शान की कहानी न्‍याय

का करूँ ! कहाँ जाऊँ !?
गूलरपुरा का मजदूर बनवारी अपनी झोपड़ी में बैठा सोच रहा था ‘पास बैठा उसका तीन बरस का बेटा पिता को देख कर मुस्कुरा रहा था उसकी निश्छल मासूम मुस्कुराहट बनबारी की चिंता को और बढ़ा रही थी |
आज वह बहुत परेशान था कारण… गाँव के बौहरेजी से लिए अपने कर्जा के रुपयों के हिसाब को लेकर कहा- सुनी ‘
बौहरेजी ने तो साफ कह दिया है कि दो तीन दिन में मेरा पैसा मय सूद के लौटा दो नहीं तो मेरी जमीन से अपनी झोपड़ी हटा लो |
एकाएक वह स्वयं पर झुंझला गया “अरे कहाँ से दूं ! ‌तीन बरस से जो भी कमाता हूँ उसे खा – पी के बचा खुचा उन्हई को तो देता आया हूँ!! अब कहते हैं कि मूद ही चुकाया है…. तीन बरस से अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा दिया उपर से पिस- पिस के उनकी घर चाकरी करके गुलामी की फिर भी ब्याज अभी बाकी है!??
उसने बड़बड़ाते हुए पास बैठे सीबू को अपनी गोदी में ले लिया
अब बस नही दे सकता मै… मेरा सीबू भी तो बडा़ हो रहा है ‘ इसका भी थोड़ा बहुत खरचा है! अब इसे पालूं या करजा दूं !? मैं पंचायत बुलाऊंगा वहीं लगाऊंगा गुहार , कोई तो बोलेगा न्याय की बात |
वटवृक्ष के नीचे बैठ चुकी थी पंचायत ‘ गाँव के लगभग सभी लोग मौजूद थे
पंच — कहो बनवारी तुम्हे क्या शिकायत है ?
बनवारी — माई बाप सालों से बौहरेजी का चाकर हूँ , तीन बरस पहले सीबू के जनम के बखत मैंने उनसे एक हजार रुपया लिए थे दोये दिन बाद बालक को जनम देकर ( उसकी आवाज भारी हो गई ) सरकार जोरू चली गई, कितनी दवा दारू कराई आप सबहि को मालूम है सो मजबूरन मुझे दो हजार रूपया और लेने पडे़ क्रिया करम को ( वह अंगोछा मुंह में दबाए भरी आँखों से पंचायत को सारी बातें बता रहा था और सब सिर हिला हिला कर उसकी बातें सुन रहे थे लेकिन पास बैठे बौहरेजी धुर्ततापूर्ण मुस्कान लिए कनखियों से बनवारी को देख बुरा सा मुंह बना रहे थे )
” कसम ले लो माई बाप तीन हजार रूपयों को चुकाने के वास्ते अपनी मजदूरी के पूरे पइसा उनही को देता आया हूँ ‌’ साथ ही उनकी कारज चाकरी भी करता हूँ सो अलग अब जब मैंने उनसे हिसाब को विनती करी तो…… ( वह अंगोछे से मुंह छुपा कर सुबकने लगा )
पंच– बौहरेजी कहो बनवारी के इस शिकायत पर तुम क्या कहते हो ?
बौहरेजी– कोई माने या ना माने लेकिन मैं तो पंचों को परमेश्वर मानूं हाॅं ( अपनी पगड़ी ठीक करते हुए बोले) आप लोगों ने उससे मेरी मुफत में काम करवाने की बात तो सुन ली परन्तु ये नहीं पूछा कि जो इसकी झोपड़ी है उसका सारा बारदाना और जमीन भी मेरी दी हुई है और इसके और इसका बेटा जो कपड़े पहनते हैं वो भी मेरी बौहराइन देती हैं
बनवारी — ( रोते हुए थोड़ा सकुचाकर) अहो… बौहरेजी ! काहे ओछी बाते करते हो उतरन के लिए और झोपड़ी को जमीन तो एकदमै गाँव के बाहर जंगल की तरफ ‘ ना कोई मानसमति ना कोई डेरा, हर बखत सियार जानवरों का भय लगा रहे ऐसे उलाहना तो ना दो बौहरेजी!!
बौहरेजी — ( खिसियाकर‌ ) लो भाई ” नेकी कर – बदी पा ” अब क्या घर में घुसा लूं ! दिया ये क्या कम है !! इससे पूछो कि जहाँ मेरी जगह खाली होगी वहीं न दूंगा…!?
पंच– उनको शांत करते हुए बोले ठीक है पर बनवारी का हिसाब तो करो उसने पंचायत में विनती करी है
बौहरेजी– अपनी धुर्त मुस्कान को छुपाने की चेष्टा करते हुए ‘ देखो भाई सावन लगते तीज को बालक पैदा हुआ तब एक हजार रुपये लिए थे अब एक दिन छोड़कर दो हजार रुपये फिर लिए जब लुगाई मरी इसकी और आज पितृपक्ष की प्रतिपदा है आप खुदई लगा के देख लो हिसाब…. अरे मेरी भलमसाहत‌ है कि मैंने तरस खाकर भादो का पूरा महिना हिसाब मे ही नहीं लगाया ‘ तीन बरस में वैसे ही दूने हो जाते हैं कि नहीं तीन रुपए सैकडा़ की दर से!!
पंच आपस में मिल कर हिसाब करते हुए बोले ” हाँ तो बौहरेजी आप के हिसाब से आज तक के छह हजार तीन सौ तीस रुपये बनते हैं आप बताओ कि अब तक बनवारी ने कितना चुकाया है आपको ?
बौहरेजी– अजी पाई पाई लिख रखी है ( अपने बहीखाते की कापी दिखाते हुए ‌) थोड़ी थोड़ी कर के इसके कुल रकम तीन हजार दो सौ बीस रुपए जमा हुए हैं मेरे पास बस |
इधर बनवारी अपनी दी हुई कुल रकम की राशि को सुनकर हाथ जोडे़ न्याय की आस में पंचो को दीन दृष्टि से देख रहा था और उधर बौहरेजी की धुर्त मुस्कान उसका मुंह चिढा़ रही थी |
पंचों के मुखिया ने कहा देखो बनवारी बौहरेजी को दिए कुल रकम के हिसाब से अब तुम्हें बाकी की रकम उन्हें……. , इसके आगे वह कुछ नहीं सुन सका और पसीने से तरबतर बेहोश होकर वहीं गिर पडा़ जब होश आया तो खुद को अपनी झोपड़ी में पाया ‘ पास ही गाँव का माधो उसके बेटे को गोदी में लिये उसको पंखा झल रहा था उसे होश में आया देख मटके से पानी निकालकर उसे देते हुए पूछा ” कइसे हो भइया ”
बनवारी ने पानी पीया और बोला ठिकई है भाई |
पंचायत में ही बेहोश हो कर गिर गए थे ‘ माधो ने बताया
हाँ सिर चकरा गया था फिर सीबू को अपनी गोदी में बिठाते बनवारी ने पूछा पंचायत ने अब का फैसला दिया है?
माधो– वही….! पइसा तो देने पड़ेंगे ‌!! बौहरेजी तो एक पाई भी छोड़ने से रहा उपर से इस झोपड़ी की जमीन का धौंस ‘ कल फिर बैठेगी पंचायत
बनवारी– दुखी मन से “हूंउ ”
माधो — अच्छा अब मै चलूँ ! ध्यान रखियो राम राम
शाम होने को आई, सीबू को भात का थोड़ा थोड़ा कौर खिलाते हुए वह ना जाने क्या सोच कर बुरा सा मुंह बनाता और पागलों की तरह बड़बड़ा रहा था
” हाँ कल फिर काहे पंचायत बैठेगी ? तीन हजार रुपये लिए थे तो जो उपर के दो सौ बीस चले गए वो का भाड़ झोकने को ‌ !! अब फिर से इतनी ही रकम और दूं …. अरे कहाँ से लाऊँ इतनी रकम और ‘ अब सीबू को पालूं या सूदखोर को सूद दूं फिर मुफत में चाकरी भी करूँ ये मुझसे नहीं होगा वह कुछ और बड़बड़ाता इससे पहले एक मानव आकृति उभरकर उससे प्रश्न करने लगी
आकृति –सीबू के बारे में सोच रहे हो बनवारी !
बनवारी — (चौंकते हुए ) अ ह हूंम्‌‌ क् कौन हो भाई ?
आकृति — अपने वजूद को नहीं पहचाने का ?
बनवारी — म्म् मै का करूँ?
आकृति — करोगे क्या ! मर – कट के कमाना और बौहरेजी का ब्याज तिवाज चुकाना सीबू का जो होना है होता रहेगा
बनवारी — लेकिन जो रकम लिया था सो तो दे चुका भई
आकृति — तो.. फिर काहे को रोना!
बनवारी — अब पंचयत का फैसला है तो….
आकृति — ‌… तो ! का मानोगे !?
बनवारी — मेरी अकल तो बौरा गई भई ‘ दिन रात हाड़ तोड़ के कमाऊं , बौहरेजी को दूं उपर से ये नन्ही सी जान … अच्छा है कि बिसबेल चबाकर इसे भी संग ले लूं ‘ मर मरा के फंद कटे |
आकृति — ये तो कायरता हुई ! कायदे अनुसार बौहरेजी के पैसे तो चुक गए तुम मरके क्या कर लोगे ‌
बनवारी– लोग बाग बेईमान न कहेंगे ‌ ?
आकृति — ये कोई बेईमानी ना हुई ! तीन बरस से ब्याज के एवज मे तुम्हें निरे बैलों की तरह नहीं हाॅंका‌ घर से लेकर खेतों तक …?
बनवारी — हाॅं ‌ ( लम्बी सांस खींचते हुए ‌ ) ‌सो तो है
आकृति — फिर ! ‌ बावरे अपनी जिम्मेदारी समझ सीबू के भविष्य के प्रति !! वरना अपनी बौहरगत के चलते तेरे जीवित रहते तक तुझे नोंच – पीस कर खाएंगे और तेरे बाद बाप की जायदाद समझकर सीबू की जवानी भी अपनी तिमारी में लगाएंगे‌ …. जीवन भर तूने गधा चाकरी करी और फिर करेगा सीबू मिलेगा क्या !? जिल्लत और गुलामी की जिंदगी ‌…! सीबू को बचा ले इस मुफत की चाकरी से जा इसका भविष्य देख… जा .. जा बनवारी जा
वह एकाएक हड़बडा गया मानों किसी ने गहरी नींद से झकझोर कर जगा दिया हो और उसे बार बार यही शब्द सुनाई दे रहे थे ” जा ! जा बनवारी जा!! ”
उसने देखा सीबू जहाँ भात खा रहा था वही सो गया था ‘ बनवारी एकदम चीखा ” नहीं ये गलत है , इस गाँव में मुझे सहारा मिला लोगों ने प्यार ‌दिया ‘ अब बेईमानी … कैसे करूँ !? ‌”
वह उठा सोते हुए सीबू पर एक नजर डाल झोपड़ी से बाहर आ गया ‘ रात का धुंधलका गहराता जा रहा था पंचायत का फैसला तो वह सुन ही चुका समझो अब बस यही एक रात ही बीच में थी उसके अपने फैंसले की , जहाँ एक तरफ थी मुफत की कारज चाकरी और दूसरी तरफ सीबू के भविष्य को संघर्षों से भरी किन्तु एक आजाद जिन्दगी …. लेकिन बौहरेजी का क्या !??
गुस्से और झुंझलाहट में उसने सिर को झटका ” हूं: ” ‌और जंगल की ओर बढ़ गया
जब वापस लौटा तो उसके हाथ में बिसबेल थी वह बुरी तरह काॅंप रहा था लेकिन झोपड़ी के अंदर जाते जाते ठिठक गया ” ये क्या करने जा रहा हूँ मैं…! इस निर्दोष का भला का कसूर… ‘‌‌वह खुद से बड़बड़या , कसूर ! अरे कसूर तो मेरा भी नहीं !?
रूंवासा होकर आंखों में आसूं लिए कुछ देर सोचता रहा फिर ना जाने उसमें कहाँ से स्फूर्ति आ गई कि हाथों के बिसबेल को झोपड़ी से दूर फेक अंगोछे से आसूं पोछकर एक पोटली में कुछ जरूरी सामान कपड़े रखे फिर आसपास से कटे पेड़ों की मोटी मोटी लकड़ियों लफरों और बांस आदि इकट्ठा करके झोपड़ी के चारों ओर डालने लगा फिर सोये हुए सीबू को संभाल कर गोदी में उठाया ‌’पोटली कंधे पर डालकर चारों तरफ देखा , रात आधी से ज्यादा गहरा चुकी थी चारों तरफ सन्नाटा था केवल पास जंगल से सियारों के रोने और झाडियों से झींगुरों की आवाज ही सुनाई दे रही थी |
अचानक बनवारी की झोपड़ी से धुआं उठने लगा और कुछ ही देर में झोपड़ी लम्बी लम्बी आग की लपटों में समा गई |
सुबह जब गाँव के लोग उधर से निकले तो देखा कि बनवारी की झोपड़ी दहकते हुए राख के बड़े ढेर में बदल चुकी थी और आसपास के पेड़ पौधे जो झोपड़ी में लगे आग की लपटों से जल गए थे वो अभी भी सुलग रहे थे
एक के बाद एक गाँव भर में बात फैल गई जो सुनता भागा चला आता , हर कोई अफसोस जताने लगा अपनी अपनी तरह से |
एक ग्रामीण को दूर पडी बिसबेल दिखाई दी तो वह बोला ” ये देखो भइया ! लगता है बनवारी ने पहले बिसबेल चबाई होगी
दूसरा ग्रामीण – अरेरे… बडा बुरा हुआ
एक अन्य – च्च्च् च्च्च् कैसे कठोर कलेजा कर डाला भई !
एक बुजुर्ग – अरे राम खुद तो मरा! लेकिन बेटा को भी ‌… ??
माधो — दुखी तो बहुत था कल पर ऐसी खबर नही थी कि यों चिता भी संजो लेगा अपनी अब तो राम ही सहाईं हों
इधर जैसे ही बात बौहरेजी तक पहुँची तो वे अपनी धोती उपर किए बेंत टेकता भागा भागा आया और झोपड़ी को कोयले तथा राख के ढेर में देख ग्रामीणों के सामने सिर पकड़ कर बैठ गया।
” अरेरे बनवारी! ये तूने क्या कर डाला रे…. मुझसे कहा तो होता बावरे ‘एक पाई भी न लेता !! च्च्च् च्च्च् च्च्च् बेदर्दी तुझे बालक पर भी दया ना आई हएं … उसे तो बख्श देता अनर्थ कर डाला रे तूने राम राम राम “। वह तरह तरह से अफसोस तो जता रहा था किन्तु उसके अफसोस में भी स्वार्थ झलक रहा था जिसे वे ग्रामीण समझ पाने में असमर्थ थे |
माधो — झोपड़ी भी तो एकदमै जंगल की तरफ थी हमारे आसपास होती तो….
तो का ऐसा करने देते भला बनवारी को ( माधो की बात काटते हुए एक अन्य ने कहा )
एक महिला — अब हो भी का सकता है काका ! जो करना था सो तो वो कर चला |
धीरे धीरे सभी गाँव वालों की भीड़ कम होने लगी कुछ जंगल की तरफ चल दिए और कुछ खेतों की ओर ‘ बौहरेजी भी कुछ देर वहीं बैठे रहे फिर बेंत का सहारा लेकर उठे और जली हुई झोपड़ी की राख पर घृणा भरी दृष्टि डाल चेहरे पर धुर्ततापर्ण मुस्कान लिए वहाँ से चल दिए ।
इधर गाँव के बाहर बडे़ शहर को जाने वाली मुख्य सड़क पर खडी़ बस में एक मजदूर अपने तीन बरस के मासूम बेटे को गोद में लिये शांत बैठा था जिसकी आंखों में हल्की सी चिंता के साथ बेटे के सुरक्षित जीवन और सुनहरे भविष्य की आशा और चमक भी थी |
एक तरफ जंगल से सटे बनवारी की झोपड़ी में लगी हुई आग की आंच धीरे धीरे मद्धिम पड़ती जा रही थी और दूसरी तरफ बडे़ शहर को जाने वाली मुख्य सड़क पर एक मजदूर के बेटे के सुनहरे भविष्य का सपना लिए यात्री बस तीव्रगति से अपने गंतव्य की ओर दौड़ती जा रही थी।

संतोष शर्मा ‌” शान‌ ”
हाथरस‌‌ ( उ. प्र. )
86508 03221

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