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रंगों का त्योहार होली आपसी सौहार्द का प्रतीक- डॉ शीला शर्मा

होली: खुशी, उत्साह और आपसी सौहार्द का प्रतीक –

रंगों का त्योहार होली खुशी, उत्साह और आपसी सौहार्द का प्रतीक है। यह भारत के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय त्योहारों में से एक है, जिसे न केवल भारत में बल्कि नेपाल सहित दुनिया भर के 50 से अधिक देशों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। होली सिर्फ हिंदू संस्कृति तक सीमित नहीं, बल्कि यह उन सभी के लिए एक आनंदमयी अवसर है जो जीवन में सकारात्मकता और उत्साह के रंग भरना चाहते हैं।यह त्योहार मुख्य रूप से दो दिनों तक मनाया जाता है।

पहले दिन होलिका दहन किया जाता है, जिसे छोटी होली भी कहा जाता है। यह बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। अगले दिन रंगों का उत्सव, जिसे धुलेंडी कहते हैं, बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे को रंग लगाते हैं, गुझिया और ठंडाई का आनंद लेते हैं, तथा प्रेम और उल्लास से भरकर खुशियों का आदान-प्रदान करते हैं। समय के साथ त्योहार मनाने के तरीके बदल गए हैं, फिर भी कई स्थानों पर इसे पारंपरिक उत्साह के साथ मनाया जाता है।

क्‍यों मनाते हैं होली-

पौराणिक कथा के अनुसार, असुर राजा हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को यह वरदान था कि आग उसे नहीं जला सकती। उसने अपने भतीजे प्रह्लाद, जो भगवान विष्णु का भक्त था, को जलाने की योजना बनाई। लेकिन अग्नि में बैठने पर होलिका स्वयं जल गई, जबकि प्रह्लाद सुरक्षित बच गया। तभी से होलिका दहन की परंपरा चली आ रही है। अगले दिन लोग रंग-गुलाल खेलकर, मिठाइयां बांटकर और संगीत-नृत्य के साथ इस पर्व को हर्षोल्लास से मनाते हैं।

संस्‍कृति से जुड़ा है होली का त्‍यौहार-

होली का त्‍यौहार फागुन में होता है। इसी दिन से नया विक्रम संवत शुरू होता है। गेहूँ, दलहन की फसल पक चुकी होती है। किसान का अनाज उसके घर आ चुका है होता है, जिसकी खुशी में वह एक दूसरे पर रंग गुलाल फेंक कर नये पकवान बना कर, नये कपड़े पहन कर मानते हैं।

होली को मनाने के पीछे कई पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताएँ

होलिका दहन की परंपरा भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा से जुड़ी है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देती है। वहीं, भगवान श्रीकृष्ण और राधा की प्रेम-लीला से प्रेरित होकर मथुरा और वृंदावन में इसे विशेष रूप से रंगों के उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

अलग- अलग तरीके अलग अलग परम्‍परा –

भारत के अलग-अलग राज्यों में होली मनाने के अलग-अलग तरीके हैं। ब्रज में लट्ठमार होली, बंगाल में डोल पूर्णिमा, और पंजाब में होला मोहल्ला इसका अनूठा रूप प्रस्तुत करते हैं। इस दिन लोग रंग-गुलाल उड़ाते हैं, ढोल-नगाड़ों पर नाचते-गाते हैं और पारंपरिक पकवान जैसे गुजिया, मालपुआ, दही-वड़ा, कचौड़ी और ठंडाई का आनंद लेते हैं। हालाँकि, आजकल रासायनिक रंगों और अनुशासनहीनता के कारण होली की पवित्रता प्रभावित हो रही है। हमें इसे पारंपरिक, सुरक्षित, हर्षोल्लासपूर्ण और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मनाना चाहिए।

कब मनाते हैं होली-

यह त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, इसलिए इसे फाल्गुनी पर्व भी कहा जाता है। होली बसंत ऋतु में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस समय प्रकृति रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती है, जो बसंत के आगमन का स्वागत करते हैं। होली मेल-मिलाप, प्रेम और उल्लास का प्रतीक है, जो सभी को एकजुट करता है।

कैसे मनाते हैं होली-

होली का उत्सव होलिका दहन से एक दिन पहले शुरू हो जाता है। लोग लकड़ियों और उपलों का ढेर इकट्ठा कर उसे जलाते हैं। अगली सुबह धुलंडी मनाई जाती है, जिसमें लोग गुलाल और रंगों से खेलते हैं। बच्चे, बुजुर्ग और युवा सभी मिठाइयां बांटते हैं, गाने गाते हैं और नाचते-गाते उत्सव मनाते हैं। होली भाईचारे और सद्भावना का त्योहार है, जिसमें अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सभी भेदभाव भूलकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं। यह त्यौहार पुरानी दुश्मनी को भुलाकर नए रिश्तों को मजबूत करने का संदेश देता है।

धुलेंडी (रंगों की होली):

अगले दिन लोग एक-दूसरे को गुलाल और रंगों से सराबोर कर देते हैं। बच्चे पिचकारी से रंग उड़ाते हैं, और सभी नाच-गाकर, मिठाइयां बांटकर इस दिन का आनंद लेते हैं।होली का त्योहार सामाजिक समरसता और भाईचारे को बढ़ावा देता है। इस दिन लोग गुलाल, पानी के रंग और फूलों से होली खेलते हैं। सभी गिले-शिकवे भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं और मिठाइयां बांटते हैं। कई जगहों पर सामूहिक होली उत्सव का आयोजन किया जाता है, जहां नृत्य, संगीत और पारंपरिक व्यंजन त्योहार की शोभा बढ़ाते हैं।

समृद्ध फसल और वसंत ऋतु का उत्सव-

होली का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह बसंत ऋतु और नई फसल के आगमन का प्रतीक है। इस समय गेहूं की फसल पकने लगती है और खेतों में हरियाली छा जाती है। इस खुशी को मनाने के लिए लोग होली के दिन विशेष व्यंजन, जैसे गुजिया, मालपुआ, ठंडाई और पकवान बनाते हैं।होली का उल्लेख प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। यह केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य समुदायों के लोग भी इसे पूरे जोश और उल्लास के साथ मनाते हैं। इतिहास में यह मुगल काल से लेकर ब्रज और वृंदावन की होली तक, प्रेम और आनंद का प्रतीक बना रहा है।

भाई चारे का प्रतिक होली-

होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि प्रेम, उल्लास और भाईचारे का प्रतीक है। हमें इसे पर्यावरण के अनुकूल और सौहार्दपूर्ण तरीके से मनाना चाहिए, ताकि इसकी पवित्रता बनी रहे। इस पर्व का असली उद्देश्य है नफरत को मिटाना और प्यार के रंग बिखेरना। आइए, हम सब मिलकर इस रंगों के उत्सव को प्रेम, खुशी और सद्भाव के साथ मनाएँ।रंगों की बौछार, गुलाल की खुशबू, ढोल-नगाड़ों की थाप और गले मिलते अपनों की हंसी—यही तो है होली! यह सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि रंगों का जश्न, उल्लास की बरसात और प्रेम की बयार है।

प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने इस रंगीन उल्लास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है –
“काली-काली कोयल बोली, होली, होली, होली,
फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की पीली-पीली चोली।” होली सिर्फ एक दिन का त्योहार नहीं, बल्कि जीवन में रंगों की अहमियत का एहसास कराता एक अनमोल अवसर है।

आधुनिक समय में होली का बदलता स्वरूप –

आजकल होली के पारंपरिक स्वरूप में कई बदलाव देखने को मिलते हैं। लोग रासायनिक रंगों का उपयोग करने लगे हैं, जो त्वचा और पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं। कुछ लोग शराब, भांग आदि का सेवन कर अनुशासनहीनता फैलाते हैं, जिससे त्योहार की पवित्रता प्रभावित होती है। हमें इन बुराइयों से बचते हुए होली को पारंपरिक और सभ्य तरीके से मनाना चाहिए।

होली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उमंग, उल्लास और भाईचारे का प्रतीक है। हमें इसे प्रेमपूर्वक और सादगी से मनाना चाहिए, जिससे इसकी पवित्रता और सामाजिक महत्व बना रहे। यह त्योहार समाज में प्रेम और सौहार्द को बढ़ावा देता है और सभी को आपसी भेदभाव भूलने की प्रेरणा देता है!

डॉ शीला शर्मा, बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़
95895 91992

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