पत्र साहित्य
गुजरे बीसियों साल से मेरे नाम किसी अपने-विराने की कोई चिट्ठी नहीं आई। हाँ, कुछ पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के बण्डल जरूर मिलते रहते हैं। माना कि अब मैंसेजर, व्हाट्सएप्स आदि की आधुनिक तकनीकी सहूलियतें उपलब्ध हैं, जिनसे एक ही सेकंड में संदेश इधर से उधर तैर जाते हैं। अँगुलियाँ धरते ही सात समंदर पार कर जाते हैं। मगर इन माध्यमों से उन चिट्ठियों की खुशबू नहीं आ सकती, जो किसीने बच-बचाकर- छुप-छुपाकर लिखीं थीं, हमारे लिए – तुम्हारे लिए। इन चिट्ठियों में कभी अम्मा का वात्सल्य सागर हिलोरें लेता था, तो कभी पिता का अनंत आकाश-सा संरक्षण मार्गदर्शन करता था और कभी प्रेमिकाओं के प्रेमिल पत्रों का प्यार मन को पावन बनाए रखता था।
गुरुओं की चिट्ठियों से उद्भूत ज्ञानगंगा का विवेकी जल त्रितापों की अग्नि शांत करते हुए मानवीय संबंधों को आत्मीयता से जोड़े रखने में मददगार साबित होता था। चिट्ठियाँ संधियों का प्रतीक थीं। फिर चाहे वह दो दिलों की संधि हो या फिर युद्ध की।
इतिहास गवाह है चिट्ठियों ने अनेक महाख्यान और महाकाव्य लिखवाए। युद्ध की रक्तपिपासु भूमि में संधियों के आनंदगंधी सुमन खिलाए हैं। मानवता की फसलें उगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है।
हम केवल तीन-चार दशक पीछे की ओर लौटकर देखें, तो हमें शहर, गाँव, गली, डाकघर, डाकिए और चिट्ठियों का अद्भुत संसार देखने को मिलता है। जहाँ कभी पैदल चलकर, तो कभी साईकिल से द्वार-द्वार चिट्ठियाँ बाँटने वाला डाकिया हमारी यादों में मुसकुरा उठेगा और पहली वह प्रेमपाती भी सिराओं में सिहरने लगेगी जो किसी अपने प्रिय ने बड़ी मुद्दत के बाद लिख पाई थी। वह चिट्ठी आज भी दिल के एल्बम में पहले सफे पर महफूज है बेशकीमती बसीयतनामे की तरह। वे चिट्ठियाँ और पत्र बहुत मायने रखते हैं, जिन्हें हमारे चाहने वालों ने दिल की गहराइयों से लिखा, आँसुओं की स्याही से लिखा और कभी-कभी तो … से भी लिखा।
अब आप ही बताइए! सोशलमीडिया के प्लेटफार्मों से प्राप्त इन संदेशों को हम चिट्ठियाँ कैसे मान लें …?
मैं उस जमाने की बात नहीं कर रहा हूँ, जब संदेशौ देवकी सें कहियो जाय तथा मोकौं लिखौ है का जैसी सात्विक पत्र लेखन परंपराएँ विद्यमान थीं। संदेश – वाहकों, सैनिकों, हरकारों, गुप्तचरों, कबूतरों, दासियों (सखियों) आदि के माध्यमों से चिट्ठियों, संदेशों आदि का आदान-प्रदान होता था। मैं तो बामुश्किल पचास साल पहले के जमाने से आपको जोड़ रहा हूँ, जब इन चिट्ठियों के अपने बहुत बड़े मायने हुआ करते थे। गली में डाकिए को देखकर बाँछें खिल जातीं थीं। तो हाथ में चिट्ठी आते ही किसी का चेहरा शर्म से लाल हो जाता था। गाँवों में उन दिनों लड़़कियाँ और नवोढ़ा वधुएँ प्रायः अनपढ़ ही हुआ करतीं थीं, जो अपने प्रवासी पतियों तथा प्रेमियों को चिट्ठियाँ लिखवाने तथा पढ़वाने का कार्य अपने विश्वासपात्र देवरों या सहेलियों से चिरौरी करके करा लेतीं थीं। तब की ये चिट्ठियाँ राजीखुशी के संदेशों से लेकर, दिलकही, इश्क-मुहब्बत आदि को भी इजहार करने का बेहतरीन जरिया थीं। चिट्ठियों की सौगातें आपसी सद्भाव को सुदृढ़ बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं थीं। कलम से लिखे गए इन पत्रों में प्यार की संस्कृतियाँ साँसें लेती थी। सौंदर्यबोधी कल्पनाएँ आकार लेतीं थीं।
हम सभी को पता है साहित्य, संस्कृति, कला आदि क्षेत्रों के अलग-अलग तरह के पत्रों को बड़े खूबसूरत नाम भी मिले। इन प्रेम-पत्रों के अनेक संकलन प्रकाशित हुए। साहित्यकारों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों, राजनीतिज्ञों आदि के पत्रों से लेकर दुनियाभर के नामचीन लोगों के व्यक्तिगत पत्र सरेआम भी हुए। उन साहित्यकारों के पत्रों के भी संग्रह छापे गए। अनेकानेक महत्वपूर्ण पत्रों को संग्रहालयों में संरक्षित भी किया गया।
किंतु अब इंटरनेट और सोशलमीडिया का जमाना है। अब तो कुछ ही सेकंड में सूचनाओं का आदान-प्रदान हो जाता है। मैसेज बाक्स में सूचनाओं की भरमार है। मस्तिष्क और बुद्धिचातुर्य से आच्छादित सूचना संचार क्रांति की बजह से हृदयों से उद्भूत हस्तलिखित पत्र-लेखन की परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है। पुराने जमाने में डाक से पत्र भले ही देर से मिलते थे, मगर उन पत्रों का असर लंबे समय तक बना रहता था। कभी-कभी तो कुछ मामलों में तमामउम्र।
डाक से चिट्ठियों का आना-जाना अब गुजरे जमाने की बातें हो चुकीं हैं। लगता है, निजी पत्र-लेखन के दिन लद गए हैं।
मुझे खूब याद है, इमरजेंसी के जमाने याने 1975 से ही मैंने छुटपुट पत्र लिखना शुरु कर दिया था। सन 1980 के आते -आते मैं हिन्द पाकेट बुक्स, नई दिल्ली का नियमित ग्राहक बन गया था। हिन्द पाकेट बुक्स के सूची-पत्र से अपनी पसंदीदा लेखकों में शामिल धर्मवीर भारती, नरेन्द्र कोहली, गौरापंत शिवानी, अमृता प्रीतम, अमृतलाल नागर, शिवानी, विद्यानिवास मिश्र, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और हरिवंशराय बच्चन जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों की पुस्तकें मँगाकर पढ़ता था। घर में अच्छा-खासा पुस्तकाल बन गया था। अस्सी का दशक आते-आते मुझे प्रसिद्ध साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, विद्वानों आदि को पत्र लिखने का चस्का लग गया। हर माह लगभग एक-डेढ़ दर्जन पोस्टकार्डों पर पत्र लिखता। गोपनीयता बनी रहे इसलिए कभी-कभी लिफाफा व अंतर्देशीय पत्रों का भी प्रयोग करता था। वे मेरे तरुणाई के दिन थे, सो चिट्ठियों से मनकही भी होती रहती थी। एक अम्लान सौंदर्यबोध दिलोदिमाग में छाया रहता था। परिपक्वता आते ही पत्र-लेखन का यह सिलसिला गंभीरता ग्रहण करता हुआ सन 2005 तक नियमित रूप से चलता रहा। इस दौरान भारत में चेस्कोवालिया के हिंदीसेवी राजदूत ओदेलेन स्मेकल,भारतीय राजनीति के श्लाका पुरुष और सुकवि अटलबिहारी बाजपेयी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक सुदर्शनजी, विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल, हिन्दीसेवी फादर कामिल बुल्के, हिन्दुस्तानी भाषा एकेडेमी प्रयागराज के निदेशक डॉ० जगदीश गुप्त, बुंदेली पुरोधा डॉ० अंबाप्रसाद श्रीवास्तव, पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अमृता प्रीतम, जनसत्ता के संपादक डॉ० प्रभाष जोशी, अमर उजाला के समूह संपादक डॉ० वीरेन डंगवाल, लोककवि कैलाश गौतम, कादम्बिनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी, रामेश्वर शुक्ल अंचल, डॉ० मोहन अवस्थी, डॉ० नरेन्द्र कोहली सहित देश के अन्यान्य महान साहित्य सेवियों को सादर पत्र लिखता रहा। इनमें से अधिकांश साहित्य मनीषियों ने मेरे पत्रों के कृपापूर्वक देरसबेर जवाब भी दिये। ललित कलाओं के संवाहकों, संस्कृति, साहित्य, संगीत एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े सांस्कृतिक क्षेत्र के विद्वानों के प्रेरणादायक पत्र मेरी निजी थाती बनकर मुझे आज भी समृद्धिशाली बनाए हुए हैं।
उन दिनों सत्तर अस्सी के दशक में सप्ताह में कम से कम दो बार डाकिया मेरे घर पर चिट्ठियाँ देने आता था। जब तक (1980) तक गाँव में रहा, तब तक श्री मुन्नीलाल डाकिया तथा उनके सेवानिवृत्त होने के बाद गाँव के डाकिया श्री शिवदत्त दुबे नियमित रूप से मेरी चिट्ठियाँ देने घर पर आते थे। उनकी अनुपस्थिति में कभी-कभी श्री डालसिंह परिहार भी बड़ी ईमानदारी से चिट्ठियाँ बाँटते थे।
उस जमाने में हमारे सुरीलों के गाँव क्योलारी के डाकखाना के पोस्टमास्टर गाँव के ही जमींदार श्री नाथूराम शर्मा हुआ करते थे। गाँव क्या,असपेर भर में वे बहुत पढ़े लिखे लोगों में शुमार थे। उन्होंने अपने घर के “बैठका” में पोस्ट आफिस घोल रखा था। कुछ समय बाद श्री नाथूराम शर्मा के यहाँ से डाकखाना स्थानांतरित होकर गाँव में ही श्री राधेश्याम उपाध्याय के यहाँ आ गया और मैं भी गाँव छोड़कर शहर आ गया।
मगर चिट्ठियाँ लिखने का क्रम बदस्तूर जारी रहा।
उन दिनों मेरे संपर्क में जितने भी डाकिए आए, उन सभी के साथ मेरे बड़े मधुर संबंध रहे। उन्हें हमेशा खुश रखता था। इसका लाभ भी मुझे खूब मिला। डाकिए मेरी चिट्ठियाँ मुझे चिंता करके देते थे। इस तरह लगभग तीस सालों में मैंने सैकड़ों पत्र लिखे होंगे। मेरे द्वारा भेजे गए पत्रों के जबाव में अनेक पत्र भी मेरे नाम आए। जवाब में मिले इन पत्रों में अनेक पत्र कीमती हैं तो कुछ बेशकीमती हैं।
विविधताओं से भरे इन आह्लादिक पत्रों ने मेरे दिलोदिमाग को नयी सोच व रूमानियत से समृद्ध करने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इन पत्रों में भारतीय संस्कृति, साहित्य व कला आदि के पुरोधाओं के चिंतन की जो झलक मिलती है, वह वर्षों से बंद पड़े किसी अँधेरे कमरे में बड़े रोशनदान की मानिंद है, जहाँ से आनंदगंधी रोशनी के झरने झर-झर झरते हुए मेरा मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं।
अब चिट्ठियाँ लिखना बीते जमाने की बातें हो चुकीं हैं। हिन्दी गद्य साहित्य के पत्र-लेखन की यह विधा दम तोड़ती नजर आ रही है। इस विधा को कैसे पुनर्जीवित किया जाए ? क्या पत्र साहित्य को हिन्दी साहित्य से विस्मृत किया जा सकता है ? ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं, जो एक गंभीर-विमर्श की माँग करते हैं।
आप क्या कहते है…?
© डॉ० रामशंकर भारती
निदेशक, बुंदेलखंड सांस्कृतिक एकेडमी
सुरीलों का गाँव क्योलारी (कैलाशनगर)
जनपद- जालौन-285123 (उत्तर प्रदेश)
चलवाणी- 9696520940
ईमेल -ramshankarbharti2@gmail.com