गन्‍नू बाबू का जलवा – गन्‍नू ग्‍लोबल हो गए

गन्‍नू बाबू का जलवा-गन्‍नू ग्‍लोबल हो गये।

संपादकीय: गन्‍नू बाबू का जलवा-गन्‍नू ग्‍लोबल हो गये

संपादकीय: गन्‍नू बाबू का जलवा-गन्‍नू ग्‍लोबल हो गये

गन्‍नू बाबू अब बड़े हो गए हैं! पूरे तीन साल के! मोहल्ले में अब उनका जलवा है। अरे भइया, अब वो कोई आम बालक थोड़े हैं, अब तो वो अंग्रेजी स्‍कूल में पढ़ने जाने लगे हैं! मतलब, अब वो ‘ए फॉर एप्पल, बी फॉर बॉल’ बोलने लगे हैं। मोहल्ले में जब उनकी मम्‍मी किसी से बतियाती हैं, तो खास अंदाज में ऐलान करती हैं— “हमारे गन्‍नू बाबू अब स्‍कूल जाने लगे हैं!” और सुनने वाला “वाह-वाह!” करता हुआ नजरें उठा लेता है, जैसे किसी महान उपलब्‍धि का जश्न मना रहा हो।लेकिन गन्‍नू बाबू खुद परेशान हैं। सुबह तो उनकी नींद ही नहीं खुलती, जबरदस्ती आँखे मलते-मलते उन्‍हें तैयार किया जाता है। आधी नींद में आधी ब्रेड खाकर, टीफिन हाथ में पकड़ाकर, ऑंख बंद किए स्‍कूल वैन में बैठा दिया जाता है। और स्‍कूल पहुँचते ही बिना देखे— “गूड मॉर्निंग मैडम!” बोलने लगते हैं।

घर में तो अभी वह ठीक से बैठ भी नहीं पाते, खाते भी नहीं। मम्‍मी को उनकी थाली में खाना रखकर उनके आगे मोबाइल रखना पड़ता है। कार्टून देखते-देखते ही कौर मुँह में जाता है। गन्‍नू बाबू का मन मोबाइल पर कार्टून देखने में, मोबाइल को पानी में डालकर एक्सपेरिमेंट करने में, और उसकी बैटरी निकालने में ज्यादा लगता है। कभी-कभी मोबाइल को चार्जर में लगाकर छोड़ देते हैं, फिर जाँचने लगते हैं कि बिजली का झटका लगता है या नहीं।पहले उनकी शैतानियों का एक अलग ही स्‍तर था— कुर्सी के नीचे छुप जाना, मिट्टी में अपने हाथ काले कर लेना, बिल्‍ली की पूंछ खींच देना— लेकिन अब बच्‍चों वाली हरकतें करने की इजाजत नहीं है। अब बाहर धूल में खेलने की कोशिश करते हैं, तो पापा का पारा परवान चढ़ जाता है। मम्‍मी तो पीठ पर धमाधम करके अपने वाडी बिल्‍डर होने का एहसास करा देती हैं।

अब तो गन्‍नू बाबू घर में भी चैन से नहीं रह सकते। दो मिनट के लिए मोबाइल छीन लिया जाए, तो पूरे मोहल्ले में ऐसा समाँ बंध जाता है, जैसे बिजली चली गई हो। उनकी दादी अगर नानी तेरी मोरनी को मोर ले गया या काठी का घोड़ा गाना नहीं सुनाती, तो बेचारे दिन भर मोबाइल पर कार्टून और गाने ही देखते रहते हैं। अब लोरी भी ‘बेबी शार्क डू डू’ बन चुकी है।दोपहर में जब माँ उनको सुलाने की कोशिश करती हैं, तो गन्‍नू बाबू छुपने के नए-नए बहाने ढूँढ़ते हैं। कभी अलमारी में घुस जाते हैं, तो कभी परदे के पीछे। और अगर गलती से भी नींद आ गई, तो उठने के बाद सबसे पहला सवाल होता है— “मेरा मोबाइल कहाँ है?”स्‍कूल जाने का सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि गन्‍नू बाबू की भाषा में परिवर्तन आ गया है। अब वो “मम्‍मी पानी दो” नहीं कहते, बल्कि “मॉम, वाटर!” बोलते हैं। घर में अब हिंदी बोलना थोड़ा शर्म की बात हो गई है। पड़ोस की चाची को जब गन्‍नू बाबू ने ‘हाउ आर यू?’ कहा, तो चाची की आँखें इतनी बड़ी हो गईं कि लगता था अब गिर ही पड़ेंगी!मम्‍मी-पापा को अपने बच्‍चे की इस ‘अंग्रेजियत’ पर बहुत गर्व है। मोहल्ले में जब कोई उनसे पूछता है, “भाभी जी, गन्‍नू बाबू कैसे हैं?” तो वह तुरंत जवाब देती हैं, “गुड, वेरी गुड!” लेकिन उन्‍हें यह नहीं दिखता कि गन्‍नू बाबू पहले जितने खुश थे, उतने अब नहीं हैं।

बचपन जो खेल-कूद और मस्‍ती में बीतना चाहिए, वह किताबों के बोझ के नीचे दब रहा है। माँ-बाप यह सोच रहे हैं कि उनका बेटा बचपन से ही पढ़ाई में आगे रहेगा, लेकिन उन्‍हें यह नहीं दिखता कि कहीं वह मानसिक और शारीरिक रूप से पीछे न रह जाए।हम जब कक्षा 6 में पहुँचे, तब अंग्रेजी की किताब देखने को मिली। पाँच साल की उम्र तक तो दादी-बाबा की गोद में ही हमारा स्‍कूल था। तब तक न कोई टेंशन थी, न ही कोई होमवर्क। दिनभर गली में खेलते-कूदते थे, दादी की कहानियों में राजा-रानी से मिलते थे, और बाबा की गोद में चढ़कर दुनिया को समझते थे। लेकिन अब तीन साल के बच्‍चों को स्‍कूल भेजकर उन पर पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाता है।कहते हैं कि अगर बचपन किताबों और क्‍लासरूम की चारदीवारी में ही बीत गया, तो आगे चलकर यही बच्‍चे जिन्‍दगी के असली खेल में पीछे रह जाएंगे। किताबें जरूरी हैं, लेकिन खेल और अपनापन भी उतना ही जरूरी है। बचपन लौटकर नहीं आता, लेकिन गन्‍नू बाबू का जलवा बरकरार है! अंग्रेजी स्‍कूल की वर्दी में जब वो मोहल्ले से गुजरते हैं, तो सब लोग सम्‍मान में गर्दन झुका लेते हैं— आखिर, गन्‍नू बाबू अब ‘ग्‍लोबल’ हो गए हैं!


संपादक परिचय

अखंड गहमरी, साहित्य सरोज के संपादक हैं। व्यंग्यात्मक लेखन में विशेष रुचि रखते हैं और समकालीन हिंदी साहित्य के चर्चित हस्ताक्षरों में से एक हैं। आप साहित्य, संपादन और सामाजिक विषयों पर निरंतर सक्रिय हैं। साहित्‍यकारों को मंच प्रदान करना उनकी आदत है

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