फर्जी गंगा पुत्र और रोती गंगा मॉं

फर्जी गंगापुत्र और रोती मॉं गंगा

संपादकीय: फर्जी गंगापुत्र और रोती मॉं गंगा

संपादकीय: स्‍वंय घोषित गंगापुत्र और रोती मॉं गंगा

महाकुंभ 2025 में एक बार फिर गंगा की पीठ पर पाखंड का बोझ लादा गया। करोड़ों रुपये की फंडिंग, बड़ी-बड़ी योजनाएं, दिखावटी पोस्टर, झूठे आँकड़े और खोखली घोषणाएं – लेकिन जब श्रद्धालु गंगा तट पर पहुंचे, तो वहाँ सिर्फ बदबू, कीचड़, प्लास्टिक और सीवेज का अंबार मिला। यह एक या दो संगठनों की विफलता नहीं थी, यह पूरे सफाई तंत्र की पोल खोलने वाला दृश्य था। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जिन स्वयंसेवी संस्थाओं और एनजीओ ने वर्षों से गंगा सफाई के नाम पर सरकारी और कॉरपोरेट धन बटोरा, वे महाकुंभ जैसे मौके पर कहाँ थे? कहाँ थीं ‘नमामि गंगे’, ‘गंगा टास्क फोर्स’, ‘गंगा महासंघ’, ‘जीवन धारा’ जैसी संस्थाएँ? सोशल मीडिया पर तस्वीरें पोस्ट करने में माहिर ये संगठन जब गंगा की असली परीक्षा थी, तब कहीं नहीं दिखे। वहाँ सेल्‍फी ले कर मैं-मैं करते नहीं दिखें।

‘नमामि गंगे’ जैसी योजना, जिसे केंद्र सरकार ने मिशन मोड में चलाने की बात की थी, आज तस्वीरों और टेंडरों तक सिमट चुकी है। बड़े कॉरपोरेट घरानों की CSR राशि का उपयोग घाट पर ‘बैनर लगाने’ और फोटो खिंचवाने तक सीमित है। आज के गंगा सेवा का दंभ भरते एनजीओं संचालक पूरे देश में पदाधिकारी बनाते नज़र आते हैं। ऐसे ऐस पद की पद भी शरमा का आत्‍म हत्‍या कर लें। अपनी जय-जय कार करना वाले यह तथा कथित गंगा सेवी लोग सालभर झाड़ू पकड़े दो-चार तस्वीरों से अख़बार और सोशल मीडिया भरते हैं, लेकिन जब वाकई काम की घड़ी आई, तब इनका नाम भी नहीं सुनाई दिया। इनको गंगा के अविरल प्रवाह, सफाई से कोई मतबल नहीं। यह तो बस अपने कुर्ते को टाइट करके अपनी जेब भर रहे हैं। लोगो के बीच जय-जयकार से मतबल है।

गंगा की दुर्दशा की असली वजह सिर्फ गंदगी नहीं, अविरलता की समाप्ति है। और दुर्भाग्य यह है कि किसी भी संस्था ने इस मूल प्रश्न को नहीं उठाया कि गंगा में पर्याप्त जल प्रवाह क्यों नहीं है? नहरों और बाँधों के जरिए गंगा का जल खींचकर उसे एक बीमार नहर बना दिया गया है। अगर इन तथाकथित सेवाभावी संगठनों में जरा भी ईमानदारी होती तो वे सिर्फ घाट की सफाई नहीं, बल्कि गंगा की जीवनधारा को अविरल बनाने के लिए आवाज उठाते। ये तो बस गंगा को सेवा नहीं, उद्योग समझ बैठे हैं। इन संस्थाओं ने सफाई के नाम पर एनजीओ रजिस्टर कराए, खुद को ‘राष्ट्रीय संयोजक’, ‘महासचिव’, ‘प्रदेश प्रभारी’ घोषित किया, और फिर फोटो खिंचवा-खिंचवाकर लाखों रुपये की फंडिंग बटोरी। नतीजा? साल में दो दिन घाट पर झाड़ू और शेष समय मीडिया मैनेजमेंट।

‘ऐसे ही एक संगठन जीवन धारा नमामि गंगे’ के डॉ. हरिओम शर्मा से लेखक ने सीधे सवाल किए, तो उनका जवाब और भी हैरान करने वाला था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा – “गंगा कैसे साफ होगी, यह सबको पता है। लेकिन सच बोलकर कोई संगठन ज़्यादा दिन नहीं चल सकता। अपनी दुकान बचाए रखने के लिए हमें अधिकारियों की हाँ में हाँ मिलानी पड़ती है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमें ब्लैकलिस्ट कर दिया जाएगा। इसलिए हम लोग सब कुछ जानते हुए भी चुप रहते हैं।” यह बयान उस डर, समझौते और स्वार्थ की गवाही है, जिसकी जड़ें अब गंगा अभियान के भीतर तक फैल चुकी हैं।

किसी भी सरकारी विभाग ने इन संगठनों से यह नहीं पूछा कि पिछले वर्षों में आपने वास्तव में क्या किया? किस घाट पर कितनी बार सफाई हुई? कितने किलो कचरा उठाया गया? उसका निस्तारण कहाँ किया गया? कोई रजिस्टर नहीं, कोई रिपोर्ट नहीं, कोई जवाबदेही नहीं। अब वक्त आ गया है कि ऐसे संगठनों की मान्यता रद्द की जाए। CSR फंड देने वाली कंपनियाँ सिर्फ ब्रांडिंग न करें, बल्कि ग्राउंड रिपोर्टिंग की अनिवार्यता लागू करें। साथ ही, सरकार को चाहिए कि प्रत्येक संगठन की कार्यप्रणाली का स्वतंत्र ऑडिट कराए – और यह रिपोर्ट सार्वजनिक हो।

1. प्रत्येक एनजीओ की रिपोर्टिंग को सार्वजनिक करे।

2. STP की कार्यप्रणाली को ऑनलाइन निगरानी में लाए।

3. गंगा में जलप्रवाह के लिए वैज्ञानिक और कानूनी बाध्यता तय करे।

4. घाटों की सफाई स्थायी तंत्र के तहत हो, न कि केवल आयोजनों पर।

5. नकली संस्थाओं और फर्जी कार्यकर्ताओं को चिन्हित कर दंडित किया जाए।

गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है – वह भारत की सांस्कृतिक आत्मा है। उसकी हत्या हो रही है योजनाओं के नाम पर, योजनाओं के ठेकेदारों द्वारा। जब तक यह व्यापार बंद नहीं होगा, तब तक हर आयोजन में वही गंदगी, वही शिकायत और वही पाखंड दोहराया जाता रहेगा।

आपको याद होगा कि कोरोना काल में जब सारी कम्‍पनीयॉं बंद थी, उनका गंदा पानी गंगा में नहीं जा रहा था। गंगा इतनी साफ हो गई थी कि पानी बिल्‍कुल नीला हो गया था। हर तरफ गंगा का पानी आचमन योग्‍य हो गया था। एक पैसा खर्च नहीं हुआ। इसका मतलब साफ हैं कि गंगा के प्रदूषण का जिम्‍मेदार केवल कम्‍पनीयों का रसायनिक पानी और कचडा है। अब कम्‍पनी भी बड़े लोगों की और गंगा रक्षक भी नेता और एनजीओं संचालक तो कहना सही होगा चोर-चोर मौसेरे भाई। गंगा दर्द कहे तो किससे।

और अंत में – अगर सरकार वाकई ईमानदार है, तो उसे चाहिए कि:हम अखंड गहमरी की कलम से यह स्पष्ट कर रहे हैं – चाहे संगठन ‘बड़े नाम’ वाले हों या किसी राजनीतिक संरक्षक के प्रिय, अब जनता को मूर्ख बनाना बंद करें। गंगा के नाम पर धंधा करने वालों को जवाबदेह बनाया जाएगा, नाम सहित।


संपादक परिचय

अखंड गहमरी, साहित्य सरोज के संपादक हैं। व्यंग्यात्मक लेखन में विशेष रुचि रखते हैं और समकालीन हिंदी साहित्य के चर्चित हस्ताक्षरों में से एक हैं। आप साहित्य, संपादन और सामाजिक विषयों पर निरंतर सक्रिय हैं। साहित्‍यकारों को मंच प्रदान करना उनकी आदत है

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