कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -02 कहानी शीर्षक – बनारसी साड़ी। शब्द सीमा – 500 शब्द
“सिया….जल्दी रसोईघर में आ जाओ बेटा…याद है न? आज रविवार है…”
हाँ, हाँ डैड,….आज संडे है, तो आज माॅम की पसंद का कश्मीरी छोले और राइस बनेगा। “
“यस। …सिया, यू नो? खाना बनाना भी एक आर्ट है।…और कश्मीर छोले बनाना तो बेहद स्पेशल है… कौन से मसाला कब और कितना डालना है इसका ध्यान रखना बेहद जरूरी होता है। “
“डैड, मैं ये अगली बार अच्छे से सीख लूॅंगी…अभी मैं एक जरूरी काम कर रही हूँ। “
“सिया…यही बहाना हर बार करती हो।…. इसलिए ही तो तुम कभी स्वादिष्ट खाना नहीं बना पाई हो…।”
“ओके डैड, आई डोंट माइंड। “
“अरे! मैं तुम्हें अदद कश्मीरी छोले बनाना न सिखा पाया तो तुम माॅम को क्या मुॅंह दिखाऊँगा।”
“हा हह.. ह.. डैड यू आर सो फनी… क्या- क्या ड्रामा करते रहते हैं। “
“चलो इसी बहाने तुम हॅंसी तो… तुम्हें हॅंसाने का मेरा आज का कोटा पूरा हुआ। “
“डैड…आई लव यू…. “
“आई लव यू टू… अरे भाई विषय मत बदलो… आज तुम्हें छोले बनाना सीखना ही पडेगा…
तुम बीस साल की हो गई हो… कल को तुम्हारी शादी होगी…. मैं तो तुम्हारा डैड हूँ सो बेस्वाद खाना खा सकता हूँ पर तुम्हारा हबी खा सकेगा?”
” मैं आपसे कितनी बार कह चुकी हूँ… मैं आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी।
” सिया?…, तो क्या तुम शादी ही नहीं करोगी? “
“करूँगी… जरूर करूँगी…. शादी करके मैं नहीं जाऊँगी, बल्कि वो घर जवाई बनकर हमारे घर पर रहेगा। ” कहती हुई सिया जोर से खिलखिला कर हॅंस दी।
“वाह… बेटा… घर जवाई लाओगी…और ये आज तुम माॅम की अलमारी खोलकर क्या कर रही हो? ” सिद्धार्थ ने बैडरूम में आकर कहा।
“डैड, इस लाल बनारसी साड़ी में मैं कैसी लग रही हूँ? ” माथे पर बड़ी- सी लाल बिंदी लगाये… साड़ी का पल्लू सिर पर ओढ़े सिया सामने खड़ी थी। देखकर सिद्धार्थ एक पल को ठिठक गया, उसे लगा सामने सिया नहीं बल्कि स्मिता ही खड़ी है। “हू- ब- हू अपनी माॅम के जैसी…” बमुश्किल सिद्धार्थ के मुॅंह से निकला।
“यही साड़ी पहनकर माॅम ने आपसे शादी की थी न?”
“हाॅं…. जानती हो सिया ये साड़ी स्मिता को जान से ज्यादा प्यारी थी… मजाल जो कोई इसे हाथ भी लगा ले… “अतीत की यादें, आॅंखों में नमी बनकर ठहर गयी थी। “डैड, आप माॅम से बहुत प्यार करते थे न? ” सिया ने सिद्धार्थ की ऑंखों में झाॅंकते हुए कहा।
“हाॅं,..वो थी ही इतनी अच्छी, सब को प्यार करने वाली,जिंदगी को खुलकर जीने वाली,… अरे उसका साथ पाकर तो बेजान चींजे भी जी उठतीं थी.. ऐसी लड़की से किसी को भी प्यार हो जाता, फिर मेरी क्या ही बात … उसने तो मेरे जैसा जीवन से हारे, निराश व्यक्ति को केवल जीना है नहीं सिखाया बल्कि प्यार करना भी सिखाया… मेरे इस मकान को अपने प्यार से घर बनाया और फिर तुम्हें इस दुनिया में लाकर एक मुकम्मल परिवार दिया।”
“और फिर एक दिन माॅम चली गई…हमें अकेला छोड़ इस परिवार को अधूरा करके .. “
“नहीं सिया, स्मिता तो कहीं गयी ही नहीं … वो तो हमेशा से मेरे साथ है।”
“साथ हैं, कहाँ… ?”
“मेरी स्मिता की परछाई…मेरी प्यारी सिया में जो अभी मेरे सामने लाल बनारसी साड़ी पहने हुए खड़ी है।” कहकर सिद्धार्थ ने उसे गले से लगा लिया।
अर्चना राय
आदर्श होटल पंचवटी
भेड़ाघाट जबलपुर म 0 प्र 0
पिन – 483053