“घर की मुर्गी दाल बराबर…” सौम्या बड़बड़ाते हुए काम निपटाती जा रही थी। ऐसे में कभी कुछ गिरता, कभी कुछ । विवेक जो कान में ब्लू-टुथ लगाकर आराम से मोबाइल देख रहा था। उसका ध्यान तब इस तरफ गया, जब उसके पास धम्म से कुछ गिरने की आवाज आयी, वह इसलिए क्योंकि वहाँ पानी का बोतल रखने के लिए किताब खिसका कर रखा गया। विवेक सौम्या के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा, आखिर क्या माजरा है ? कुछ पता तो चले। लेकिन उसे कुछ समझ नहीं आया। रात का खाना वगैरह हो चुका था। सौम्या मूँह फुलाए हुए आकर बिस्तर पर लेट गई।
अब विवेक ने पूछा “क्या बात है ? तुम नाराज हो ?”
“क्या हुआ ?””……….”
“मुझसे कोई गलती हुई है क्या ? बताओ तो सही ।”
“ज्यादा भोले मत बनो । समझे…”
“हें! ….. “
“मैं सब समझती हूँ।””……….”
“देखो जी ये नौटंकी मैं खूब समझती हूँ।”
“मैंने क्या किया है ?”
“आज मेरा बर्थडे पर गिफ्ट तो दूर, विश भी नहीं किया तुमने ।”
“ओ शिट… ये कैसे भूल गया मैं । शौरी शौरी।
हैप्पी बर्थडे डियर।”
“हूंह…लोग क्या-क्या नहीं करते हैं। सरप्राइज गिफ्ट देते हैं। और एक हमारे महाशय हैं जो…”
“अरे हमें बताया तो होता ।”
“क्या सरप्राइज देने को ?”
चाय कच्ची है
“ये लो चाय।” रमा हमेशा की तरह आज भी कप टेबल पर रखकर खुद चाय पीने लगी। उसे मालूम था थोड़ी देर में प्रतिक्रिया आने वाली है। जैसे, चीनी कम है, बहुत मीठी है, बहुत कड़क है, दूध ही दूध है वगैरह-वगैरह। मतलब नुक्स तो निकालना ही निकालना है।लेकिन आज कुछ देर तक जब कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो उसने पूछ लिया “चाय कैसी है ?”
उत्तर में दो टूक “कच्ची है” और होठों पर शरारत भरी मुस्कुराहट थी। रमा की बरबस हंसी छूट गई। उसने हंसते हुए कहा “जब बाल पक (सफेद) जाते हैं तो धीरे-धीरे स्वाद और शब्द भी कच्चे होने लगते हैं।”
पूनम झा ‘प्रथमा’
जयपुर, राजस्थान