम में सवार हुए थे। बातों बातों में दोनों ने एक दूसरे का परिचय पूछा तो दोनों बच्चों ने भी अपने बाल स्वभाव के कारण एक दूसरे से शर्माते हुए बातचीत शुरू की थी। एक ही कस्बे से रोज शाला आने जाने के कारण बहुत कम समय में दोनों की दोस्ती हो गई। बातचीत में जब कभी भी मीना पहाड़ों के जन जीवन, रहन सहन की बात करती तो सुजाता कल्पनाओं के एक अनोखे संसार में पहुंच जाती। ऐसा होना कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं थी। बाल मनोविज्ञान के जानकार कहते हैं कि बच्चों की सोच एक वयस्क की सोच से कई जादा अधिक गहरी होती है। राजधानी मेल से ही दोनों रात के ग्यारह  बजे रिशिकेश रेलवे स्टेशन पर उतरे थे।

पहाड़ी स्टेशन होने के कारण जून के इस मौसम में भी हल्की सर्दी बरकरार थी। दोनों ने अपने अपने बैग संभाले और चल पड़े। मीना के पापा ने पहले ही उन दोनों के लिए अपने एक जानकार के होटल में कमरा बुक कर रखा था। होटल के कमरे में पहुंचते ही जैसे ही सुजाता ने खिड़की खोली तो चन्द्रमा की रोशनी में सामने गंगा की कल कल करती, बल खाती लहरों ने उसका मन मोह लिया। मुम्बई जैसे भीड़भाड़ वाले महानगर में वे ऐसे दृश्य केवल नेशनल जियोग्राफी चैनल पर ही देख सकते थे। मन की उत्सुकता को प्रकट करते हुए उसने मीना से गंगा का जल छूने की बात कही तो मीना ने उसे आश्वस्त किया कि थोड़ा आराम करने के बाद वे गंगा के किनारे न केवल टहलेंगे बल्कि, पानी से अठखेलियाँ भी करेंगे। मन में सुबह होने तक का इंतजार लिए सुजाता जैसे ही बिस्तर पर पसरी कि गहरी नींद की आगोश में चली गई।

मीना  भी मोबाइल में 4 बजे का अलार्म लगा बिस्तर पर लेट गई। रिशिकेश के साफ वातावरण में एक गहरी नींद लेने के बाद सुजाता की नींद तड़के 3बजे ही खुल गई। उसने बिना कोई आहट किये खिड़की खोली तो पुनः चांदनी रात में गंगा की कल कल करती लहरें मानों उसे अपने पास बुलाने के लिए आवाज कर रही हों।साढ़े तीन बजे ही सुजाता ने मीना को जगा दिया और गंगा किनारे जाने की जिद की। मीना भी फ्रेश होकर सुजाता का हाथ पकड़ कमरे से बाहर निकल पड़ी। दोनों ने लगभग दौड़ कर होटल की सीढ़ि

याँ पार की और नदी किनारे के रेत में उतर पड़े। उन्हें नजदीक आता देख मनसुख ने अपनी नाव ठेल कर पानी में उतार दी। मनसुख इस घाट का वो पहला नाविक था जो सबसे पहले अपने काम पर पहुंच जाता था। चालीस साल हो चले थे मनसुख को। उसने अपने बाबा दिलसुख की सार्गिदी में नाव का काम सीखा था। इसी की आमदनी से उसका घर चलता था। इलाके में मनसुख जैसा हुनरमंद और ईमानदार कोई दूसरा नाविक न था। सुजाता और मीना को अपनी ओर आता देख मनसुख ने नाव एक बार फिर से किनारे पर ला दी। दोनों की चाल से वह ताड़ गया था कि निश्चित ही दोनों नाव की सवारी करने के ही इरादे से इधर निकली हैं। वह कुछ पूछता इससे पहले ही मीना, सुजाता से बोल पड़ी, नाव की सवारी करेगी? सुजाता को तो मानो बिना मांगे ही मुराद मिल गई थी। उसने कहा क्या तू भी बैठेगी?

मीना पहाड़ी तो थी लेकिन नाव में बैठने से बहुत डरती थी। इस डर का कारण वास्तविक से जादा मनोवैज्ञानिक था, क्योंकि उसके चाचा की मौत नाव से गिरने के कारण ही हुई थी, तो तबसे उनके परिवार की नाव से जैसे दुश्मनी ही चली आ रही थी। मीना के मुख से कोई उत्तर न निकलने पर मनसुख ही बोल उठा, कोई बात नहीं मैडम जी अकेले ही भी सैर करेंगे तो पैसा उतना ही लगेगा। सुजाता पूछ पड़ी कितना। बस 7किलोमीटर का दो सौ रूपया। इधर सुजाता की उत्सुकता देख, मीना ने उसे हाथ पकड़ नाव में चढ़ा दिया और स्वयं किनारे पर बैठ गई।

चॉंदनी रात, साफ आसमान, गंगा का मध्‍य, चलती नाव पर सवार एक खूबसूरत युवती, नाव चालक अपनी धुन में मस्‍त चप्‍पू चलाता हुआ बढ़ चला। कुछ ही देर में वे हर की पौड़ी के नजदीक पहुंच चुके थे। नाव पानी को चीरते हुए चली जा रही है। मनसुख के चप्पू चलाने का शोर, गंगा की कलरव के साथ मिलकर एक आलौकिक स्वर बन, वातावरण में गूँज रहा है। कल्पना के संसार को यथार्थ में  देख वह युवती अपने संसार में डूबी हुई कभी अपने लम्‍बे बालों के लट को अंगुलियों यों में पिराती तो कभी हाथ नीचे कर गंगा के पानी को उछालती, नीरव गंगा जल से अठखेलियाँ कर रही थी। गंगा की तेज धारा में हिचकोले खाते वक्त सुजाता के शरीर में एक तेज सिहरन उठती। इधर थोड़ी देर एकातं में बैठकर मीना के मन अनेक प्रश्नों की आशंकाओं से भर उठता। दूसरे ही पल वह इन डरावनी आशंकाओं को झटक देती, लेकिन जल्द ही पुनः उसका मन डरावनी चिंताओं से भर जाता। इसी उहापोह में वह चप्पल को हाथों में ले गंगा की धारा की  दिशा में भागने लगी। किनारे के काई जमे पत्थरों पर पैर पढ़ते ही वह फिसल जाती पर, दूसरे ही क्षण सुजाता की चिंता में वह उठ खड़ी होकर भागने लगती। उसे इस तरह गिरता पड़ता देख गंगा के दूसरी तरफ एक नाविक ने उसे मुसीबत में समझ, अपनी नाव इस किनारे मीना की तरफ दौड़ा दी। छिटकती चांदनी में मीना उसे देखने की कोशिश कर ही रही थी कि वह फिसल कर गहरे पानी में गिर पड़ी। नाविक ने तेज तेज चप्पू चलाकर नजदीक पहुँचते ही उसी गहरे पानी में छलांग लगा दी। जल्दी ही डूबती मीना के बालों को खींचकर वह अपनी नाव तक पहुंचने में सफल हुआ।

नाव के अंदर गिरते ही जैसे मीना बेहोशी से होश में आके बड़बड़ाने लगी, सुजाता सुजाता, मैंने तूझे क्यों नाव में बिठा दिया? अब तक नाविक कुछ कुछ माजरा समझ गया था, तो उसने मीना से पूछा कितनी देर हुई होगी उनको? मीना ने बताया कि लगभग 20मिनट। तो वह समझ गया कि अब तक वो चंडी घाट पहुंच गये होंगे। उसने मीना को नाव की तली पर आराम से बैठने को कहकर तेज तेज चप्पू चलाना शुरू कर दिया। जल्दी ही उसने मनसुख को पहचान लिया। मनसुख की नाव की ओर इशारा कर उसने मीना से कहा बहन शायद वह रही तुम्हारी मित्र? तलहटी पर बैठी मीना ने आँखें उपर उठाकर देखा तो सुजाता के मुख पर बिखरी खुशी जैसे उसी को धन्यवाद दे रही थी। इतने में नाविक ने अपनी नाव मनसुख की नाव के ठीक बगल में लगा ली। सुजाता नाव से उतर चुकी थी तो मीना भी जल्दी ही उतर कर उससे लिपट पड़ी। दोनों नाविकों के बीच हुए वार्तालाप से सुजाता पूरा माजरा समझ चुकी थी तो उसके आंसुओं की धारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी। ये यात्रा उन सभी के लिए यादगार बन चुकी थी।

 हेमंत चौकियाल, अगस्त्यमुनि-रुद्रप्रयाग,उत्तराखंड, 9759981877

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