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मौन के मनके लघुकथा -अनीता सैनी

साल अस्सी का ही रहा होगा। पिरामल, पोद्दार का बोलबाला चहुँ ओर था पर तुम्हें इन सभी से क्या मतलब था? तुम दो जोड़ी बैल से जीवन हाँकते रहे और मैं तुम्हारे पीछे-पीछे खुडों में साँसें खपाती रही। बेटी के बाप का  संघर्ष सहज ही पीछा नहीं छोड़ता। मेरे बार-बार समझाने पर भी तुम एक पहर भी घर में सुख से न टिकते और आज देखो! मेरी चारपाई के सिरहाने बैठकर घटित घटनाओं की शेखियाँ बघार रहे हो। तुम्हें तो ठीक से शेखी बघारना भी नहीं आता! चार नहीं!! उस रात छः चोर घुसे थे घर में, तुमने गुड़ ऑबरी में नहीं कुठले में रखा था। महीने भर तक यही शब्द चबाते रहे कि इस बार बेटा होने पर पूरे गाँव का मुँह गुड से मीठा करवाऊँगा और हाँ! मैं यों ही नहीं खाली हाथ भिड़ गई थी चोरों से, चोसँगी थी मेरे हाथ में, उसी से हाथ-पैर तोड़े थे उनके। मेरे किए कृत्य को हाँकते हुए पिघलता तुम्हारा पौरुष मेरे हृदय में प्रेम के अँखुओं को पोषित करता रहा। पर इससे भी तुम्हें क्या? तुम तो अब भी मिट्टी से ही मोल-भाव करते रहे। तुम्हारे तिलमिलाते हाथ मेरे टूटे कंधों को छूने में असमर्थ रहे। अहं में छिपी तुम्हारी प्रीत धीरे-धीरे मेरे घावों की तरह रिस रही थी। मेरी धंसी आँखों में उभरते सपने जिन्हें मेरी उखड़ी साँसें घोटती रहीं, मेरे अबोले निर्णयों की तरह जो मेरी आत्मा में ही धड़कते रहे उस एक शब्द की तरह जो मेरी माँ ने मेरे कान में कहा था कि तुम एक लड़की हो याद रखना। मेरे पेट पर लेटी पाँच महीने की मुनिया यह सब जी रही थी, मैंने नहीं कहा उससे कि वह एक लड़की है। तुम्हें याद है न, तुम भी तो हर साँझ गुड़ मेरे सिहराने रख देते थे।

अनीता सैनी
जयपुर, राजस्थान

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