डाॅ आशा की कहानी तमसो मा ज्योतिर्गमय

कहानी संख्‍या 51 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024

डगमगाते हुए क़दमों से शिथिल चाल चलता हुआ राघव जैसे हर पल ग्लानि मिश्रित हताशा के किसी दलदल में धंसता चला जा रहा था। आज दीवाली के दिन पूरा शहर रोशनी से जगमगाया हुआ था पर निराशा और अवसाद के अंधेरे ने उसे चारों ओर से इस तरह घेर लिया था जिसमें से उसे सिवाय मौत की धुंध के और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। अपराध बोध के विकराल अजगर की जकड़न में उसका सारा सत् ही निचुड़ गया था।
“…यह क्या कर डाला मैने … ” यह अहसास एक ज़हर भरी फुफकार के समान उसकी आत्मा को जलाये डाल रहा था कि उसने अपने परिवार को खुद अपने हाथों से सर्वनाश की भट्टी में झोंक डाला है उस परिवार को जिसमें बीमारी से जर्जर उसकी कृशकाय मां की उम्मीदों, अपाहिज लाचार पिता के विश्वास और मासूम बहन की दयनीय निगाहों का केन्द्र केवल वही था, सिर्फ वही एक।उनकी जर्जर जीवन नौका का खेवनहार और उसी ने खुद उस नौका के पेंदे में छेद कर उसे अतल सागर के भंवर में चक्कर खाने के लिये छोड़ दिया। उस जैसे कपूत को कोई हक नहीं अब जीने का।कौन सा मुंह लेकर जाये अब वह अपने उस घर में जहां पलस्तर उखड़ी दरकी हुई दीवार पर बने ठाकुर जी के आले में मां यह उम्मीद लिये रोज़ दीया जलाती थी कि उनके राघव की नौकरी लगते ही घर के दिन फिर जायेंगे,सारे दुख-अभाव दूर हो जायेंगे। तमाम उम्र एक फैक्ट्री में छोटी-सी नौकरी करते हुये पिता की आंखों ने राघव को लेकर बड़े-बड़े सपने पाल लिये थे तभी तो राघव के दसवीं पास कर लेने पर जब उसकी मां ने कहा था कि फैक्ट्री के मालिकों से सिफारिश करके राघव को भी फैक्ट्री में कोई काम दिलवा दो, तो वे मां पर बरस पड़े थे “….मेरा राघव मेरी तरह फैक्ट्री में मजदूरी करेगा? कभी नहीं ……. वह तो किसी दफ्तर में अफसर बन कर बैठेगा। मैं उसे खूब पढ़ाऊंगा उतना उसे पढ़ाऊंगा तुम देखना, अभी मेरे इन हाथों में बहुत दम है….।

जितना वह पढ़ेगा उतना उसे पढ़ाऊंगा मैं….सचमुच उन्होंने अपनी हैसियत से ज्यादा अच्छी परवरिश दी राघव को। खुद सूखी रोटी खाई, कभी तीज-त्यौहार भी अच्छे कपड़े नहीं पहने पर राघव की फीस और किताब कापियों में कोई कमी नहीं आने दी। राघव के हर बार पास होकर नई कक्षा में आने पर उसके बाबूजी की आंखें खुशी और आशा की चमक से जगमगा उठतीं और उनमें अरसे से देखे जा रहे सपनें झिलमिला
उठते। साल दर साल बीतते गये और राघव ग्रेजुएट हो गया फिर नौकरी के प्रयास शुरू हुये साथ में पोस्ट ग्रेजुएशन भी कर ली। तब वक्त भी तो सर्दियों की धूप जैसा कितनी जल्दी सरकने लगा था जब राघव नौकरी के लिये अर्जियां देते देते झुंझला गया था। गुज़रते वक्त के साथ सरकारी नौकरी की उम्मीदें छोड़ कर वह प्राइवेट नौकरी के लिए जहां-तहां चक्कर काटने लगा था पर एक तो बिना किसी तकनीकी योग्यता के कहीं कोई पूछ नहीं थी, दूसरे जहां भी जाता, वहीं कान्वेंट स्कूलों में पढ़े-लिखे चिकने चेहरों की फर्राटेदार अंग्रेजी के सामने उसका सारा आत्मविश्वास बौना सिद्ध हो जाता और आहत स्वाभिमान लिये हुए उसे अपने प्रमाण-पत्रों के साथ बैरंग लौटना पड़ता। धीरे-धीरे बाबूजी की आंखों की चमक बुझने लगी थी।थकी बीमार मां के बड़बड़ाने पर भी अब वे उससे कुछ नहीं कहते थे। मां का बड़बड़ाना भी तो जायज था; सावित्री पूरे बाईस वर्ष की हो गई थी। बाबूजी की आंखों में बड़े-बड़े

ख्वाबों की जगह एक छोटी सी चुनौती ने ले ली थी कि किसी तरह इस वर्ष सावित्री का विवाह कर देना है। बहुत हाथ-पैर मारने पर उनके एक रिश्तेदार ने अपनी पहचान के एक परिवार में सावित्री का रिश्ता पक्का करवा दिया था। इसी साल देवउठनी एकादशी का मुहूर्त था। उन जैसा ही अत्यन्त साधारण परिवार था पर आखिर थे तो लड़के वाले ! उनके स्तर की जो भी छोटी-मोटी मांगें थीं वही बाबूजी के लिये किसी बहुत बडी ललकार से कम नहीं थीं। बारातियों का अच्छा स्वागत हो, दूल्हे के लिये सोने की जंजीर, अंगूठी और चांदी का नारियल तो होना ही चाहिये, बेटी को भी ठीक-ठाक गहने कपड़ों में विदा करें जैसी मांगों को पूरा करने की हैसियत जुटाने के लिए बाबूजी दिन रात खटने लगे थे। रात की पारी में भी काम कर करके सावित्री और उसके दूल्हे के लिये गहने-कपड़े तो किसी तरह बनवा लिये थे;अब बारातियों के स्वागत, खाने-पीने और दहेज़ के कुछ सामानों की व्यवस्था करनी बाकी थी।
राघव को लेकर जो सपने उन्होंने पाले थे,उनके टूटने का दर्द गरीबी की लाचारी, थकान और दिन-रात काम करने के कारण अधूरी नींद से बोझिल तन-मन…यह सारे ही कारण तो थे जिससे एक दिन फैक्ट्री में काम करते वक्त बाबूजी का हाथ बेध्यानी से एक मशीन में आ गया और वे सदा के लिये अपाहिज हो गये। मुआवजे में मिला पैसा तो बाबूजी के इलाज और अस्पताल के खर्च में ही काम आ गया था। जिस फैक्ट्री में राघव को काम दिलाने की बात पर कभी बाबूजी उसकी मां पर बिफर पड़े थे, आज उस फैक्ट्री का मालिक पैर पकड़ने पर भी राघव को नौकरी देने के लिए तैयार नहीं था। उसका तर्क था कि फैक्ट्री में जगह ही नहीं है……… बेरोजगारी का आलम यह है कि एक पद खाली होता है तो सैकड़ों आशार्थी आ जाते हैं। बाबूजी के पद पर तो अरसे से एक तकनीकी योग्यता प्राप्त ट्रेंड मैकेनिक काबिज हो गया था वह तो बाबूजी के अनुभव और बरसों पुरानी नौकरी के लिहाज में उन्हें नौकरी पर रखा हुआ था। फैक्ट्री के नियम भी कुछ ऐसे थे कि आश्रित की नौकरी मरने वाले के परिजनों को मिलती थी घायल या अपाहिज होने पर नहीं। कैसी घोर अमानुषिक विडम्बना थी कि राघव के पिता खुद को इस बात के लिये कोस रहे थे कि वे मशीन की चपेट में आकर मर क्यों नहीं गये? सिर्फ घायल क्यों हुए? मर जाते तो राघव को एक नौकरी तो मिल जाती दो वक्त की रोटी के लाले आ पड़े थे। घर की दीवारों में सीलन के साथ-साथ दुर्भाग्य की गंध भी जैसे स्थायी रूप से रच-बस गई थी। ऐसे हालातों में सावित्री की सगाई कहीं टूट न जाये यह आशंका मां और बाबूजी का तन-मन खोखला किये जा रही थी।

अपनी जिम्मेदारी और मां-बाप की आशाओं को पूरा न कर पाने के दर्द का राघव को शिद्दत से अहसास था पर लगातार मिल रही निराशा, असफलतायें और बेरोज़गारी उसे भटकाने लगी थी। भटकन और दिशाहीनता के इसी दौर में कुछ जुआरियों का संपर्क उसे घर की दुर्दशा को दूर करने के लिये जल्दी से पैसा बटोरने हेतु उकसाने लगा था। हालांकि बचपन से उसके भीतर जड़ें जमाये हुये मां-बाबूजी के संस्कार इसका निषेध करते थे पर गरीबी और अभावों की मार ने संस्कारों की आवाज़ को बहुत दुर्बल बना दिया था।

दीवाली के दिन घर में छाई मुर्दनी और मनहूसियत से भरी उदासी उसे ठेल कर फिर से जुये के अड्डे पर ले गई थी जहां अपनी आंखों से वह जुआरियों को दांव लगाते और मालामाल होते देखता रहा। विजेताओं ने उसे भी उकसाया अरे तू भी चमका ले अपनी किस्मत। आज के दिन हो सकता है लक्ष्मी तेरे ही द्वार पर आये पर अपना दरवाजा तो खोल, जरा दांव लगा…. राघव धर्मसंकट में पड़ गया था। धन का आकर्षण और उसे पाने का यह रास्ता उसे ललचा रहा था पर दांव पर किसे लगाये? राघव की मति पर दुर्भाग्य और उम्मीद की मरीचिका ने एक साथ आक्रमण कर दिया और छोटी बहन के विवाह के लिए रखे वह गहने राघव की दृष्टि में कौंध उठे जो मां बाबूजी ने पेट काट-काट कर जुटाये थे।
सोचने लगा “…… आज मां लक्ष्मी की कृपा से उसके घर का सारा दारिद्रय-क्लेश कट जायेगा। फिर मां का इलाज भी ठीक से होगा, बाबूजी की तीमारदारी भी बेहतर हो सकेगी और बहन का ब्याह भी खुशी-खुशी हो जायेगा। इस आशा में एक-एक कर वह सब गहनों को दांव पर लगाता चला गया था। गहने थे ही कितने? गरीब मां-बाप केवल बेटी के सुहाग से जुड़े दो-चार ज़रूरी जेवर और दामाद के लिए सौगात ही तो बनवा पाये थे वे भी आज जुये की वेदी पर बलि चढ़ गये थे। राघव के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी। जब वह जुये में एक धेला भी जीते बिना सब कुछ गवां बैठा था। अब उसे होश आया था कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी थी। उसकी करतूत का जब पहले से ही टूटे-हारे मां-बाबूजी को पता चलेगा तो उन पर क्या बीतेगी… इस स्थिति की कल्पना से ही राघव की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। अब तो वह घर वालों से आंख मिलाने के भी लायक नहीं रहा।
विवेकशून्यता की स्थिति में धसकते हृदय से चलता हुआ राघव शहर के कोलाहल से दूर एक ऐसे झुरमुट के पार आ गया था जहां का अन्धकारपूर्ण एकान्त उसकी मनोदशा से मिलकर एकाकार हो गया था। एक बहुत प्राचीन कुण्ड उस स्थान पर बना हुआ था जो आज भी पानी से लबालब था। आत्मग्लानि और अपराध-बोध से युक्त अवसाद ग्रस्त स्थिति में राघव को प्राण दे देने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। कुण्ड की सीढ़ियों पर बढ़ते हुये राघव के कांपते कदम बहुत पास में किसी की आहट सुनकर ठिठक गये और वह एक खम्भे की ओट हो गया। हाथों में दीयों का थाल लिये एक प्रौढ़ महिला थीं जिनका श्वेत आंचल दीपकों के प्रकाश से मिलकर अपूर्व उज्जवलता बिखेर रहा था। कुण्ड पर बनी मुंडेर के पास आकर प्रौढ़ा ने दीपकों की कतार सजा दी फिर हाथ जोड़कर अधरों ही अधरों में कुछ बुदबुदाने लगी शायद कोई प्रार्थना। जगमगाती लौ सीधे उनके मुख पर पड़ रही थी जिसके प्रकाश में उनके गालों पर ढुलकते जा रहे मोटे-मोटे आंसू राघव को स्पष्ट दीख पड़ रहे थे। कुछ क्षणों बाद सिर झुकाये हुए वे अवश सी भूमि पर बैठ गई और हिलक-हिलक कर रोने लगीं। उस दृश्य में राघव कुछ क्षण अपना सारा दर्द भूलकर असमंजस की स्थिति में खड़ा रह गया था कि ये महिला यहां इस तरह आकर क्यों रो रही है? सहसा उसके पैर से लुढ़ककर एक गोल पत्थर छपाक से कुण्ड में जा गिरा। प्रौढ़ा चौंक उठी “… कौन है?… वहां कौन .. है …?”कहते हुये खम्भे के पीछे खड़ा साया उन्हें दीख गया था। वे राघव की दिशा में दौड़ पड़ी। पल भर में वे उसके वहां होने का मकसद भांप गई थीं इसलिये कस कर उसकी बांह थामें वे लगभग खींचते हुये उसे मुंडेर से दूर ले आई थीं।

“….बेटा मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूंगी ,कुछ जानना भी नहीं चाहूंगी बस इतना कहूंगी कि जो कुछ तुम करने जा रहे थे उससे भयंकर पाप और कोई नहीं…”
“…. …जी.. मैं तो … मैं तो ….”
राघव की हकलाहट भरी आवाज ही उसके यहां आने का मकसद बयान कर रही थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि महिला को उसके यहां आने का उद्देश्य कैसे पता?
“…मैं भी मां हूं बेटा तुम्हारे जैसे एक बच्चे की। जो जिन्दगी की चकाचौंध से भरे चौराहों पर सही राह न पकड़ सका और भटक गया। बुरी संगत में फंसकर वह नशे का आदी हो गया था। यूं तो मां बाप के घर में किसी चीज की कमी न थी पर छुप कर अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए चोरी और कई गैरकानूनी काम भी करने लगा था। आखिर एक दिन पुलिस को उसकी भनक लग गई। अपनी पोल हम सबके सामने खुल जाने के डर से घबराया हुआ वह इसी कुण्ड में कूद कर अपने प्राण दे बैठा। तभी तो दीवाली के दिये यहां जलाने आई थी कि उसकी आत्मा को कुछ सुकून मिल सके,प्रकाश मिल सके।अपराध की काई पर फिसला मेरा बेटा क्या फिर से संभल न सकता था? जरूर संभल सकता था पर उसने तो कोशिश ही नहीं की और हार गया। हमें कोई मौका भी न दिया। यह भी न सोचा कि जिनका वह इकलौता सहारा है, उन पर क्या गुजरेगी……..”
प्रौढ़ महिला की आंखों से फिर आंसू ढुलकने लगे थे। वे फिर राघव से कहने लगीं ,”….. जवान बेटे को खोने के सदमें में उसके पिता भी हृदयघात से चल बसे। रह गई मैं पति-पुत्र को खो चुकी अकेली-दुखियारी। ऐसा न था कि अपनी जिन्दगी की निरर्थकता का सवाल मुझमें उठा न था,उठा था; पर उसका जवाब भी मुझे मिल गया। यहीं पास ही मैंने एक आश्रम बसाया है जहां मैंने जिन्दगी की सार्थकता खोज निकाली है…….. ….. चलो बेटा! तुम्हें वह सब दिखाना है …” जाने किस अदृश्य डोर से बंधा राघव उनके पीछे-पीछे चला जा रहा था। सचमुच एक चारदीवारी में पेड़-पौधों से घिरा कच्चे पक्के कुटीरनुमा कमरों वाला एक छोटा सा आश्रम ही तो था जो दीपकों के सात्विक प्रकाश में झिलमिला रहा था। कुटीरों के पीछे एक बड़ा सा दालान था जहां शायद सामूहिक रूप से दीपावली पूजन की तैयारी की जा रही थी। तैयारी में जुटे थे हाथ-पैरों से लाचार, अपाहिज, समाज के ठुकराये कुष्ठ रोगी। कोई रेंग कर तो कोई पंजों के बल चलता हुआ दीपक जला रहा था, कोई घिसटते हुये पूजन सामग्रियां ला रहा था। समाज की दृष्टि में अपने घृणित रोग के बावजूद उनके चेहरों पर एक आत्मविश्वास चमक रहा था। उन सबकी आंखों में प्रौढा के आते ही एक प्रकार का श्रृद्धा भाव उमड़ने लगा था “…. मांजीआ गई हैं !अब प्रार्थना की तैयारी जल्दी करो…” वे एक दूसरे को कह रहे थे।उनकी बातों से राघव जान गया कि उसको यहां लाने वाली वह ‘दुखिया मां’ ही इन सब कुष्ठ रोगियों की ‘मां जी’ हैं।
राघव को आश्रम दिखाते हुये मां जी बता रही थीं “…. बेटा ! इस आश्रम के हर कोने को इन कुष्ठ रोगियों ने अपने हाथों से संवारा है। ये भी दुर्भाग्य के मारे अपने परिवार-समाज से कटे खुद को फालतू सामान जैसा तुच्छ समझकर कीटों सा नारकीय जीवन जी रहे थे या उससे छुटकारे के प्रयास में थे पर जब रूग्ण तन की विरूपता पर इनकी आत्मा का आलोक उ‌द्भासित हुआ तो इनकी विचारधारा भी प्रकाशित हो उठी । इन्हें जीने का यह अंदाज आ गया कि जो कष्ट और संघर्ष परमात्मा ने हमारी भाग्यलिपि में लिख दिये हैं उनका डटकर सामना करना ही हमारा धर्म है। उनसे बच निकलने के लिये पलायन का मार्ग अपनाना और जिन्दगी से ही छुटकारा पाने का प्रयास करना तो उस परमपिता के आदेश की अवहेलना है”
राघव किसी मंत्र के पावन उच्चारण के समान मां जी के कथन सुनकर अभिभूत हो रहा था। इस समय वह ज्वार उतर चुके तट सा शांत, स्थिर और निश्चल खड़ा था।
बेटा। अब तो ये स्वयं कर्त्तव्यनिष्ठ जीवन जी रहे हैं और अपने जैसे दुर्भाग्य के मारों को जिलाने का प्रयास भी कर रहे हैं। ये आश्रम में छोटे-छोटे उद्योगों से अपनी जीविका कमाकर स्वावलम्बन का जीवन ही नहीं जीते बल्कि हाल ही में आई विनाशकारी समुद्री लहरों सुनामी की विभीषिका में अनाथ, बेसहारा और घायल हुये लोगों के लिए इन्होंने अपने हाथों से कते-बुने वस्त्र व स्वेटर भिजवाये हैं। इससे पहले गुजरात में आये भयावह भूकम्प से उजड़े लोगों के लिये भी इन्होंने कपडे, साबुन, औषधियां आदि भिजवाई थीं। इस आश्रम में कई-कई सप्ताह और महीनों तक नशामुक्ति शिविर भी लगाये जाते हैं जिनमें बरबादी के कगार पर पहुंच चुके नशे के आदी व्यक्तियों से पूर्ण सहयोग, प्रेम और आत्मबल द्वारा दवाओं-दुआओं व योग साधना के प्रयोग से नशा छुड़वाने की कोशिश की जाती है। अधिकांशतः इन कोशिशों में कामयाबी ही मिलती है और मुझे संतुष्टि भी कि मेरे जैसी किसी और मां की कोख उजड़ने से बच गई!
आंखों में भर आये आंसुओं को पलकों ही में समेटने का प्रयास करते हुये मां जी ने वात्सल्य से राघव के सिर पर हाथ रखा। उनकी वाणी से जैसे शरद पूर्णिमा की ज्योत्सना निःसृत हो रही थी जो राघव के दग्ध अन्तर्मन पर मानो शीतल लेप कर रही हो।
मंत्रमुग्ध सा वह सुन रहा था; “…. बेटा। इस जिन्दगी के युद्ध में जो घाव हमें मिल रहे हैं उनसे बिना घबराये कर्तव्यनिष्ठ सिपाहियों की तरह अंतिम क्षणों तक हमें लड़ते रहना है बल्कि हो सके तो इस युद्ध में हम जैसे या हमसे भी ज्यादा जो घायल हो चुके हैं उनकी हौसला अफजाई भी करनी है उनके चारों ओर घिर आये निराशा के अंधकार में स्नेह, प्रेम्, विश्वास और सहयोग के दीये जलाकर आशा का उजाला फैलाना है। अंधेरे में से प्रकाश को लाना है। मुझे देखो; मेरे मन में स्थित व्यथा के घनघोर अंधकार को इन दुःखी मगर पवित्र आत्माओं ने दूर कर दिया है। मेरे हृदय की रिक्तता को अपने स्नेह से पूर कर जीने का आधार दे दिया है!….”
“…मां जी प्रार्थना शुरू करें?’ एक आश्रमवासी के पूछने पर मां जी आगे बढ़ीं। “….. आओ राघव आज तुम भी हमारे साथ प्रार्थना करो; उजाले के लिये, शक्ति के लिये, क्षमा के लिये…. ” मां जी के सान्निध्य और आश्रम में आत्म सम्मान का पावन उल्लास लेकर जीने की नई शुरूआत करने वाले उन कुष्ठ रोगियों की कतार में करबद्ध होकर प्रार्थना करते हुये
राघव का हृदय इन क्षणों में अपने अतीत की समूची कलुषितता, दुर्भाग्यजनित आत्मग्लानि और अपराध बोध से उबरकर आत्मविश्वास की नई स्फूर्ति से भरता जा रहा था।
जीवन के कितने पाठ उसने आज पढ़ लिये थे जिनसे अपने सम्पूर्ण छात्र जीवन में वह अनभिज्ञ रह गया था। पति और पुत्र को खो चुकी एक नारी जब सार्थक जीवन जीते हुए दूसरों के जीवन की प्रेरणा बन सकती है। समाज से ठुकराये गये, अपनों ही की घृणा का प्रतिदान घृणा व प्रतिहिंसा से न देकर अपने स‌द्भावों और समाजोपयोगी सद्प्रयासों से दे रहे हैं तो राघव अपने परिवार व जीवन में आये दुर्भाग्य के तम को हटाकर रोशनी की किरण ले आने के लिये क्यों नहीं जूझ सकता? आज यह मां जी उसे न मिलती तो तो कितना घोर पाप करने जा रहा था वह। जिस परिवार से आंख मिलाने का साहस न होने से वह यह कायरतापूर्ण कदम उठाने जा रहा था उसे विषम परिस्थितियों के भंवर में किसके भरोसे छोड़ कर यूं अपने हिस्से के संघर्ष से भाग रहा था वह? नहीं नहीं। मां जी ठीक कहती हैं. कोई भी रात अन्तिम नहीं होती। उसके बीतने पर सवेरा आता ही है। उसे कहीं नौकरी नहीं मिली तो क्या हुआ?मेहनत-मज़दूरी के कितने ही रास्ते खुले हैं। वह भी लड़ेगा अपने दुर्भाग्य से! जो भूलें उससे हो गई हैं, उन्हें भी सुधारेगा और अपने अथक परिश्रम से अपने परिवार को व्यथा के समुद्र में से निकालने की पूरी कोशिश करेगा और फल… उसे वह ईश्वर पर छोड़ देगा।
राघव के अन्तःकरण पर से जैसे कोई भारी भरकम शिला हट गई थी, चेतना स‌द्भावों की ज्योति से आलोकित हो उठी थी और दृष्टि दृढ निश्चय की सौगन्ध खा रही थी। मां जी से आशीर्वाद लेकर राघव सधे कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा था। आश्रम की प्रार्थना के वे शब्द अब भी उसके अन्तर्मन में गूंजकर उसकी चेतना को उ‌द्भासित कर रहे थे……”असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतंगमय”

डॉ. आशा शर्मा ,जयपुर (राज) मो०- 9414446269

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