अखंड गहमरी
गहमर, जो अपनी वीरता और संस्कृति के लिए जाना जाता है, इस बार होली पर कुछ उदास-सा दिखा। जहाँ पहले रंगों की बौछार, ढोल-मंजीरे की धुन और फगुआ के गीतों से गलियाँ गुलजार रहती थीं, वहीं इस बार सन्नाटा पसरा रहा।
नशे पर भारी मोबाइल!
पहले जहाँ लोग भांग, ठंडाई और होली के रंग में सराबोर होकर मस्ती करते थे, अब मोबाइल ने सबको अलग-थलग कर दिया है। अब लोग रंगों की जगह स्क्रीन पर वीडियो देखने में ही मग्न रहते हैं। सोशल मीडिया पर स्टेटस अपडेट करने में ही उनकी होली कट जाती है। नतीजा – चौपालों की जगह वर्चुअल दुनिया ने ले ली, और आपसी मेल-मिलाप की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो रही है।
बुजुर्ग ही नहीं, 35-40 साल के लोग भी कह रहे – ऐसी होली नहीं रही!
पहले माना जाता था कि सिर्फ बुजुर्ग ही पुरानी परंपराओं को याद करते हैं, लेकिन अब तो 35-40 वर्ष के लड़के और लड़कियाँ भी कहने लगे हैं कि उनके बचपन जैसी होली अब नहीं रही। पहले की होली में उमंग थी, टोली थी, गुझिया-मिठाई थी, और हर घर में एक अलग ही रौनक थी, मगर अब सब कुछ बदल गया है।
शराब का नशा तो बदनाम था, मगर इस बार वो भी नहीं दिखा!
पहले होली के दिन हर पाँच मिनट में नशे में धुत्त टोली गली से गुजरती थी, हंगामा होता था, मस्ती होती थी, मगर इस बार हालात बिल्कुल अलग थे। यदि गहमर थाने पर देखा जाए, तो शायद ही एक मिनट के लिए भी भीड़ इकट्ठा हुई हो। ऐसा लग रहा था कि होली का जोश कहीं गुम हो गया हो।
क्यों सूनी रही गहमर की होली?
गहमर सैनिकों का गाँव है, जहाँ हजारों परिवार अपने किसी न किसी सदस्य को सेना में भेजते हैं। लेकिन इस बार नए सैनिकों को अवकाश नहीं मिल पाया, जिससे गाँव में होली की रौनक कम हो गई। इसके अलावा, बोर्ड परीक्षाएँ चल रही थीं, जिसने छात्रों और अभिभावकों को व्यस्त रखा। वहीं, गाँव के अंदर हाल ही में हुई कई मौतों ने भी इस बार की होली को फीका बना दिया।
क्या यह हमारी नई होली होगी?
अगर हम अपने रीति-रिवाजों को नहीं संजोएंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद असली होली का आनंद कभी न ले पाएँ। जरूरत है कि हम मोबाइल की दुनिया से बाहर निकलकर फिर से गहमर की गलियों में वो पारंपरिक जोश और उल्लास लेकर आएँ, जिससे रंगों की असली पहचान बनी रहे।