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हेमंत चौकियाल का पर्यावरण दिवस संस्मरण

*गोपालराम गहमरी पर्यावरण लेखन सप्ताह*
*30 मई से 05 जून 2024*
05 *जून* 2024 बुद्धवार के कार्यक्रम।
तब मैं कक्षा 3 का छात्र रहा था । हमारे हेड गुरूजी  बहुत मेहनती  थे। अनुशासन पर उनका विशेष ध्यान रहता था। जुलाई में विद्यालय खुलता तो हम नई पोशाक, जूतों और स्कूली बैग के साथ विद्यालय जाते। अधिकांशतः पहाड़ में जुलाई के इस मौसम में दक्षिण से आने वाले मानसून के कारण बरसात अपने चरम पर होती है। हम टाट या बोरे को बरसाती की तरह प्रयोग करते थे। स्कूल आने के बाद यह टाट या बोरा हमारी टाट पट्टी बनता। धूप या बारीश के समय यह हमारा छाता बन जाता। तब विद्यालयों में  विद्यार्थियों के लिए आज की तरह बैठने के लिए मेज कुर्सी का अभाव रहता था, अतः हम घर से ही अपने बैठने के लिए टाट या बोरा ले जाते थे। यह हमारी पठन सामग्री के साथ का अनिवार्य अंग होता। जुलाई की पहली बरसात के साथ ही हेडमास्टर जी का आदेश होता कि अगले बरसात के दिन हमें पेड़ लाकर रोपित करना होगा। हम इस बरसात के बीच ही अपने लिए आगामी बरसात के दिन के लिए पौधा ढूँढ लेते। तब पर्यावरण दिवस जैसा कोई विशेष दिन प्रचलन में नहीं था बल्कि हम हर बरसाती मौसम पर (जुलाई- अगस्त में ) एक दो पौधे जरूर रोपते थे। यह प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य नियम सा था। घर के सदस्य भी इसमें हमारा साथ देते। तब जंगलों में विभिन्न प्रजातियों नीम, खैर, पीपल, बरगद, बाँज, बुरांश, डैंकण (नीम की ही एक प्रजाति) आदि के वृक्ष खूब मिलते थे जिन्हें लोग बरसात के दिनों में वहाँ से ले जाकर खाली जमीन पर रोपित करते । ऐसे ही गाँव की धरोहर बने कई पुराने पेड़ों के रोपण की कहानी हम बड़े-बुजुर्गों से सुनते आये थे। गाँव भर में कई आम, पीपल, नीम, बरगद के विशाल वृक्ष थे जिनके नीचे गाँव की पंचायतें , विवादों का निपटारा,बुजुर्गों की महफिलें सजती तो बच्चों के छुपम छुपाई के खेल चलते।
इन्हीं वृक्षों से प्रेरणा लेकर गुरूजी के आदेश पर हमने भी अपने लिए कक्षा 3 की पहली बरसात पर एक पौधा ढूँढ लिया था।
दूसरी बरसात आने का हम बेसब्री से इंतजार करने लगे कि 15 जुलाई को ही शाँम से वर्षा होने लगी। तेज वर्षा के बीच हम सभी स्कूली साथी अपने-अपने पौधे घर ले आये। अब इंतजार था तो अगली सुबह का। कब सुबह हो और कब हम स्कूल पहुँचें। संयोग से सुबह होते ही हल्की बारीश शुरू हो गई तो हम पीठ पर बस्ता और हाथ में पौधा लेकर विद्यालय पहुँच गये। आज स्कूल में 50 से अधिक छायादार पौधे इकट्ठा हो गये थे। गुरूजी प्रत्येक बच्चे को उसके पौधे लगाने का स्थान बताते। संयोग से मुझे स्कूल प्रांगण का वह कोना मिला, जहाँ पर एक गुलाब का पौधा बरसात में अपनी गर्दन उठा कर, जीने की ललक दिखा रहा था । इस बार की प्रचण्ड गर्मी में परिसर की फुलवारी के अधिकांश पौधे मुर्झा या सूख गये थे। पिछले दिन की बारीश की नमी से मिट्टी काफी गीली थी तो हमें गड्ढा बनाने में कोई जादा दिक्कत नहीं हुई। सबने अपने अपने पौधे रोपे तो गुरूजी ने आदेश दिया कि हर दिन हम इन पौधों को पानी दें और हफ्ते में शनिवार के दिन इनमें गोबर जरूर डालें। अब यह काम हमारा जैसे घोषित नियम सा बन गया।
बरसात बीतने से पहले ही सारे पौधों ने जड़ पकड़ ली थी। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। हर दिन पौधे के पास जाते, मानों उसे पूछ रहे हों कि तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है दोस्त । हमारे कक्षा 3 से कक्षा 5 उत्तीर्ण होने तक पौधे हमारी लम्बाई के लगभग ही के हो चुके थे। कक्षा 5 उत्तीर्ण कर कक्षा 6 में दूर विद्यालय में प्रवेश के लिए टी०सी० ले जाते वक्त भी गुरूजी का आदेश था कि जब भी समय मिले, हम अपने पौधों की संत -खबर लेते रहें। रविवार को अवकाश होने पर हम सभी पास आउट बच्चे सामूहिक रूप से विद्यालय में आते कुछ देर पौधों के साथ बिताते और फिर लौट जाते। यह क्रम अनवरत  तब तक चलता रहा जब तक हमने 12वीं कक्षा पास न कर ली। 12वीं पास करने के बाद आगे की शिक्षा के लिए दूर शहर में जाना पड़ा। लम्बी छुट्टियों में जब भी घर जाना होता तो दूसरे दिन सबसे पहले सबेरे अपने पौधे की सुध लेने विद्यालय में जरूर जाते। अक्सर लम्बे दिनों बाद होली दीवाली जैसे पर्वों की लम्बी छुट्टियों पर हम सभी दोस्त वहीं विद्यालय में अपने पौधों के पास मिलते।
समय अपनी गति से गुजरता रहा। हम सब भी अब बच्चों से युवा बन चुके थे। 30 की उम्र तक आते आते सभी अपने कामों में रम चुके थे। कोई सेना में चला गया था तो कोई अध्यापक, कोई प्रशासनिक सेवा में नाम कमा रहा था तो कोई नामी व्यवसाई बनने की ओर अग्रसर था। सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे।कभी कभार कोई शादी, विवाह या किसी पूजा पाठ के लिए गाँव आता तो हालचाल पूछकर फिर एक दो दिन में चले जाता। लेकिन इस बार कुछ ऐसा संयोग बना था कि हम सब दोस्त एक ही दिन एक ही समय पर उस स्थान पर इकट्ठे हो चले थे जहाँ कभी हम सब साथ-साथ सहपाठी थे ।
19 अप्रैल 2024 को लोकसभा चुनाव की वोटिंग का दिन था। भारत चुनाव आयोग की इस अपील कि “हर मतदाता अपना वोट जरूर डाले” पर हर व्यक्ति अपने पोलिंग बूथ पर वोट डालने आया था। हमारा पोलिंग बूथ गाँव का वही विद्यालय था, जहाँ हमने कक्षा 5 उत्तीर्ण किया । दशकों बाद हम सभी दोस्तों ने आपस में टेलीफोन  बातचीत से तय किया था कि हम सब अबकी बार वोट डालने गाँव जरूर जायेंगे। माधव कर्नाटक से आया था तो शिवा  केरल से। रजिया बर्लिन से आई थी तो मधुर आस्ट्रेलिया से। नागेन्द्र अपनी बटालियन सियाचीन से दो महीने की छुट्टी लेकर आज ही पहुँचा था तो नेवी अफसर शिवानी सीधे वोट डालने यहीं पहुँची थी। गाँव में आज उत्सव जैसा माहौल बन गया था। वोट डालकर एक दूसरे से मिले तो ऐसे लगा जैसे आज कोई बड़ा खजाना हाथ लग गया हो। मैं भी  श्रीमती जी और दोनों बच्चों सहित आज ही गाँव पहुँचा था। एक दूसरे से गले मिलने के बाद हम एक दूसरे के परिवारों से मिल रहे थे। कई साथियों से तो यह मुलाकात चार दशकों बाद हो रही थी। इन चार दशकों में काफी कुछ बदल गया था। नहीं बदला था तो हमारा अपने उन पेड़ों के प्रति प्यार व अपनत्व। एक दूसरे का हाथ पकड़  हम अपने अपने पेड़ों से मिल रहे थे। चार दशक पूर्व के वे पौधे अब  पेड़ और पेड़ से विशाल वृक्ष में बदल गये थे। शिवानी तो अपने पीपल के पेड़ से  लिपट कर जोरों से रो ही पड़ी थी। शिवा का वरगद का पेड़ अब इतना बड़ा हो गया था कि उसकी झूलती बाँहों से बच्चे लटक कर “हिण्डोला” खेल रहे थे। मेरा नीम का पेड़ बालपन और यौवन के थपेड़ों को झेल जैसे अब प्रौढ़ता पाकर गर्वित हो सीना ताने खड़ा था। श्रीमती और दोनों बच्चों को जब बताया कि “ये पौधा तब रोपा था जब मैं कक्षा 3 का विद्यार्थी था” तो वे जैसे आश्चर्य से कभी मुझे देख रहे थे तो कभी पेड़ को।
मेरी आँखें न चाहकर भी अतीत के उन पलों को याद कर नम हो गई थी। आज पर्यावरण दिवस पर लोग व्ह्टएप पर केवल फोटो भेज इतिश्री कर लेते हैं लेकिन आज भी मैंने आंगन में रुद्राक्ष का पौधा रोप जैसे बचपन को फिर से जी लिया था। देखा देखी में श्रीमती जी, बेटी और बेटे ने भी एक-एक पौधा रोप लिया तो लगा जैसे मेरा वो पर्यावरण दिवस यादगार बन हम सबको आशीर्वाद दे रहा है।

हेमंत चौकियाल

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