दिल्ली का पानी-चंद्रवीर

मां ने चिल्लाते हुए कहा – “मेरे घर में इन गंदे और कीचड़ में सने पिल्लों के लिए कोई जगह नहीं है। तुझे इनका इलाज़ ही करना है तो घर से बाहर कर, समझा।”आज मां कुछ ज्यादा ही गुस्से में थी। वह प्रतिदिन पूजा पाठ करने वाली धार्मिक महिला हैं। प्रतिदिन रामायण का पाठ करती हैं। अनपढ़ होते हुए भी साक्षर हैं। पढ़ना लिखना कैसे सीखा यह एक रहस्य है। सफाई पर तो इनका विशेष ध्यान रहता है। आज अपने बड़े बेटे पर इनका गुस्सा इसलिए फूट पड़ा क्योंकि दिल्ली वाला इनका बेटा आज एक पिल्ले की टूटी टांग पर हुए घाव की मलहम पट्टी कर रहा था। इस काम में उसके भतीजे उसकी मदद कर रहे थे। वह घायल पिल्ले को घर के अंदर ले आए थे और फर्श पर लिटाकर उसका इलाज़ कर रहे थे। माताजी को ये बर्दाश्त से बाहर था। उन्होंने कई बार उसे बाहर ले जाने की कहा लेकि

न उनके बेटे ने इसे अनसुना कर दिया। सो घर में तूफान तो आना ही था। बार बार की अनसुनी से माताजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने एक डंडा उठाया और अपना गुस्सा घायल पिल्ले पर निकाल दिया। डंडी से उसकी पिटाई कर दी। पिल्ला कू कू की दर्दनाक आवाज़ करते हुए लगड़ाते हुए बाहर भाग गया। अब क्या था माता जी का बड़ा बेटा भी आग बबूला हो गया। पास में ही पड़े हुए झाड़ू पर हाथ लग गया और भयंकर चीखते हुए बोला- ” अब पिल्ले को कोई हाथ लगाकर दिखाए। गुस्से में मर्यादा कब तार तार हो गई पता ही नहीं चला। लड़के के हाथ में उठा हुआ झाड़ू देखकर मां के होश उड़ गए। वह अवाक रह गईं। मुंह खुला का खुला रह गया। आंखों में आंसू झलक आए।मां को अपने चार बेटों में सबसे लायक बड़े बेटे का यह रूप देखकर हाथ से डंडी कब नीचे गिर गई पता ही नहीं चला। माताजी के पांच बेटों में से एक पहले ही इस छल कपट से भरी दुनिया से हमेशा के लिए दूर जा चुका था। सबसे बड़ा बेटा दिल्ली में लेक्चरर के पद पर है। जब उसकी पढ़ाई चल रही थी मां ने उसकी पढ़ाई के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पिता भले ही प्राइमरी स्कूल में सरकारी टीचर थे लेकिन उनका वेतन बहुत कम था। पांच बच्चों की पढ़ाई संभव नहीं थी इसलिए जब भी नई पुस्तकें दिलाने या ड्रेस की बात आती थी तो मां ही मददगार बनती थी। अपनी सहेलियों से रुपए मांग कर बेटे की हर जरूरत को पूरा करती थी। नई पोशाक केवल बड़े बेटे के लिए ही सिलाई जाती थी। दूसरे बच्चे उसकी पुरानी पोशाक पहनकर भी बहुत खुश होते थे। मां की सारी कुर्बानी आज बेटे ने ध्वस्त कर दी थीं लेकिन फिर भी मां के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला वह चुप ही रही।
इस मां ने अपने बच्चों को शिक्षित और संस्कारी बनाने के लिए सब कुछ किया। बड़ों का सम्मान करना सिखाया तो वहीं महिलाओं की इज़्ज़त करना भी सिखाया। आपस में प्रेम करना, गरीबों को मदद करना भी उसी मां की शिक्षा थी। बच्चों ने भी मां से मिले संस्कारों को ख़ूब निभाया। फिर बड़े बेटे में ने मां का इतना अपमान कैसे कर दिया वह सोचती रही लेकिन उसे कारण समझ नहीं आया।
वह जब भी खाली समय में बैठती तो यही सोचती रहती थी। जब बेटे की दिल्ली में नौकरी लगी और वह पहली बार घर से बाहर जा रहा था तो खुशी मिश्रित आंसुओं से विदाई हुई। उस समय उसका वेतन कम था फिर भी मां के हिस्से में सौ दो सौ रुपए आ ही जाते थे। वेतन बढ़ा तो यह रकम पांच सौ रुपए तक पहुंच गई। बेटा जब छुट्टी पर घर आता था तो आस पडौस की कुछ ऐसी घटनाओं को सुनाता था। मसलन उसके पडौसी टीचर ने अपनी मां को दिल्ली बुला लिया है और उसकी पत्नि उसी से घर का सारा काम करवाती है। नौकर को छुट्टी दे दी है। एक दूसरे अधिकारी ने मां से तंग आकर उसे घर से ही निकाल दिया। वह सड़कों पर पागलों की तरह घूमती है। बगल वाली आंटी अपनी सास को छोटी छोटी बातों पर झाड़ू से पीट देती है। कुछ ऐसी ही बातें।
मां के दिमाग में आज वे सारी बातें ताजा हो रही हैं। कुछ महिलाएं उसे भी बताया करती थीं कि बेटे नौकरी लगने के बाद पत्नि के गुलाम हो जाते हैं। वे सिर्फ अपने और अपने बच्चों के बारे में ही सोचते हैं और दिल्ली मुंबई जैसे शहर में रहकर तो वहां का पानी लग जाता है। आज मां की समझ में सब आ रहा है और वह सोच रही है क्या से क्या हो गया देखते – देखते।

©चंद्रवीर सोलंकी “निर्भय”
कागारौल, आगरा, उ.प्र.
मोब. 6396890238

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