खत्‍म होती रिश्तों की मिठास कैसे -दीपमाला

“वसुधैव कुटुम्बकम”की भावना से ओत प्रोत सनातन संस्कृति l जहाँ सिर्फ अपना परिवार ही नहीं अपितु समस्त वसुंधरा ही अपना परिवार है ये भावना समाहित होती थी सभी के हृदय में l सभी उसे जीवंत बनाते हुए उसका पालन भी करते थे l बिना परिवार की कल्पना करना भी सबके लिए कल्पना से परे था l संयुक्त परिवार में रहना, सबका स्नेह पाना, सहयोग करना, बड़ो का सम्मान करना, छोटों पर वात्सल्य लुटाना बहुत ही सौभाग्य की बात थी l
पर धीरे धीरे भौतिकतावाद ने अपना पैर पसारना आरम्भ किया l लोग भौतिक सुख-सुविधा जुटाने की होड़ में जुट गये और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में भागना आरम्भ कर दिया l क्योंकि संयुक्त परिवार में शांति व सुकून तो था पर अत्यधिक भौतिक सुख का थोड़ा अभाव रहता था l व्यक्तिगत रूप से कोई भौतिक सुख प्राप्त नहीं कर पाता था, सबकी सुविधा देखना पड़ता था l पर मानव समाज प्रगति की दौड़ में भौतिक सुविधा को ही अपना सब कुछ मान बैठे l
अब भौतिक सुविधा जुटाना है तो सिलसिला आरंभ होता है गांव से बाहर जाकर नौकरी करने का काल l जिस घर में एक से अधिक भाई है तो एक भाई घर में रहता था खेती बाड़ी सँभालने व बचे भाई बाहर चले जाते थे नौकरी करने, यही से आरंभ होता है परिवार के अलग होने की कहानी l गांव में जो रह गया वो माता-पिता की जिम्मेदारी पूरा निभाता है और उसका स्वयं का परिवार भी गांव के परिवेश में ही परवरिश पा रहा है l बांकी भाई पैसा भेजते हैं पर गांव कभी-कभी त्यौहार में ही आते हैं तो गांव के प्रति अपनापन थोड़ा कम होते चला गया l आत्मीयता व अपनी मिट्टी से जुड़ाव भी कम होता चला गया l
अब सभी भाइयों का परिवार गांव में मिलते हैं एक साथ किसी खास मौके पर या त्यौहार पर l नौकरी वाले की पत्नियां मेहमान बनकर आने लगी, तो जाहिर सी बात है जो बहू घर में है उसी से ही अब पूरा उम्मीद की जाती है कि वो ही जिम्मेदारी निभाये सबको खुश करने का l और घर में जो बहू है उसको लगता है बहुत दिनों बाद बांकी बहुये घर आई है तो वे भी कुछदिन अपना जिम्मेदारी निभायेl अब क्या बीज अंकुरित हो गई मनमुटाव का, जो अधिकांशतः परिवारों में होता चला गया l अब रह गये बच्चे, शहर से जो बच्चे आये हैं गांव में रहने वाले बच्चों को कमतर आंकने लगे और रिश्तों में तुलनात्मक संबंध की शुरुआत हो गई l घर के बुजुर्गों का समय इस रिश्तों के उबड़ खाबड़ को पाटने में चला गया l सभी भाइयों ने भी मधुरिता लाने की कोशिश की पर नाकाम रहे l हम सही और बांकी गलत का संस्कार पनपने लगा, आत्मपरिष्कार, आत्मचिंतन की साधना की परिपाटी समाप्त होते चली गई l
धीरे-धीरे संयुक्त परिवार खत्म होने लगा l लोगों को अब हम दो हमारे दो में सुख मिलने लगा l माता पिता गांव में ही छूट गये l छूट गया बच्चों का दादा-दादी की कहानी, छूट गया गांव का चौपाल, छुटे वो पीपल की पुरवैया, गाय-बैल की गले की घंटियाँ छूट गई, छूट गये वो मित्र जिनसे बिंदास दिल की बात किया करते थे, छूट गये वो हंसी ठहाके जो बेझिझक होती थी अपनों के बीच, छूट गये वो सारे विश्वास जो हम गांव में आंख मूंदकर किसी पर भी किया करते थे l
आज सभी के मित्र है फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर जो भावनात्मकता से परे सिर्फ मृगतृष्णा जैसे l लोगों को आज भौतिक सुख-सुविधा तो मिल गया है l एयर कन्डीशन में सो रहे पर चैन की नींद नहीं l कार में चल रहे पर सफर का आनंद नहीं l बड़े रेस्टोरेंट में खा रहे पर घर सा पवित्रता नहीं l कौन से दौड़ में भाग रहे हैं स्वयं को पता नहीं l किससे प्रतिस्पर्धा है स्वयं को ही अहसास नहीं l रोबोट में मानवता के गुण विकसित किये जा रहे और मानव रोबोट होते चला जा रहा है l संवेदनाएं कहीं नदारत हो गई मानव सिर्फ मशीन हो गया l
पर हम कितना भी भाग लें एक पल ऐसा रहता है जहाँ हमारा दम घुटता है भागम-भाग में और उस पल मां की याद आ ही जाती है कि काश मां होती तो थोड़ा सिर को सहला देती सारा थकान चूर हो जाता l काश पिता होते थोड़ा सा प्यार को छुपाते हुये डांट देते l काश भाई-बहन होते जिनके साथ कभी चाय के लिए कभी सायकिल के लिए लड़ लेते l काश वो मित्र होते जिनमें अपनापन था आत्मीयता था l और जो पति-पत्नी अलग-अलग रहकर जॉब कर रहे वो भी सोचते हैं कि काश पास में होते तो दो पल सुकून के साथ बैठकर कॉफी पी लेते l
हमको अब परिवार का महत्व समझना पड़ेगा फिर से क्योंकि हम कितने भी भीड़ में हैं फिर भी अकेले हैं l हमको माता पिता को साथ में रखना पड़ेगा अगर हमेशा न हो सके तो कभी-कभी ही ताकि हमारे बच्चे उसको देखकर सीखे क्योंकि वो हमको देखकर ही सीख रहे होते है lमेरे पड़ोस के श्रीवास्तव जी उनके माता-पिता गांव में रहते हैं l अब समस्या ये है कि माता-पिता भी गांव छोड़कर शहर में नहीं आना चाहते l श्रीवास्तव जी ने एक रास्ता निकाला और अपने पिता से कहा जितने दिन आपको शहर में रहना है रहिये और जब मन करे गांव में रहिये और पिता ने स्वीकार किया और ये क्रम चलता गया l बच्चे भी खुश दादा-दादी भी खुश l रोज बच्चों को पार्क ले जाना, स्कूल बस आने पर उन्हें चढ़ाने उतारने जैसे छोटी जिम्मेदारी निभाने में बुजुर्गो का समय भी निकल जाता है और उनको आत्मिक प्रसन्नता भी मिलती है और बहू को भी थोड़ा समय मिल जाता है l ऐसे ही अपने भाई के साथ भी श्रीवास्तव जी ने यह क्रम अपनाने को कहा और समय-समय पर सब एक साथ इकठ्ठे होते हैं l सभी खुश हैं और वर्तमान के प्रतिस्पर्धा के दौड़ में भी हैं l
ऐसे छोटी शुरुआत किया जा सकता है और हम तो कहते हैं इसकी जिम्मेदारी नारियों की अधिक है क्योंकि नारियां घर की आधार शिला है और प्रधानमंत्री भी l जैसे रसोई में भोजन को स्वादिष्ट कैसे बनाना है वो जानती है वैसे ही रिश्तों की रसोई को कैसे रसदार बनाना है वो भी जानती है l
वर्तमान में हमको वर्तमान के अनुसार जीना है जिसके लिए हमारे बड़ों को भी थोड़ा सामंजस्य स्थापित करना पड़ेगा और बच्चों को भी उनकी मनः स्थिति समझनी पड़ेगी ताकि रिश्तों की मिठास बनी रहे l सोनी सब पर प्रसारित होने वाली”वागले की दुनिया”बहुत ही अच्छा उदाहरण है परिवार में मिठास बनाये रखने का, जहां तीनों पीढ़ी एक दूसरे को समझते हुए रिश्तों में मिठास घोलते हैं l

दीपमाला वैष्णव
कोंडागांव(cg)
9753024524

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