फटे जूते-पूजा गुप्‍ता

फटे जूते-पूजा गुप्‍ता

मुझे याद है उसे समय मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पिताजी के पास आय का कोई साधन नहीं था। वह अक्सर ठेला में भजिया पकौड़ी की दुकान खोल रखे थे। जिसमें दो वक्त की रोटी आना मुश्किल होता था। जिसकी वजह से माँ पिताजी के बीच अलगाव की स्थिति आ जाती थी। न जाने कब माता-पिता अलग हो गए। लेकिन मेरी मां ने संघर्ष करके मेरी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाना शुरू कर दी थी, इसलिए मुझे पैसे का महत्व मालूम था। बात उन दिनों की है जब मेरे पास एक जोड़ी जूता था जो ज्यादा इस्तेमाल करने की वजह से जगह-जगह से फट गया था। आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण मैंने कभी नए जूतों की मांग नहीं की। अक्सर मैं अपने जूतों को पालिश मार कर पहन लिया करती थी ताकि वो नये दिखने लगे।जब बरसात आती है तो मुझे स्कूल की वो बात अक्सर याद आती है।

मैं जब भी स्कूल जाती थी तो अपने संगठन में सबसे लंबी मैं ही थी, इसलिए सहेलियों के साथ सड़कों में कदम मिलाकर नहीं चलती थी उनसे हटकर चलती थी। मेरे लिए बरसात में अक्सर पैदल चलना सबसे बड़ी मुसीबत था, क्योंकि मेरे जूते फटे हुए होते थे। जिसके कारण बरसात का पानी उसमें भर जाता था। जिसकी वजह से बड़ी परेशानी झेलनी पड़ती थी मुझे रास्तों में और उससे ज्यादा मुझे रोना आ जाता था कि दूसरे दिन जूते पहन कर स्कूल कैसे जाऊँगी? क्योंकि दो जोड़ी जूते नहीं थे मेरे पास और मैं दूसरे के जूते पहन नहीं सकती थी, मेरे पैर बड़े होने की वजह से साइज की दिक्कत आती थी। 

मैं अक्सर घर जाकर उन्हीं जूतों को पहले साफ पानी से धोती थी। फिर जितने अखबार होते थे उन्हें उसके अंदर भर देती थी, ताकि जूते जल्दी सूख जाए और मैं उसे दूसरे दिन फिर पहन पाऊँ।मुझे जूतों ने ये जरूर सिखाया था समस्या का हल निकलता जरूर है बस दिमाग लगाने की जरूरत है। स्कूल में जूतों को लेकर टीचर अक्सर शिकायत करती थी। दूसरे जूते खरीदने पर जोर देती थी। पर उन्हें कैसे बताती मैं कि इतना आसान नहीं था मेरे लिए नए जूते खरीदना। मेरे ग्रुप मे पांच सहेलियाँ थी वो लोग अक्सर हमारे लिए सोचती थी। उनमे से एक क्लास की मॉनीटर थी। उसने मेरे लिए सालाना मिलने वाली स्कूल सुविधाओं में मेरे लिए नए जूते की मांग की थी। जब नए जूते मेरे हाथ आए तो थोड़ा रोना भी आया, लेकिन मैं अपनी उस सहेली भावुक हो कर को गले लगा ली। उसने जो मेरे लिए की थी उस के लिए जान हाजिर थी।अब तो सब सहेलियाँ बिछड़ गई वो भी नहीं मिली आज तक। लेकिन उसका किया ये एक काम मुझे याद आता है तो उसे दिल से याद करती हूं। लेकिन एक बात जरूर है संघर्षमय जीवन में उन फटे जूतों से समस्या के समाधान का महत्व मुझे समझ में आ गया।

पूजा गुप्ता

मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)

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