साहित्य सरोज कहानी प्रतियोगिता 2025, कहानी पर कमेंट जरूर देंं।
विवाह के इक्कीस वर्ष हो चुके हैं ।जीवन की आपाधापी में कितना कुछ बदल गया है पता ही नहीं चला । शरीर में पहले जैसी ताकत नही बची है। देह थुल-थुल हो गई है और सिर के बाल झड़ चुके हैं।थोड़ा सा भी चलता हूं तो हांफने लगता हूं । आज मैं जिंदगी के उस मुहाने पर खड़ा हूं जहां भविष्य की कल्पना का उन्माद फीका पड़ चुका है और अतीत धूल धूसरित। फिर भी अतीत की कुछ स्मृतियों का रंग इतना चटक है कि समय की धूल उसे मटमैला नहीं कर सकी है ।शुरुआती दिनों का आनंद और उल्लास इतना मौजूं है जिसमें डूबकर मैं अपने आपको तरोताजा कर लेता हूं ।उस समय सारी कायनात मेरे लिए रंगों से सराबोर थी ।लगता था जैसे सारा संसार मोहक खुशबू से गमक रहा हो।
मेरे अल्हड़पन को देखकर सरजू कक्का बरजते थे कि रे मोहना! धरती को धरती कहत जा ,ज्यादा सरग उतानौ न चल । तब मुझे कक्का की बातों पर हंसी आती थी ।मैं कहता -“कक्का तुम उपदेश बहुत झाड़ते हो। तुम्हारे उपदेशों का कभी अंत होगा कि नहीं ?”सरजू कक्का तमक उठते-” सारे अभी तुझे हरा- हरा सूझ रहा है ,जब गृहस्थी के मकड़जाल में फंसेगा तब नून -तेल का भाव पता चलेगा। वे लगे हाथ एक लोकोक्ति को कविता की तरह गा देते -“भूल गए रंग रस भूल गई मसखरियां। तीन चीजें आन पड़ी नून तेल लकड़िया।।”उस समय इन पंक्तियों का आशय समझ में नहीं आता था। लेकिन अब इसका असली अर्थ समझ में आने लगा है। जीवन के कठिन संघर्षो ने सब कुछ समझा दिया है ।ये संघर्ष अल्हड़ जीवन के चुलबुलेपन को लील गए हैं ।सच ही कहा था कक्का ने कि गृहस्थी में फंसने के बाद अनर्गल चीजों के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
मैं आगे बढ़ता रहा और अतीत पीछे छूटता गया। नौकरी और घर-परिवार में ऐसा उलझा कि अपने आपको भी भूल गया। बेटे-बेटियों के पालन- पोषण एवं उनकी पढ़ाई-लिखाई से ही फुरसत न मिलती। उनकी जॉब और ब्याह- शादियों की चिन्ता अलग से सताने लगी है। इसी घुन में घुन्ना की तरह पिस रहा हूं ।ऑफिस की परेशानियां अलग से है। मेरी मन:स्थिति को देखकर पत्नी टोकती-” क्या सोचते रहते हो ?ऑफिस की परेशानियां अपने साथ मत लाया करो ।अब तो तुम मुस्कराना भी भूल गए।”
परसों बॉस से बहस हो गई थी ,पत्नी वही समझ रही है। वह यह नहीं जानती है कि बहस चाहे जितनी कर लो जीतना तो बॉस ही को है। क्योंकि नौकरी की डोर उसी के हाथ में होती है ।डोर कट गई तो पतंग का ठिकाना नहीं कहां गिरे। इस उम्र में नौकरी ढूंढना मुश्किल होता है । खैर वह यह कहां जानती है कि इन बातों को मैं वही भूल आता हूं।
पत्नी कहती है कि मैं हंसना भूल गया हूं ।हो सकता है कि वह सही बोल रही हो ।मैं कब हंसा था ?शायद कल ही तो हंसा था, शर्मा जी के चुटीले व्यंग्य पर ।वह गलत सोच रही है ।मैं अब भी मुस्कुरा सकता हूं, पर मुस्कुराने की वजह होनी चाहिए। वजह है न, वह मेरा अतीत ,जिसे मैं अपने पास सुरक्षित रखे हूं ।सबसे छुपाकर। पत्नी और बच्चों से भी । मेरी वे स्मृतियां गर्मी की उमस में भी ठंडी बयार का झोंका बनकर मेरे तन- बदन को पुलका देती है । उनमें एक नाम है सरजू कक्का का।
सरजू काका हमारे पड़ोसी थे। वह हमारे मोहल्ला समाज के मुखिया थे। सामाजिक रीति-रिवाजों में, ब्याह- शादियों में उनका खासा दखल रहता था। बिरादरी भी उन्हें इज्जत देती थी। बिरादरी के सारे नियम कायदों का वे पालन करते थे और दूसरों से भी करवाते थे। यद्यपि वे पढ़े-लिखे नहीं थे पर रामायण और महाभारत की गाथाएं उन्हें मौखिक याद थी ।अपने आख्यान को धारदार बनाने के लिए वह कुछ किंवदंतियों को भी शामिल कर लेते थे जिससे आख्यान प्रभावशाली हो जाता था। यश और ज्ञान से भरपूर कक्का अपने आपको वजनदार महसूस करते थे ।सरजू कक्का अपने भतीजे के साथ रहते थे ।कक्का की जमीन -जायदाद पाकर भतीजा मौज में था। वह उनके खाने-पीने का खूब ध्यान रखता था ।रिश्तेदारी में घूमने वाला विभाग कक्का के हिस्से था। क्योंकि पूरी बिरादरी उन्हें अच्छे से जानती थी और मानती थी कि सरजू गुणी व्यक्ति हैं ।उनकी गिनती विशिष्ट व्यक्तियों में होती थी।
सरजू कक्का को ज्ञान के साथ-साथ एक व्यक्ति ने और खास बना दिया था । वे थे उनकी भतीजी के पति रतन । या यूं कहें कि उनके दामाद ने ।रतन जीजा सुल्हा और हुल्लड़बाज थे। वह मुझसे पांच-छै साल बड़े होंगे ।मेरी उनसे अच्छी पटरी बैठती थी। वह दूसरे जीजाओं की तरह मान -मर्यादा लेकर बैठने वालों में से नहीं थे। ब्याह के कामकाज में बराबर हाथ बंटाते ।जीजा बातूनी बहुत थे। नीति की बातें उन्हें भी खूब भाती थी। हंसी -मसखरी में नंबर वन ।खुद दूर रहते और दूसरों को उलझा देते। यहां उकसा दिया वहां सांत्वना दे आए ।सामने परमूंद देते ,पीठ पीछे हंसते।
रोज-रोज पानी में हगने से एक न एक दिन उतरा पड़ता है। लोग रतन जीजा की चालबाजियों को समझने लगे थे ।चढ़ते रिश्तेदार की वजह से कोई कुछ नहीं कह पाता था ।जब उन्हें स्वयं अपने सम्मान का खयाल नहीं था तो लोग कहां तक उनका मान रखते। जिससे मसखरी करते वही खिसया जाता। इसी खिसियाहट में उनके मुख से अनाप-शनाप निकल पड़ता। बड़े -बूढ़ों ने उन्हें कई बार समझाया कि लालाजू तुम यहां के दामाद हो, इस लौंडयाई के चक्कर में न पड़ा करो। रतन जीजा को समझ में तो आ जाता था पर आदत से मजबूर जीजा फिर अपने उसी ढर्रे पर लौट आते। इस बारे में उनका नजरिया बहुत स्पष्ट था। वे कहते थे कि हंसी -मसखरी का शौक पालो तो सहने की आदत डाल लो। वे हर सांचे में ढलने वाले जीव थे। बड़े- बूढ़ों के साथ बड़े- बूढ़ों वाली बातें और लुंगाडो़ के साथ पक्के लुंगाड़े बन जाते । उनके इन्हीं गुणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जीजा एक सफल सामाजिक प्राणी थे।
सरजू कक्का के परिवार में एक लड़के की शादी थी ।रतन जीजा उसी शादी में गांव आए थे। वे मंडप से ही यहां विराज गए । मंडप से टीका तक उनकी लात न लगी। दौड़- दौड़कर वे ब्याह के सारे काम निपटा रहे थे ।बारात का बुलउआ देने के लिए वे नाई के साथ स्वयं गए ।बारात में जाने का मेरा मन नहीं था पर वे मुझे जबरदस्ती ले गए । वैसे रतन जीजा के साथ जाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। मुझे दिक्कत थी सरजू कक्का से। मंडप से कुछ ऐसी चाल बिगड़ गई थी कि सरजू कक्का मुझे और रतन जीजा को रकत की आंखों देखने लगे थे।
बारात के जनवासे पहुंचते ही स्वागत- सत्कार शुरू हो गया। जेवनार के बाद कुछ लोग चढ़ाव(भांवर पड़ने से पहले लड़की के लिए सोने चांदी के आभूषणों के साथ श्रंगार का सामान भेंट करने जाना) चढ़ाने लड़की वाले के घर पहुंच गए। जो वहां नहीं गए वे सोने की जुगाड़ में चारपाइयां अगोट गए।
कक्का चढ़ाए में न गए जबकि उन्हें वहां जाना चाहिए था । कक्का और उनके ग्रुप ने चारपाइयां अपने कब्जे में की और तान गोडे़ लेट गए। जीजा को उनका इस तरह लेटना सहन न हुआ। वे उनके पास जाकर बोले-” कक्का तुम चढ़ाए में न गए ?” कक्का ने हूं कहा, न हां कहा। उन्होंने हमारी अति महत्वाकांक्षी योजना पर पानी फेर दिया था। थक- हारकर हम लड़की वाले के यहां पहुंचकर चढ़ाए वाली रस्म में शामिल हो गए।
जब हम जनवासे से लौटे तो हर खटिया के दो -दो दावेदार घोड़ा बेच कर सो रहे थे ।कुछ जमीन पर बिछी दरियों पर उल्टे -सीधे पड़े सो रहे थे। रतन जीजा दरी पर कैसे सोते? चढ़ते रिश्तेदार जो ठहरे ।धरती के साथ परिक्रमा करने के बाद उन्हें आत्मज्ञान हो गया था कि इस धरती पर चारपाइयां खाली नहीं है। मोक्ष प्राप्ति (खटिया) की खातिर उन्होंने अपना ध्यान मगज में चढ़ा लिया। मगज में ध्यान पहुंचते ही उनके खुराफाती दिमाग में हलचल शुरू हो गई ।फिर वही हलचल सूझ में परिणित होती चली गई ।
जीजा ने माचिस की तीलियां निकालकर सरजू कक्का के पैरों की उंगलियों में खोंस दी। मुझे माचिस देकर बोले-” जा तीलियों के रोगन में यह माचिस रगड़ दे ।” मैं कुछ अटका पर उन्होंने धक्का देकर मेरे अलसाए उत्साह को जगा दिया ।माचिस के रगड़ते ही तीलियां खिर्र से जल उठी।
सरजू कक्का हकबकाकर जाग गए और पीड़ा से चिल्लाए-” दौड़ो रे! आग लग गई । इस हड़बड़ाहट से मैं भयभीत होकर बिना सोचे -समझे उनकी चारपाई के नीचे घुस गया ।जो जाग रहे थे वे ठठाकर हंस पड़े ।सरजू कक्का ने अपनी दिव्यदृष्टि से जान लिया था कि यह सारी करतूत हमारी की हुई है। क्रोध की पराकाष्ठा मैं उनके मुख से श्राप के रूप में गालियां झड़ने लगीं। मुझे अपनी तीन पीढ़ी के नाम याद थे। कक्का ने मेरी सात पीढ़ियोंयों के नाम पढ़- पढ़कर उन्हें श्राप से सराबोर कर दिया। पहले लोगों के नाम इतने बुरे होते थे ,कक्का के मुंह से सुनकर आज पता चला ।मुझे उन नामों से वितृष्णा सी हुई ।हगुआ, चिरकुआ भी कोई नाम होते है। कक्का एंड पार्टी पूरी रात सो न सकी। उनके मुख से आखिरी ध्येय वाक्य निकला -” फलाने का लड़का जिस बारात में जाएगा उसमें मैं कभी पैर न रखूंगा।” मैं खटिया के नीचे सिकुड़ा- सिमटा पिताजी का नाम जगजाहिर होते सुन रहा था।
अब टीका की तैयारी शुरू हो गई । ढोल- बाजे अपनी कर्कश आवाज में माहौल को उत्सवमय बना रहे थे। कक्का की गालियां उस शोर में विलीन होने लगी ।बेबस कक्का शांत पड़ गए।
तीन दिनों का ब्याह था ।दूसरे दिन भांवरें पड़ने के बाद जेवनार हुई ।सभी ने स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। ब्याह के अन्य कार्यक्रम दोपहर बाद शुरू होने थे । अभी समय था। इसीसे लोग सोकर या ताश खेलकर दोपहर गुजारने की सोचने लगे। सरजू कक्का रात भर के जगे थे। वे राजा मुचकुंद की तरह एकांत तलाश रहे थे, जहां कोई न पहुंच सके ।अगर उनकी नींद में कोई खलल डाले तो जलकर भस्म हो जाए । वे अज्ञात खपरैल की मडैया में दरी बिछाकर सो गए ।हंसी – ठिठोली के बीच कुछ बारातियों ने सराडोर लगाई । इस सराडोर से हमें पता चल गया था कि मुचुकुंद कौन सी गुफा में सो रहा है ।पहले स्वयं जाकर वहां का जायजा लिया ।कक्का और उनका ग्रुप सुप्तसमाधि में लीन था ।रतन जीजा ने मेरे हाथ में पानी का भरा जग पकड़ाकर कहा -” जा, उनके ऊपर उड़ेल आ।”
मैंने कहा-” जीजा रात भर के खिसियाने है, पकड़ लिया तो गत कर देंगे ।”
-“मैं तो हूं, तेरी काहे ——–फट रही है।” वे मुझे धकेलते हुए बोले-” कुछ नहीं होगा। अगर कुछ हुआ तो मैं बीच- बिचाव कर दूंगा।”
-” जीजा, ज्यादा हो जाएगा।”
-“बहुत डरता है तू , जा तो ,कुछ नहीं होने दूंगा ।” रतन जीजा ने मेरी पीठ थपथपाई-” जा, दौड़ लगाकर जा।”
जीजा मेरे हाथ में हथियार थमाकर एक तरफ हो गए। मैंने देखा कि वे चारों सो रहे हैं ।दूर से पानी फेंककर पानी की बर्बादी के ख्याल से पास पहुंचा और पूरा डिब्बा उन्हीं पर उड़ेलकर वापस दौड़ लगा दी। पता नहीं किवाडे़ से टकराया या कक्का ने लात बिंधा दी, मैं पटा पछाड़ जमीन पर गिरा ।मेरे गिरते ही उन चारों ने मुझे घिटला सा दबोच लिया ।सरजू कक्का मुझ पर पन्हैया लेकर टूट पड़े । पन्हैयों की गिनती करना मूर्खता होगी। ऐसा लग रहा था कि अब ये लोग प्रान लेकर ही छोड़ेंगे। पन्हैयों का शास्त्रीय संगीत दरवाजे के बाहर तक गूंज रहा था।
रतन जीजा वचन के पक्के निकले। वे मुझे छुड़ाने के लिए वहां हाजिर हो गए। उनका प्रयास सफल तो हुआ पर मेरे हिस्से की पन्हैया रतन जीजा पर बरसने लगी। कक्का के मुंह से गालियों के साथ झाग निकल रहे थे -“तोरे दमाद की ऐसी -तैसी करूं, पैर पूजे मूड नहीं पूजा। ”
कक्का ने जब मूड़ पूजा की रस्म पूरी कर ली तो वे मेरी तरफ पुनः झपटे लेकिन तब तक मैं उनकी पकड़ से दूर चला गया था। मुझे आज भी याद है कि जब मैं मडैया से बाहर निकला तो मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैं कई लोगों से उभड़ता हुआ खेतों की ओर भागा था। एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने नवजात अतीत का स्मरण करके लज्जित होता रहा । काश !यह गलत रास्ता न चुना होता तो पन्हैयों की नौबत न आती।
जीवन की आपाधापी में बहुत सी घटनाएं भूल चुका हूं पर यह घटना दिमाग के कोने में स्थाई रूप से डेरा डालकर बैठ गई है । मौका -बेमौका अपने सारे अनुभाव और विभावों के साथ मेरे सामने उपस्थित हो जाती है। मैं इसे भूलना चाहता हूं पर भूल नहीं पाता हूं ।पन्हैया भूलने वाली चीज भी तो नहीं है।
लखनलाल पाल
अजनारी रोड नया रामनगर उरई
जिला जालौन उत्तर प्रदेश
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