सनातन धर्म में सावन महीने का विशेष महत्व है। यह महीना भगवान शिव की पूजा और आराधना के लिए समर्पित होता है। सावन के दौरान कांवड़ यात्रा की परंपरा अत्यंत प्राचीन और श्रद्धा से जुड़ी हुई है। भक्तगण गंगा नदी से जल भरकर अपने-अपने गांव या शहर के शिवालय में शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं। यह परंपरा प्रमुख रूप से दो क्षेत्रों में अधिक देखी जाती है—पहला, बिहार के सुल्तानगंज से झारखंड के देवघर तक और दूसरा, हरिद्वार से विभिन्न क्षेत्रों की ओर जाने वाली यात्रा।
कांवड़ यात्रा की मूल भावना भक्ति, संयम, शांति और सेवा पर आधारित रही है। श्रद्धालु गंगा जल भरते हैं, उसका विधिवत पूजन करते हैं और फिर “बोल बम” के जयघोष के साथ पैदल यात्रा शुरू करते हैं। यह यात्रा तन-मन को पवित्र करने वाली, आत्मा को साधने वाली होनी चाहिए, ऐसी कि देखने वाले भी प्रेरित हो जाएं—काश हम भी इस पुण्य कार्य में सहभागी होते। परंतु अब स्थिति बदल गई है।
आज कांवड़ यात्रा का स्वरूप कुछ ऐसा हो गया है कि इसे देखकर सनातन धर्म के अनुयायी भी आशंकित हो जाते हैं। सड़क के किनारे चल रहे कांवड़ियों के पास से अकेले गुजरने में लोग डरने लगे हैं। यह भय व्यर्थ नहीं है, क्योंकि कई बार मामूली बातों पर कांवड़िये भड़क जाते हैं और हिंसा का रूप ले लेते हैं। यही कारण है कि अब इस धार्मिक यात्रा का मज़ाक उड़ाया जाने लगा है, और लोग इससे जुड़े प्रश्न उठाने लगे हैं।
रेल यात्रा के दौरान भी यह स्थिति देखी जाती है। कई कांवड़िये बिना टिकट ट्रेन में चढ़ जाते हैं, आरक्षित सीटों पर जबरन कब्जा कर लेते हैं, और मना करने पर यात्रियों के साथ अभद्रता या मारपीट पर उतर आते हैं। चाहे सामान्य बोगी हो या वातानुकूलित डिब्बा, इन तथाकथित शिवभक्तों की मनमानी हर जगह देखी जा सकती है। रेल प्रशासन भी अक्सर इनकी भीड़ के आगे असहाय नजर आता है। क्या कांवड़ यात्रा के नाम पर शिव भक्तों को उपद्रव का लाइंसेस मिल गया है। आप धर्म करने जा रहे हैं। पुण्य प्राप्त करने जा रहे हैं, ऐसे में आप यात्रा व्यय नहीं करेगें। आप दूसरों को परेशान करेगें। यह कैसी शिव भक्ति है आपकी। सनातन धर्म सेवा का धर्म है। इसकी पहचान इसका सेवा भाव है न कि दूसरों को परेशान करना।
सड़क मार्ग की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। तेज़ डीजे की ध्वनि पर नाचते-गाते, अक्सर मर्यादाओं को लांघते हुए ये जत्थे कब आक्रामक हो जाएं, कोई नहीं कह सकता। यदि किसी वाहन का हॉर्न बज जाए या हल्की सी भी टक्कर हो जाए, तो इनका गुस्सा बेकाबू हो जाता है। दुकानदार से मामूली विवाद हो, या प्रशासन द्वारा कोई अनुशासनात्मक निर्देश दिया जाए, तो इनका रौद्र रूप सामने आ जाता है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है—क्या यही है सनातन धर्म की मर्यादा?
कांवड़ यात्रा में उपद्रव मचाने वालों में अधिकतर 20 से 30 वर्ष की उम्र के युवक होते हैं। उनके लिए यह यात्रा सिर्फ डीजे पर नाचने और उन्माद में खो जाने का माध्यम बन चुकी है। वे भूल जाते हैं कि धर्म आत्मसंयम, सेवा, करुणा और मर्यादा की बात करता है। इनके व्यवहार का परिणाम यह हो रहा है कि सनातन धर्म की छवि धूमिल हो रही है।
आजकल सनातन धर्म और इसके अनुयायियों को समाज में नकारात्मक दृष्टि से देखा जा रहा है। ब्राह्मण, राजपूत एवं अन्य सवर्ण जातियों को मनुवादी, दंभी और उत्पीड़क जैसी उपाधियों से नवाज़ा जा रहा है। धार्मिक यात्राओं और परंपराओं का बहिष्कार हो रहा है। लेकिन सवाल यह है कि अगर केवल सवर्ण समुदाय के लोग ही इन यात्राओं में भाग लेते हैं, तो हरिद्वार में ही हर वर्ष 3–4 करोड़ की भीड़ कहाँ से आती है? वर्ष 2023-24 में हरिद्वार में 4 करोड़ कांवड़िये आए थे, और 2025 में यह संख्या 5 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है। देवघर में प्रतिदिन 5 लाख से अधिक श्रद्धालु जलाभिषेक कर रहे हैं। काशी विश्वनाथ में भी प्रतिदिन लाखों की संख्या में भक्त उमड़ रहे हैं।
क्या ये संख्याएँ केवल सवर्णों की हैं? निश्चित ही नहीं। यह संकेत करता है कि यह यात्रा समूचे हिंदू समाज की सहभागिता से सम्पन्न होती है।तो फिर यह उपद्रवी कौन हैं? क्या यह एक संगठित साजिश है सनातन धर्म की छवि बिगाड़ने की? क्या यह धार्मिक वेश में छिपे असामाजिक तत्वों का सुनियोजित प्रयास है जिससे हिंदू समाज को भीतर से विभाजित और बाहर से बदनाम किया जा सके?
इन प्रश्नों पर समाज, धर्माचार्य, प्रशासन और आम जनता को गंभीरता से विचार करना होगा। कांवड़ यात्रा की मूल भावना को पुनर्स्थापित करना होगा। शिवभक्त की पहचान भक्ति, सेवा, धैर्य और करुणा से होती है—न कि भय और उत्पात से। हमें शिवभक्ति के नाम पर धर्म को कलंकित करने वालों को पहचानना और रोकना होगा। तभी सनातन धर्म की मर्यादा और गरिमा सुरक्षित रह सकेगी।
लेखक साहित्य सरोज पत्रिका के संपादक एवं प्रकाशक है। 9451647845
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