"अखंड गहमरी संपादकीय

मैं कविता थी, मुझे जोकर बना दिया

संपादकीय: कविता का हाल और हमारी ज़िम्मेदारी

संपादकीय: कविता का हाल और हमारी ज़िम्मेदारी

आजकल जैसे ही कोई घटना होती है, हमारे कवि और लेखक तुरंत सक्रिय हो जाते हैं, जैसे उनके भीतर छिपा कोई रिपोर्टर फुल स्पीड में ऑन ड्यूटी आ गया हो। संवेदना, शोध, भावना और मौलिक सोच को किनारे रखकर वह किसी घटना को समझते हैं कि “मसाला है, बस लिखो” वाला फार्मूला चल पड़ा है। कविता अब साधना नहीं रही, तत्काल प्रतिक्रिया का माध्यम बन गई है—मानो कविता नहीं, ट्वीट हो। हर नई घटना पर “ताज़ा काव्य पेश है” का दौर चल रहा है। अब स्थिति ये है कि कवियों के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ का मतलब है ब्रेकिंग टाइम फार कविता।

आजकल कविता लिखना बिल्कुल उस रेडीमेड चाय की तरह हो गया है जो एक मिनट में तैयार हो जाती है। जैसे चाय को न पकाया जाता है न खौलाया जाता है बस दूध, पत्‍ती, चीनी, पानी, डाले हो गई चाय। उसी तरह कविता का हाल हो गया है न भाव, न विचार, बस गरम पानी डालो और पी लो। कोई घटना घटी नहीं कि हमारे कवि मित्र पेन या मोबाइल लेकर मैदान में उतर जाते हैं। कुछ तो इतने तेज हैं कि घटना से पहले ही कविता तैयार रखते हैं—जैसे कवि नहीं, खुफिया एजेंसी के सदस्य हों। संवेदना अब पुरानी चीज हो गई है। भावनाओं की जगह अब ‘फॉरवर्डेड इमोशन्स’ आ गए हैं। और शोध? अरे भैया, कविता में शोध की बात करना अब ऐसा है जैसे कोई कहे कि पकोड़े तलने से पहले तेल की केमिस्ट्री समझो।

अब देखिए, मेरी एक पुरानी प्रेमिका ‘गजगमिनियां’ एक दिन मुझसे मिलने आ रही थी। मैंने दरवाजा खोला ही था कि अचानक कवियों की इतनी तीव्र और तेज़ कविता आँधी आई कि वो सीधे मेरे पड़ोसी शर्मा जी के घर जा गिरी। वहाँ पहुँचते ही कवियों की दूसरी खेप ‘मंचीय मिसाइल’ के रूप में सक्रिय हो गई और बेचैन गजगमिनियां जान बचाकर वापस भागी। बाद में पता चला, शर्मा जी भी कवि हैं और उन्होंने उसी वक्त उस पर एक ‘यादों का यज्ञ’ शीर्षक से कविता पढ़ दी थी। ये वो दौर है जहाँ शेर-ओ-शायरी अब प्रेमिका को नहीं, पड़ोसी को भेजी जाती है, और वो भी गलती से।

कोरोना काल में तो कवियों ने हद ही कर दी। महामारी के डर से लोग मास्क लगा रहे थे, लेकिन कवियों के काव्यबाणों से कोई नहीं बच पाया। कोरोना सोचने लगा होगा कि हम चीन में ही ठीक थे, भारत में तो हमारी प्रतिष्ठा का राम नाम सत्य कर दिया गया है। लोग जितना कोरोना से नहीं डरे, हमारे कवियों और पत्रकारों की सलाह से डर गये। टी0वी0 हो या सोशलमीडिया बस कोरोना ही कोराना। ज्ञान ही ज्ञान, मौत का डर। किसी ने उसे “प्रकृति का क्रोध” कहा, किसी ने “मौन संहारक”, किसी ने “प्रेम का अंत”, और एक भाई साहब ने तो कोरोना को “प्रेमिका की दूरी का प्रमाणपत्र” तक कह डाला। कविता के नाम पर जो चला, उसे पढ़कर वायरस भी वायरसियत छोड़ देने को मजबूर हो गया। WHO तक सोचने लगा कि भारत में वायरस से ज़्यादा वर्सेस वायरल हैं। कोरोना भी कहने लगा कि अच्‍छा भला मैं चीन और दुनिया में डर का डंका बजवाया था भारत में आकर तो अपना ही डंका बजावा दिया इन कवियों से

अब ताजा मामला लीजिए—पहलगाम की घटना। देश स्तब्ध है, शोक में डूबा है, लेकिन कवि समाज रचनात्मक ज्वार में है। पाकिस्तान में ऐसी हालत है कि मिसाइल से ज्यादा डर उन्हें माइक और मंच से लगने लगा है। सोशल मीडिया पर कविताएं ऐसे गिर रही हैं जैसे सीमा पार से ग्रेनेड। हर माइक से रॉकेट लॉन्च हो रहा है, और हर कविता में इतना बारूद है कि पाठक पढ़ते-पढ़ते खुद बम बन जाए। वहाँ के न्यूज़ चैनल्स अब यह नहीं पूछते कि बॉर्डर पर क्या हुआ, बल्कि पूछते हैं—“भारत से कौन सी नई कविता आई?” कवियों ने मंच को ऐसा मिसाइल प्लेटफॉर्म बना दिया है कि हर शेर के साथ एक बम फूटता है। कविताएं अब महबूबा को नहीं, दुश्मन को भेजी जाती हैं—“तेरे बिना भी जी लेंगे” टाइप लाइन अब राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का हिस्सा बन चुकी है।

कविता अब इतने भावों से लदी रहती है कि असली भाव शर्म से कोने में खड़े हो जाते हैं। एक जमाना था जब कवि अपनी रचना दस बार सोचकर सुनाते थे, अब तो लोग रील बनाकर कविता पढ़ते हैं और कैप्शन में लिखते हैं—“कविता से झकझोर देने वाली सच्चाई।” कविता क्या झकझोर रही है, अब तो बेचारे पाठक की रीढ़ हिल चुकी है। ट्रेंडिंग टॉपिक पर राइम जमाना, कविता की नई योग्यता बन चुकी है। कविता अब महसूस करने का नहीं, वायरल होने का जरिया बन चुकी है। जहां पहले कविता दिल से आती थी, अब वह ‘वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी’ से निकलती है।

अखंड गहमरी की पूर्व प्रेमिका गजगमिनियां कहती है कि जब से विश्‍व में वाटस्‍एप विश्‍वविद्यालय खुला है तब से प्रतिदिन गप्‍तालिस लाख बहकू हजार स्‍वंय घोषित सौ कवि-कवयित्री प्रतिदिन पढ़ाई पूरी कर के निकल रहे है खुद को अन्‍तराष्‍ट्रीय कवि, कवि सम्राट, आशू कवि, हास्‍य महारथी कवि और न जाने क्‍या-क्‍या ऐसे उपाधि देकर सोशलम‍ीडिया पर ऐसी-ऐसी कविता लिख रहे है कि बेचारी कविता भी अपने घर से बाहर निकलने में डर जा रही है। उसका चीर-हरण हो जा रहा है

कविता सिर्फ लेखन का नहीं, सोच का भी मंच है। जिस प्रकार तथाकथित स्‍वंय घोषित कवियों द्वारा 1 मिनट में एक रचना तैयार कर परोस दिया जा रहा है उससे हमारे उन कवियों की शाख पर भी बट्टा लगा है जिनकी आत्‍मा में कविता बसती है, जीती है। हमें कविता को फिर से सजीव, संवेदनशील और सार्थक बनाना होगा। कविता सिर्फ तुकबंदी नहीं, ज़िम्मेदारी है। शब्द सिर्फ लय नहीं, सोच होते हैं। हमें उन्हें हल्के में नहीं, सोच-समझकर बरतना होगा। वरना दिन दूर नहीं जब कविता खुद अपनी आत्मकथा लिखेगी—“मैं कविता थी, पर मुझे जोकर बना दिया गया।”


संपादक परिचय

अखंड गहमरी, साहित्य सरोज के संपादक हैं। व्यंग्यात्मक लेखन में विशेष रुचि रखते हैं और समकालीन हिंदी साहित्य के चर्चित हस्ताक्षरों में से एक हैं। आप साहित्य, संपादन और सामाजिक विषयों पर निरंतर सक्रिय हैं। साहित्‍यकारों को मंच प्रदान करना उनकी आदत है

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