आत्‍महत्‍या की बढ़ती प्रवृति- दिनेश कुमार राय

आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति कोई साधारण समस्या नहीं है।यह एक गहरी पीड़ा और मानसिक उथल-पुथल का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में, यह एक ज़ख्म है जो समाज के ताने-बाने को चीरता हमारे सम्मुख खड़ा किसी दैत्य की भांति अट्टाहासें भर रहा है। यह महज़ एक व्यक्ति के जीवनलीला को समाप्त करने के लिए जिम्मेदार ही नहीं है, बल्कि उसके परिवार और समाज के मन में एक अनुत्तरित प्रश्न छोड़ जाता है—”क्यों? हम इतने निर्मम कैसे हो गए? ऐसा कैसे हो गया कि हम किसी की पीड़ा को समझने का समय भी नहीं निकाल पाए?”

आइए, अब हम इसके के पीछे छिपे कारणों को ढूंढने का प्रयत्न करते हैं। हम यदि इसकी तह में झांकें तो हमें अवसाद का अंधकार, तनाव की जकड़न, आर्थिक विवशताएं, रिश्तों में दरारें और सामाजिक अकेलापन दिखाई देगा। यह समस्या खासकर युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले रही है। युवा तो सपने लेकर चलते हैं, उम्मीदों के पंख लगाकर उड़ते हैं और क्षितिज के छोर को छूने का हौसला रखते हैं। मगर, जब वे जीवन के बोझ तले दब जाते हैं, तो उन्हें आत्महत्या के सिवा कोई और रास्ता नजर ही नहीं आता।
अब मैं कुछ ऐसी घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा जो दिल को झकझोर कर रख देंगी। हाल ही में एक युवक ने अपनी डायरी में लिखा, “मैंने हर दिन मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन मैं अंदर से टूट रहा था।” इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा वह युवक पढ़ाई और सफलता के दबाव और परिवार की उम्मीदों के बोझ तले इस तरह टूट गया कि उसने खुद को एक ऊंची इमारत से नीचे किसी अनावश्यक सामान की तरह फेंक दिया। उसकी डायरी में लिखी पंक्तियां आज भी उसके परिवार को फफक-फफक कर रोने के लिए विवश कर देती हैं।
मैं व्यक्तिगत तौर पर उस युवती को जानता हूं, जो पढ़ाई में बहुत होशियार थी। यौवन के प्रथम तल पर उसे प्यार हुआ।लेकिन, हाय ! निष्ठुर नसीब ने मधुर प्रेम की मात्र एक झलक दिखाकर वियोग के कांटों से उसके दामन को भर दिया ।परिणाम स्वरूप, रेलवे ट्रैक पर कूदकर उसने आत्महत्या कर ली। उसकी मां आज भी हाथों में तस्वीर लिए रोती फिरती है और कहती है, ” मैंने उसकी आंखों में दर्द देखा था। काश, मैं उसे सम्भाल पाती !”एक भोला-भाला किसान, जो जमीन के एक छोटे-से टुकड़े पर खेती कर अपने परिवार का लालन-पालन करता था ‌। एक साल अकाल पड़ गई और वह कर्ज के बोझ तले दब गया। बैंक के अधिकारी और साहूकार कर्ज चुकाने के लिए धमकाने लगे। जीवन में अंधकार छा गया। एक रात उसने अपनी पत्नी और बच्चों के नाम एक चिट्ठी लिखी, “मुझे माफ़ कर देना, मैं हार गया।” उसकी मौत ने पूरे गांव को हिला कर रख दिया था। कई दिनों तक इसने समाचार-पत्रों की सुर्खियां बटोरी। संसद में आवाज भी उठी, पक्ष-विपक्ष में बहसबाजी हुई। मगर, आज भी यह समस्या सुरसा की तरह मुंह बाए वदन बढ़ा रही है।

वास्तव में, आत्महत्या कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है। यह एक सामूहिक विफलता है। हमारे समाज ने इंसान की पीड़ा को समझने की क्षमता खो दी है। हमने उसे अकेला छोड़ दिया है, जहां वह अपने दर्द को किसी के साथ बांट नहीं पाता।इस समस्या का समाधान केवल सरकारी नीतियों या मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों से नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने अंदर की संवेदनशीलता को जगाना होगा। हमें उन लोगों की आवाज सुननी होगी जो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि वे टूट रहे हैं। हमें उन्हें यह बताना होगा कि जीवन की हर समस्या का समाधान है, और अंधेरा चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, सुबह जरूर होती है।

आइए, हम सब मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहां हर व्यक्ति को जीने की उम्मीद मिले, जहां कोई अकेला महसूस न करे और जहां हर आंसू को पोंछने के लिए कोई न कोई हाथ मौजूद हो। जीवन अनमोल है, इसे खोने से पहले हमें बचाने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।

दिनेश कुमार राय
चंद्रशेखर नगर, गोला रोड, पटना
97712 94806

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