वो गाँव के तीन पीढियों के सेतु थे। चार बीसी और तीन साल से अधिक की जात्रा (अवधि) पूरी कर चुके थे। पहला विश्व युद्ध, दूसरे विश्व युद्ध सहित, भारत पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान के कत्लेआम के जीवित दस्तावेज थे वो। देश दुनिया के घाट घाट का पानी पीकर सधे थे वो। गरीबी के कारण कुछ विशेष नहीं कर पाये थे ये अलग बात थी, पर दुनिया भर के मानवी और मशीनी हुनर सीखकर वो पूरे इलाके के लिए इन्साइक्लोपीडिया(विशेष जानकार) से कम न थे। स्कूली शिक्षा भले कुल जमा चार कक्षा ही पढ़ पाये थे पर, देश दुनिया समाज को बहुत गहराई से पढ़ा था उन्होंने। बचपन में पिता की उँगली पकड़ इलाके के हर सामाजिक कामों को नजदीक से देखने-समझने का हुनर उन्हें जैसे विरासत में मिला था। उस दौर में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यों में सहभागिता करने वालों को समाज में बहुत ऊंचा दर्जा दिये जाने के साथ, सम्मान ब्याज में मिलता था। विरासत में पिता से मिली पण्डवानी गायकी के कारण दयाल सिंह जी की गिनती दशज्यूला पट्टी के अच्छे पण्डवानी गायकों में होती थी। उनकी गायकी के बारे में कहा जाता था कि तेज चलती हवा भी उनके मधुर कण्ठ की तान सुनकर मंद मंद बहती थी। क्षेत्र के 16 गांवों में पण्डवानी गायन के कारण उनका बड़ा मान सम्मान था। बताते हैं कि जब दयाल सिंह जी शैशवावस्था में पँहुचे ही थे कि पिता का साया उनके सिर से उठ गया। इसलिए उन्हें परिवार की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ी। पेट पालने के लिए उन्हें गाँव के नामी चिनाई मिस्त्री के साथ मजदूरी का काम करना पड़ा। दयाल सिंह को यह काम रास नहीं आता था पर परिवार के खातिर करना मजबूरी भी थी। यों तो खाने पीने का अनाज खेती से मिल जाता पर नोन (नमक) तेल साबुन तम्बाकू के लिए मजदूरी के अलावा विकल्प नहीं था।वो पण्डवानी के ख्याति प्राप्त गायक कैसे बने संयोगवशात इसकी भी एक कहानी थी।
इस बार गाँव में तीन दशकों बाद पाण्डव नृत्य “उर्याया” (निश्चित किया) गया था। कुछ दिनों से गाँव के युवा इसकी तैयारी के लिए भाग दौड़ में लगे थे। मुर्खल्या बौडा (ताऊ) हरेक को उसका काम समझाते, किसी को लकड़ी तैयार करने का काम था तो किसी को चौक की टूटी दीवाल ठीक करने का। कुछ को गाँव के हर घर से राशन पानी इकट्ठा करने का काम। हर कोई अपनी जिम्मेदारी को ठीक ढंग से निभा रहा था। पदानचौक में शांम को सभी बुजुर्ग उस दिन की कार्यवाही पर विचार मंथन करते और अगले दिन के काम बांटते। नगरास्या दादी का घर सबसे नजदीक होने के कारण सबके लिए हुक्का पानी का इंतजाम करती। उनका घर सबसे पास था सो हुक्का उनके घर ही विराजता था। जब जरूरत होती दादी उसमें थोड़ा सा तम्बाकू रखती और चार कोयले डाल कर चौक में रखवा देती। हुक्का वापस लाकर दादी के घर रखना भरतु का काम था। वह दादी का सबसे प्रिय भी था सो भरतु दादी के भी छोटे मोटे काम कर लेता था। बदले में दादी उसे गुड़ चना देती और गाँव भर से पैंणा के रोट आर्से उसी के लिए संभाले होते। आज गाँव के घरों में मेहमानों और धियाणियों(विवाहिता बेटियों) का पहुँचना प्रारंभ हो गया था। कल सुबह से पण्डौ लीला (पाण्डव नृत्य) जो होना था। सांझ ढलने के साथ साथ गाँव में रौनक बढ़ती जा रही थी। हर घंटे चार छ:मेहमान गाँव में पहुँच रहे थे। दयाल सिंह के घर भी उनकी बड़ी पूफू आई थी। पूफू पूरे एक बीसी साल बाद आई थी। दयाल सिंह पूफू से पहली बार मिल रहे थे। सेवा सौंळीं (नमस्ते /अभिवादन) के बाद पूफू पुराने दिनों की याद परिवार को सुनाने लग गई। रोटी पकने तक दयाल सिंह और पूफू खूब घुलमिल गये।
रोटी खाने के लिए सब साथ ही बैठे। घर में दो ही कटोरे थे तो तय हुआ कि एक बार पूफू और दयाल सिंह ही खायेंगे। पर पूफू असाढ़ी को यह मंजूर नहीं था। असाढ़ी ने कटोरे की दाल थाली में उड़ेल कर बौजी (भाभी) को दे दिया कि इसमें काकी (चाची) के लिए रखें। देखा देखी में दयाल सिंह ने भी कटोरा खाली कर माँ को दे दिया। अब चारों साथ थे और साथ खा रहे थे। रोटी पूरी हुई तो बौजी ने पीतल का बड़ा सा गिलास दूध भरकर, असाढ़ी की चौकली चूल्हे की तरफ खिसकाई। चूल्हे में भ्यूंळ (भीमल) के अंगारे खूब चटक कर आंच दे रहे थे। बातों बातों में आग तापते हुए पुराने दिनों को याद कर पूफू ने पण्डवानी गायन प्रारंभ कर दिया। दयाल सिंह एकटक पूफू की आँखों में गाते हुए बहती अश्रु धारा को देखते और चूल्हे में फूँक मारते। फूँक मारते मारते मारते अचानक दयाल सिंह भी पूफू के स्वर में स्वर मिलाने लगे। यह देख पूफू भी और महीन तान में गाने लगी। जोड़ी ऐसी जमी की पण्डवानी की स्वर लहरियां धीरे-धीरे बढ़ने लगी। चाय भी चूल्हे में चढ़ी और पण्डवानी की भौंण (लय) भी बढ़ने लगी। रात आधी से जादा बीत गई तो पूफू ने चूल्हे पर ही बिस्तर खींच लिया। दयाल सिंह जी गाते गाते पहले ही पूफू की गोद में सो चुके थे।
सुबह होते ही गाँव भर में चहल पहल शुरू हो गई। गाँव से पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के हिसाब से दो लोग पड़ोसी गाँव के पण्डवानी गायक को लिवाने ढोल बाजे के साथ प्रस्थान कर चुके थे। इधर गाँव में पूरी पकोड़ी बनने की महक हवा को महका रही थी। दयाल सिंह जी भी पूफू की ऊँगली थामे पण्डों खौळा(पाण्डव चौक) में पंहुच गये। ढोल दमाऊं की थाम पर पंच पूजा प्रारंभ हो गयी। हनुमान जी ने भी पश्वा पर अवतरित होकर दर्शन देकर सभी को हर्षित कर दिया। अब इंतजारी थी तो पड़ोसी गाँव से पहुंचने वाले पण्डवानी गायक की, जिनके आते ही ढोल की थाप पर जागर शुरू होने थे और नृत्य शुरू होना था। पर यह क्या? जनता जनार्दन के बीच कुछ खुशर-फुसर शुरू हो गई । धीरे-धीरे आमतौर पर महिलाओं के बीच होने वाला कोलाहल धीरे – धीरे कम होते होते खामोशी की शक्ल ले चुका था। बाजीगर भी अब ढोल अनमने मन से बजा रहे थे। लिवाने गये दो पंच भी चुपचाप ढोल लटकाये चौक में पहुँच गये थे । उनके खाली हाथ पहुंचते ही सन्नाटा भी बढ़ गया। पता चला कि पड़ोसी गाँव के पण्डवानी गायक आज हुर्रमुर(सबेरा) होने से पहले ही स्वर्ग सिधार गये। अब क्या होगा? पंचों के चेहरे पर चिंता की लकीरें गाढ़ी होने लगी। मण्डप में भी चुप्पी छा गई। मुख्य पुजारी का कहना था कि अब तो प्रधान दीपक जल चुका है। बाणों की (पाण्डवों के प्रतीकात्मक अस्त्र-शस्त्र) प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी है। काटो तो खून नहीं, की सी स्थिति हो गई थी। बालक दयाल सिंह नहीं समझ पाया था कि ये अचानक गहरी खामोशी क्यों पसर गई। कुछ देर पहले ही तो ढोल बाजों की खूब गहमा गहमी थी। अब क्यों नहीं? बाल मन नहीं माना तो पूफू के कान में फुसफुसा कर पूछ ही लिया कि ये अचानक चुप्पी क्यों? पूफू ने भी फुसफुसा कर बता दिया कि जिसने पण्डवानी गानी थी वो नहीं आ सकते। तो दयाल ने कह दिया पूफू तुम भी तो गाती हो। आप ही गा दो ना? असाढ़ी ने सुनते ही दयाल के मुँह को हाथ से जैसे कसकर बंद ही कर दिया कि कहीं ये दुबारा जोर से न कह दे। असाढ़ी मन में सोचने लगी, कहीं महिलाएं भी गाती हैं पण्डवानी? वो तो मैंने बचपन में ह्यूंद (सर्दियों) के दिनों में आग तापते तापते दिदा (बड़े भाई) के मुंह से सुनती थी तो तब मुझे भी हूबहू याद हो गयी थी पण्डवानी। पर समाज में, बाप रे बाप, कैसे गा सकती हूंँ। ऐसा न कभी हुआ, न देखा -न सुना। लेकिन दयाल ने फिर कह कर जैसे असाढ़ी की तन्द्रा को तोड़ लिया – पूफू तुम ही गाओ न… मैं आपके साथ भौंण पुर्या (तान पूरी कर) लूंगा। दोनों के बीच ये कानाफूसी पास में बैठी नगरास्या दादी ने सुनी तो उसने भी असाढ़ी को उकसाया। कन तु जाणदी छैं त, तू ही लगो दुं पण्ड्वाणी। (अगर तू जानती है तो तू ही गा ले पण्डवानी)।ये सुनकर दयाल सिंह ने पूफू को झंझोड़ना शुरू कर दिया तो असाढ़ी ने दबे स्वरों में शुरू कर दी। देखते ही देखते वातावरण से खामोशी को निगल हर्ष तैरने लग गया। रौनक लौट आई, मुर्झाये चेहरे खिलने लगे, बाजे गाजों की धमक और खनक भी बढ़ने लगी। पहले दिन का पूरा कार्यक्रम निपट गया।
आज की सुबह हर घर के हर प्राणी की जबान पर कल की खामोशी से रौनक लौटने तक का वो पूरा किस्सा अपनी अपनी प्रतिक्रिया के साथ मौजूद था। खामोश थी तो सिर्फ अषाढ़ी। एक तो आज से पहले किसी महिला ने सार्वजनिक पण्ड्वाणी नहीं गाई थी और दूसरी चिंता ये कि वो तो केवल तीन दिनों के लिए ही मायके आई थी,ससुराल में आजकल में ही उसकी भैंस ब्याहने वाली थी। बहुत जतन किये थे उसने भैंस पालने में। यही तो एकमात्र साधन था उसका चौका चूल्हा और परिवार चलाने का। वर्षों से वो भैंस को परिवार का ही कमाऊ सदस्य मानता थी। उसने प्यार से भैंस का नाम ही लाली रख लिया था। आसपास और परिचित लोग असाढ़ी को लाली की ही माँ के नाम से जानते और पुकारते थे। दर्शक घरों को चले गये तो पंचायत बैठी। सबके दिल दिमाग में एक ही प्रश्न था कि आज का कार्यक्रम तो हो गया पर अब आगे क्या होगा। अभी नृत्य उन्तीस दिन और चलना था। पंचों ने राय दी कि असाढ़ी को पूछा जाय, कि क्या उसे पूरी पण्ड्वाणी याद है? क्या वो अकेले 29 दिनों तक इसे गाकर नृत्य सम्पन्न कर सकती है?लेकिन बूढ़ी नगरास्या दादी की चिंता कुछ और थी। वो दयाल सिंह जी की पण्ड्वाणी गायकी की खानदानी परम्परा से परिचित थी। उसे विश्वास था कि असाढ़ी ऐसा कर सकती थी। पर क्या वो 29दिन और मायके में रुक सकती है? ससुराल में हाल फिलहाल में ब्याहने वाली उसकी भैंस? उसकी देखभाल? भैंस तो केवल भैंस न होकर असाढ़ी के परिवार की आर्थिकी का आधार थी। जब उसका दूध बिकेगा, तब परिवार का चूल्हा चलेगा। यकायक नगरास्या दादी पंचों से बोल उठी। “पर चिंतै बात य च कि यों 29दिनूं असाढ़ी कि भैंसी कू देखलु? (चिंता की बात ये है कि इन 29दिनों असाढ़ी की भैंस की देखभाल कौन करेगा?) इशारा साफ था कि असाढ़ी पण्ड्वाणी तो गा सकती है, यदि उसकी भैंस का जिम्मा कोई ले। एक राह तो मिल गई थी। तय हुआ कि असाढ़ी से पूछा जाय? सुबह होती ही पंचजन असाढ़ी के पास पहुंचे? सबकी नजरों में एक ही प्रश्न था, कि क्या असाढ़ी पण्ड्वाणी गा सकती है? सुनते ही असाढ़ी सोच में पड़ गई। एक तरफ मैतियों की अनुनय विनय….. दूसरी तरफ चूल्हे चौके की चिंता.. यदि लाली ठीक ठाक ब्याह गई तो दूध घी से परिवार चल ही जायेगा? असाढ़ी चुने तो चुने क्या? हां या ना।मैतियों की आस भरी नजरें, अपनी चिंता पर भारी पड़ गई। असाढ़ी ने हां कर दी थी रूकने की। पंचों के चेहरे पर रौनक आ गई। जो इज्जत दांव पर लग गई थी, वो बचने की उम्मीद से सभी के मुख पर मूंछे खिली सी प्रतीत होने लगी थी। पंचों ने राय दी कि प्रत्येक दिन पंचायत के दो आदमी असाढ़ी की लाली की देखभाल के लिए उसकी ससुराल जायेंगे, दूसरे दिन वो आकर लाली की राजीखुशी असाढ़ी को बतायेंगे। गांव के ही एक पशुओं के व्यवहार के जानकार को भी रोज लाली का मुआयना करने के लिए राजी कर लिया गया था। दूसरे दिन का पण्डों नाच शुरू हो गया। आज असाढ़ी को विशेष सम्मान के साथ मन्दिर की सीढ़ियों पर आसन लगा कर बिठाया गया था। असाढ़ी अकेले असहज महसूस कर रही थी तो उसने दयाल सिंह को भी साथ खींच लिया था। पंचों ने पात पिठाईं देकर असाढ़ी का मान सम्मान किया था। नगरास्या दादी ने पंचों द्वारा बनाई गई पंचायती माला पहना कर असाढ़ी का स्वागत किया ।
ढोल दमाऊं भंकोरी (रणभेरी) की सम्मिलित गूंज में देवता अवतरित होने लगे। असाढ़ी मन ही मन हरेक देवता से अपनी लाज रखने की प्रार्थना करती। करती भी क्यों नहीं। आखिर अब उसी पर पूरे नृत्य का दारोमदार था। वो एक तरह से निर्देशक की भूमिका में थी। असाढ़ी ने मन ही मन अपने स्वर्गीय पिता और बड़े भाई का स्मरण कर आज की पण्डों लीला का श्री गणेश किया-सेवा लांदों खोली का गणेशssssss.. मोरी का नारैणsssss, पंचनाम देवतौंssss.. उसकी स्वर लहरियां जैसे अपने लोक से देवताओं का आवाह्न करती, और देवता उसे सुनकर अवतरित होते। आसपास के पाँच कोश के गांवों तक ये खबर फैल चुकी थी कि एक महिला पहली बार पण्ड्वाणी गायक की मुख्य भूमिका में है। दिनों दिन दर्शकों की भीड़ भी बढ़ती जा रही थी। गाँव में बूढ़ी से बूढ़ी धियाणियां जैसे असाढ़ी को सुनने /देखने के लिए उमड़ कर आ रही थी। मिलन – प्रेम- भक्ति-श्रद्धा का अद्भुत संगम बन चुका था ये आयोजन। असाढ़ी पूफू के इस स्वागत सत्कार से बालक दयाल सिंह आश्चर्यचकित था। जब पूफू गाती तो वो शब्द पकड़ने की कोशिश करता। लम्बी तान पर तो वो पहले ही दिन से भौंण पुर्याने लगता। आज के पण्डो नृत्य में पण्डों लीला का मंचन भी होना था। द्रोपदी के वस्त्र हरण का मंचीय अभिनय होना था आज । दर्शकों में भी लीला को लेकर विशेष उत्साह था। विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य भी उपस्थित थे। कुछ गाँवों के पण्ड्वाणी के जानकार भी असाढ़ी की कला को देखने और मूल्यांकन के लिए गुपचुप रूप से आये थे। भीड़ भाड़ देखकर असाढ़ी चिंतित हो रही थी। बार बार पण्डों देवतों और पितृों से प्रार्थना करती की द्रोपदी की तरह उसकी भी लाज रखना कि कहीं पण्ड्वाणी गायन में कोई भूल-चूक न हो जाय।
नृत्य शुरू हो चुका था। देवता अवतरित होने लगे थे। असाढ़ी के गले में भी जैसे आज स्वयं सरस्वती ने निवास कर लिया था। अथाह भीड़ के बाबजूद भी हर चेहरे की दोनों आँखें असाढ़ी के मुख, होंठों पर केन्द्रित थी। अथाह भीड़ के बाबजूद भी निशब्दता की सी स्थिति बालक दयाल के मनोकूल थी। वो पूफू के मुंह से निकलने वाले हर शब्द को स्पष्ट सुनकर पकड़ पा रहा था। मानो आज हिमालय में बैठे शंकर ने अपने डमरू को जैसे दयाल के होंठों पर रख दिया हो। असाढ़ी ने भी आंखें मूंद बांया हाथ दयाल के सर पर रख दिया, अब तो मानो शब्द हाथ से उतर दयाल के कण्ठ तक पहुंच कर होंठों से उतर रहे हों। बात यहाँ तक हो पड़ी की आकाश में विचरने वाले पंछी भी ठौर ढूंढकर निशब्द होकर सुनने लगे थे। पण्डों के पश्वा मानों आकाश लोक से साक्षात पाण्डवों के रूप में दर्शन दे रहे थे। हरेक की आंखों से प्यार प्रेम अपनत्व श्रद्धा के आँसू झरने लगे। मानव और देवताओं के अद्भुत भावनाओं के संगम का दृश्य था यह। बाजगीरों के हाथों में जैसे आज स्वयं विश्वकर्मा का हुनर उतर आया हो। दूर गाँवों के लोग भी अपनी छतों पर बैठकर, इस अद्भुत बाद्य संगीत की ओर आँखें और कान लगाये बैठे थे। दयाल सिंह भी आज सब कुछ देख सुन आत्मसात कर रहा था। नृत्य सम्पन्न हुआ। सब एक दूसरे को भेंटते हुए असाढ़ी को छू भर लेना चाहते थे। दयाल सिंह को तो हरेक अपने कंधों पर उठाकर सम्मान करना चाहता था। बहुत देर तक दयाल सिंह एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे कंधे पर सैर करता रहा। लोग असाढ़ी को तो जैसे छोड़ना ही नहीं चाहते थे। ऐसे में पंचों को सबको समझा बुझा कर, घरों को भेजना पड़ा।
आज पण्डों नृत्य का अंतिम दिन था। 30 से अधिक दिन हो गए थे असाढ़ी को अपनी लाली से दूर हुए। अभी अभी उसे खबर मिली थी कि आज ही सुबह लाली राजी खुशी ब्याह गई है। अब उसका मन करता था कि वो उड़कर चली जाये। लेकिन पंचों का कहना था कि आज दिन में 12बजे तक पण्डों का ये नृत्य घर्या (सम्पन्न) जायेगा, तो तब ही असाढ़ी को विदा किया जायेगा।आज सब जल्दी जल्दी में थे। बीते कल पण्डों वार्ता में पाण्डवों को स्वर्गारोहण के लिए प्रस्थान करवा दिया गया था। आज पण्डों के प्रतीक अस्त्र शस्त्रों को पंचायती मन्दिर में रखा जाना था, जहाँ आगामी सालों के नृत्य तक उनकी पूजा प्रतिष्ठा की जानी थी। मुख्य पुजारी को भी जल्दी समापन कर,आज एक माह बाद घर जाने की जल्दी थी। अतः सभी पंचों व पश्वाओं को बिठा कर श्री संवाद (आशीर्वाद स्वरूप श्रीफल भेंट करना) दिया गया। असाढ़ी और दयाल सिंह को ऊंचे आसन पर बिठाकर विशेष सम्मान के साथ साड़ा (रेशमी अंगवस्त्र) भेंट किया गया। पंचायती भोजन करवा कर ढोल दमाऊं सहित असाढ़ी को मायके के घर तक पहुँचाया गया। मायके वासियों को भेंटकर, असाढ़ी दयाल सिंह से लिफ्ट कर खूब रोई, भावुक हुई। बालक दयाल सिंह भी पूफू के अंक से लिपट – चिपट खूब रोया। पूफू ने आशीर्वाद दिया कि अब अगले पण्डों नृत्य में पण्ड्वाणी दयाल सिंह ही गायेगा।
विदा होकर असाढ़ी जल्दी जल्दी घर पहुँचना चाहती थी। अब उसके कदम तेजी से बढ़ रहे थे। इतनी तेजी से कि ढोल दमाऊं बहुत पीछे छूट गये । दूर पहाड़ी की धार से असाढ़ी और उसकी भैंस लाली की आंखें दो-चार हुई। दोनों की आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। तेजी से दौड़ कर जल्दी जल्दी असाढ़ी ने दूरी पूरी की। असाढ़ी ने अपनी बांहें लाली के गले में डाल दी। लाली अपने नथुने असाढ़ी के गालों से रगड़ कर मानो पूछ रही थी कि कहां थी इतने दिनों। असाढ़ी ने कान में फुसफुसा कर माफी मांगते हुए, अपने गले में पड़ी माला लाली के गले में डाल दी। लाली ने मानो मुस्करा कर वो सम्मान स्वीकार किया और माला गले से उछालकर बगल में खड़े अपनी थोरी(भैंस का बच्चा) के गले में डाल दी। असाढ़ी ने लाली के गले से हाथ हटाकर थोरी को पुचकार कर गोद में उठा लिया। और गले से दूसरी माला निकाल कर, उसके गले में डाल दी। दूर से आते बाजगीर इस दृश्य को देखकर, असाढ़ी और लाली के सम्बन्धों को अपने-अपने बौद्धिक स्तर से ब्याख्यायित करने लगे। इधर दूसरी तरफ दयाल सिंह आगामी पण्डों नृत्य में पण्ड्वाणी गायन की तैयारी में जुट गया था। उसके साथ और माथ पूफू का आशीर्वाद जो था।
हेमंत चौकियाल
स०अ०
अगस्त्यमुनि (रूद्रप्रयाग) उत्तराखंड
Mob-9759981877
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