वे सज-धज कर बल खाती हुईं आती हैं और अपने जैसी किसी कवयित्री से नागिन-सी लिपट जाती हैं ।कविता मंच पर बैठी है ।उस पर उनका ध्यान नहीं है ।वे आपस में सूट -साड़ी पर बात करती हैं ।नेलपालिश की तारीफ़ करती हैं ।जूते -चप्पल की तारीफ़ करती हैं । वे हॉल से बाहर जा कर खुल कर गप्पें मारती हैं ।पाउट बना कर फ़ोटो खींचती हैं ।पेड़ के नीचे , दीवार के पास , सीढ़ी पर बैठ कर तस्वीरें लेती हैं ।कविता अंदर बैठी है और वे बाहर ।उन्हें कविता से कुछ लेना -देना नहीं ।
काव्य -गोष्ठी के समाप्त होने पर वे माइक के सामने खड़ी होकर फ़ोटो खिंचवाती हैं ।वे फ़ेसबुक पर कई फ़ोटो डाल कर लिखती हैं -“मंच पर कविता पढ़ते हुए ।”न कविता उन्हें जानती है और न वे कविता को ।वे खुद को महादेवी वर्मा समझने का भ्रम लेकर सभागार से बाहर निकल जाती हैं ।
डॉ० दलजीत कौर