इंसान होने का डर- अरुण अर्णव खरे

इंसान होने का डर- अरुण अर्णव खरे

दो साल पहले तक मैं स्वयं को बड़ा निर्भीक समझता था। समझता क्या, था भी। न किसी बात से डरता था न किसी व्यक्ति से और न ही किसी जीव-जंतु से। छुटपन से ही जैसे न डरने की घुटी पिलाई गई थी। उस दौर में न कभी टीचर का बैंत डरा सका और न बात-बात में क्लास के बाहर बरामदे में खड़ा कर मुर्गा बना देने की उनकी धौंस। थोड़ा बड़ा हुआ तो मोहिनी पर लाइन मारने से उसके टी.आई. बाप का रौब भी नहीं डरा पाया। भूत, प्रेत और चुड़ैलों को मैं कल्पना की वस्तुएँ मानता रहा अतएव उनसे डरने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हुआ। न कभी सच बोलने से डरा, न कभी झूठ बोलने से और न बेतुके बहाने बनाने से। और बड़ा हुआ तो मंच पर पहली कविता पढ़ते हुए हुई हूटिंग भी नहीं डरा सकी। शान से दूसरी कविता भी उसी समय श्रोताओं को दंड-स्वरूप सुना डाली। दुनियादारी में प्रवेश किया तो न कभी प्याज के भाव ने डराया और न पेट्रोल की कीमतों ने। शान से तुअर दाल और सरसों का तेल भी खरीद कर लाता रहा। शेयर बाजार के औंधे मुँह धड़ाम से गिर पड़ने की धमक भी कभी विचलित नहीं कर सकी। राक्षस-टाइप अफसरों से मुठभेड़ के समय भी मैं बिना डरे ताल ठोंक के खड़ा रहा। मैं कंपनियों द्वारा उपभोक्ताओं की सुविधा के लिए जारी किए गए टोल फ्री नंबरों से भी कभी नहीं डरा जिन पर बात करने की लालसा में मोबाइल के बटन दबाते-दबाते भले ही उँगलियों में दर्द होने लगा हो। बुरकिना फासो या सियरा लिओन जैसे अनाम देशों से लाटरी लग जाने की सूचना देने वाले ई-मेल खोलने से भी नहीं डरा। कहने का आशय यह कि डर नाम का यह अदृश्यजीवी कभी मेरे आसपास भी नहीं फटक सका।

पर बीते कुछ सालों से मैं बहुत डरने लगा हूँ। बहुत छोटी-छोटी बातों से, छोटी-छोटी चीजों से डरने लगा हूँ। अब डर का आलम यह है कि मन हमेशा डरा-डरा रहता है। डर जैसे कुंडली के छठवें घर में स्थाई भाव से विराजमान हो गया है और आठवें घर को ललचाई दृष्टि से देखे जा रहा है। कोरोना काल में पहली बार सड़कों पर परेशान लोगों के हुजूम, जलती चिताएँ और तैरती लाशों को देखकर डर लगा था। इसके बाद तो जैसे हर बात में डर लगने लगा, हर जगह डर दिखाई देने लगा। चेकोस्लोवाकिया की स्पेलिंग फटाफट उच्चारने वाली जुबान, ट्रंप की स्पेलिंग उच्चारते हुए लड़खड़ाने लगी। एक समय टाइम ट्रैवल और क्वांटम फिजिक्स जैसे जटिल विषय पर शोध करने की सोचने वाला मैं, पोते को फिजिक्स या मैथ्स पढ़ाते हुए बीटा और डेल्टा जैसे सिंबल देखकर डरने लगा हूँ। डर से मूड ऑफ हो जाता और पढ़ाई धरी रह जाती है। कोरोना काल से लगी हाथ धोने की आदत ने भाग्यरेखा को ही धो दिया है। अब उसे देखने के लिए सुपर मैग्निफाइंग ग्लास की जरूरत पड़ने लगी है। बिना भाग्य रेखा वाला हाथ जब भी देखता हूँ डर से सिहर उठता हूँ।

आजकल पक्के यार-दोस्त भी डर से कन्नी काटते नजर आते हैं। एक समय था जब दुबे जी वॉक-वे पर घूमते हुए मेरा हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती छ: जोक सुनाते थे, आजकल वह हाथ हिलाकर मेरा अभिवादन स्वीकार करने में भी डरने लगे हैं। पता चला है कि फिलीस्तीन के पक्ष में एक्स पर ट्विट करने के अगले दिन ही कोई उनके मकान पर लाल रंग का क्रास लगा गया था। उसी दिन से वह घड़ी की टिक-टिक तक को बुलडोजर की आवाज समझकर डर से पसीने-पसीने हो जाते हैं। यह जानकर उनका डर और भी बढ़ गया जब उनके बहुत से मित्रों ने एक्स पर उसी दिन उन्हें अनफॉलो भी कर दिया। पहली बार जाना कि एक का डर दूसरे के डर का समानुपातिक होता है। लोग व्यर्थ ही कहते हैं कि डर के आगे जीत है। अब डर के आगे भी डर ही दिखाई देता है। बुलडोजर का डर कम होता है तो नागरिकता का प्रश्न डराने आ जाता है। राहत की सांस लेने से पहले ही चुनाव डराने आ जाते हैं, रैलियाँ डराती हैं, धार्मिक उन्माद डराता है, एंकर डराते हैं, बाजार डराते हैं, विश्वयुद्ध की भविष्यवाणियाँ डराती हैं, इतिहास डराता है, उसका पुनर्लेखन डराता है, रंग डराते हैं, धर्म डराता है, जाति डराती है .. कभी-कभी तो इंसान होना भी डराने लगता है।

अरुण अर्णव खरे
डी 1/35 दानिश नगर
होशंगाबाद रोड, भोपाल (म.प्र.) 462026
e mail : arunarnaw@gmail.com    Mob: 9893007744

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