विद्यालयों का विलय

विद्यालयों का विलय कितना प्रासंगिक-शुभि यादव

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुसार 2030 तक प्राइमरी स्कूल से माध्यमिक स्तर तक 100% सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) करना तथा 2035 तक उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात को 50% करने का लक्ष्य रखा गया है। जहाँ एक ओर उल्लास (ULLAS) – नवभारत साक्षरता जैसे कार्यक्रम चलाकर वयस्कों को साक्षर बनाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाओं के माध्यम से साक्षरता दर, शैक्षणिक स्तर के साथ ही लैंगिक समानता बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। सर्व शिक्षा अभियान-2001 का उद्देश्य भी प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाना था। वहीं दूसरी ओर स्कूलों का विलय ‌करके बच्चों से उनके शिक्षा के उस अधिकार को छीना जा रहा है, जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद-21क (आर्टिकल-21ए) के तहत मूल अधिकार के रूप में प्राप्त है। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम-2002 के तहत शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल किया गया।

दरअसल, बेसिक शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश सरकार ने 16 जून, 2025 को एक आदेश जारी किया, जिसमें उत्तर प्रदेश के हजारों विद्यालयों को बच्चों की संख्या के आधार पर नजदीकी उच्च प्राथमिक या कंपोजिट स्कूलों में मर्ज करने का निर्देश दिया है।
क्या शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और संसाधनों का बेहतर उपयोग का यह एकमात्र विकल्प है? यदि नहीं तो क्यों विद्यालयों का विलय किया जा रहा है?

सामान्यतः गरीब तबके के वे लोग जो आर्थिक रूप से समस्याओं से ग्रसित है ज्यादातर उनके ही बच्चे सरकारी स्कूल में शिक्षा ग्रहण करते हैं। उनके बच्चों के लिए यह एकमात्र विकल्प है जिससे कि वे शिक्षित हो सके। जिन सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में प्राथमिक विद्यालयों ने सराहनीय भूमिका अदा की है, वे इस प्रकार हैं –
सतत विकास लक्ष्य 1- शून्य गरीबी,
सतत विकास लक्ष्य 2- शून्य भुखमरी
सतत विकास लक्ष्य 3- उत्तम स्वास्थ्य एवं खुशहाली
सतत विकास लक्ष्य 4- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
सतत विकास लक्ष्य 5- लैंगिक समानता
सतत विकास लक्ष्य 10- असमानताओं में कमी
प्राथमिक स्कूलों में संचालित मिड डे मील (पीएम पोषण) जैसी योजनाओं ने पोषण स्तर को बढ़ावा देकर अल्प पोषण की समस्या को कम किया है, साथ ही ये भुखमरी को कम करने में भी सहायक सिद्ध हुई।

सेवाओं को सर्व सुलभ बनाने के हेतु एक जिला-एक विश्वविद्यालय, एक जिला-एक मेडिकल कॉलेज, एक जिला-एक उत्पाद जैसी नीतियाँ लाईं जा रही है। फिर पहले से चल रहे विद्यालयों को बंद करके क्या दर्शाना चाहते हैं? संसाधनों व शिक्षकों को बढ़ाने के बजाय स्कूलों की संख्या में कटौती करना अत्यंत मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है। हालिया रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षा में महिलाओं का नामांकन पुरुष अभ्यर्थियों से ज्यादा है, जो शायद शिक्षा को मूल अधिकार बनाने से ही संभव हुआ है। यह लैंगिक रूप से होने वाले भेदभाव में कमी को दर्शाता है, जो कि एक सकारात्मक परिणाम है। यदि अब प्राथमिक स्तर पर ही बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाएंगे तो उच्च शिक्षा में आगे कैसे जा पाएंगे?

संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन उपसूचियों की चर्चा की है। जिसमें संघ सूची में वे विषय शामिल है, जिन पर कानून निर्माण का अधिकार केंद्र को, राज्य सूची में शामिल विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार राज्य को तथा समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र व राज्य दोनों को है। 42वें संविधान संशोधन अधिनियम-1976 के तहत शिक्षा को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में शामिल कर लिया गया, जिससे कि इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर दोनों ही अपने स्तर पर कानून निर्माण कर सके। जिससे एक मजबूत शिक्षा व्यवस्था स्थापित की जा सके।

समग्र शिक्षा की माँग के इस युग में बच्चों से उनकी प्राथमिक शिक्षा जो मूल है, उसका छीना जाना बिल्कुल भी तर्कसंगत व न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है। जब कोई व्यक्ति बीमार होता है तो उसकी बीमारी का कारण खोजने का प्रयास किया जाता है ना कि उसे अर्थात व्यक्ति को नष्ट किया जाता है। ठीक उसी प्रकार यदि प्राथमिक विद्यालयों में स्टाफ की संख्या में कमी है तो स्टाफ की नियुक्ति की जा सकती है और यदि विद्यार्थियों के नामांकन की संख्या में कमी है तो, बच्चों के ना आने का कारण तलाशा जा सकता है। अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए विद्यालयों को बंद कर देना कदापि उचित नहीं है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के तहत प्रावधान है कि 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाएगी, यह शिक्षा उन्हें पास के ही स्कूल में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए। शिक्षा एक ऐसा विषय है जिसका उल्लेख भारतीय संविधान की मूल संरचना को दर्शाने वाले विभिन्न भागों मूल अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्व तथा मूल कर्तव्य में है। भारतीय संविधान का संरक्षक कही जानेवाली न्यायपालिका को भी इस मामले के संदर्भ में निष्पक्ष, सुचितापूर्ण निर्णय देने की आवश्यकता है।

  • शुभि यादव
    शोधार्थी राजनीति विज्ञान
    बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी

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