शिक्षामित्रों के नेता शिक्षामित्रों के हितैसी या दुश्‍मन

संपादकीय: शिक्षामित्रों के नेता – शिक्षामित्रों के हितैषी या दुश्‍मन?

उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्र योजना की शुरुआत 1999 में हुई थी, जब राज्य सरकार ने प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए 11 महीने की संविदा पर बारहवीं पास युवाओं की नियुक्ति का आदेश जारी किया। उसके बाद से लेकर 25 जुलाई 2017 तक शिक्षामित्रों ने अपने जीवन तमाम उतार चढाव देखे। कुछ खुशियों के बाद शिक्षामत्रों के जीवन में ऐसा अधेरा आया जो कि दूर होने का नाम ही नहीं ले रहा है। आखिर इसके पीछे जिम्‍मेदार कौन है, कौन है शिक्षामित्रों की इस त्रासदी का असली जिम्‍मेदार इस बात को समझने से पहले हमें शिक्षामित्रों के इतिहास की तरफ नज़र डालनी होगी।

26 मई 1999 – 11 महीने की संविदा पर शिक्षामित्र नियुक्ति।
2001–2010 – मानदेय बढ़ा, लेकिन स्थिति जस की तस रही।
4 अगस्त 2009 – शिक्षा का अधिकार कानून लागू।
2010–2015 – प्रशिक्षण, समायोजन, कोर्ट केस, और अंततः समायोजन रद्द।
25 जुलाई 2017 – सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षामित्रों का समायोजन रद्द किया। साथ ही कोर्ट ने राहत देते हुए शिक्षामित्रों को तत्काल न हटाने का फैसला किया। कोर्ट के कहा, शिक्षामित्रों को शिक्षक भर्ती की औपचारिक परीक्षा (टीईटी) में बैठना होगा और उन्हें लगातार दो प्रयासों में यह परीक्षा पास करनी होगी।
26 जुलाई 2017 लखनऊ मे शिक्षामित्रों का आन्‍दोलन
12 सितम्‍बर 2017 से दिल्‍ली में शिक्षामित्रों का आन्‍दोलन।
15 सितम्‍बर 2017 को संसद का घेराव करने पर गिरफ्तार व आन्‍दोलन खत्‍म २२ सितम्बर को 2017 को शिक्षामित्रों को पीएम मोदी से मिलने की अनुमति मिल गयी थी, लेकिन उनकी पीएम के व्यस्थ कार्यक्रम के चलते भेंट नहीं हो पायी। शनिवार को शिक्षामित्रों के प्रतिनिधिमंडल को पास देकर डीरेका के गेस्ट हाउस में बुलाया गया था, जिससे पीएम मोदी से उनकी भेंट करायी जा सके। इसी बीच पीएम मोदी पशुधन मेला का उद्घाटन करने के बाद शहंशाहपुर की जनसभा को संबोधित करने चले गये थे। जनसभा के दौरान ही वहां पर उपस्थित ३५ महिला शिक्षामित्रों ने हंगामा करके नारेबाजी की। शिक्षामित्रों ने मांग पूरी करो के नारे लगाये। सभा स्थल में काफी पीछे रीना सिंह के नेतृत्‍व मे नारे बाजी हुई।

आपने पूरा शिक्षामित्रों का इतिहास देख अब देखते हैं कि शिक्षामित्रों की वास्‍तविक स्थित क्‍या था। चूकि शिक्षामित्रों की भर्ति किसी परीक्षा के आधार पर न नहीं होकर अंक-तालिका के वेटेज के हिसाब और वर्तमान ग्राम पंचायत की संतुति के आधार पर होनी थी, इसमें जैसा प्रधान वैसी न्‍युक्ति हुई। वर्ष 2001 मे अभी ग्राम पंचायत में सदस्‍यों द्वारा ग्राम प्रधान पर अविश्‍वास का नियम लागू था इस नियुक्ति में जम कर ग्रामीण राजनीति चली। इससे नियुक्‍त शिक्षामित्रों के खिलाफ अचयनित लोगों ने भी मोर्चा खोला। लेकिन इस सब के बीच दो अच्‍छी बातें भी हुई पहली तो बंद पडे प्राथमिक विद्यालय खुलने लगे वहां बच्‍चों की संख्‍या में इजाफा हुआ दूसरी तरफ एक निश्‍चित मानदेय का फायदा उठा कर कमजोर आर्थिक स्थित वालों ने विभागी अध्‍यापकों के सहयोग से उच्‍च शिक्षा ग्रहण कर अपने आपको स्‍थाई अध्‍यापक/अध्‍यापिका के रूप में नियुक्‍त करा लिया।

कहा जाता है कि जब किसी कुटिया में योगी आते हैं तो महायोगी भी जन्‍म लेते हैं, वैसा ही शिक्षामित्रों के साथ हुआ। नियुक्ति के साथ-साथ इनको स्‍थाई कराने के लिए धीरे-धीरे नेतागिरी भी शुरू हो गई। शिक्षामित्रों के नेता कुकुरमुत्‍ते की तरह जन्‍म लेते गये।वर्ष 2009 में जब शिक्षामित्रों की भर्ती बंद हुई उस समय तक शिक्षामित्रों की संख्‍या डेढ लाख से ऊपर जरूर पहुँच गई थी लेकिन तब तक इनके दुश्‍मनों की संख्‍या में बी0एड0एड, बीटीसी जैसे अभ्‍यर्थी भी आ चुके थे।और शिक्षामित्रों पर राजनैतिक दलों की निगाहे भी थी। भाजपा में नियुक्ति, बसपा में बीटीसी कोर्स कराकर अध्‍यापक बनाने की प्रतिक्रया, अब बारी अखिलेश के सपा सरकार की थी। प्रशिक्षण की खुशी में चंद शिक्षामित्र नेताओं ने जिन्‍होनें शिक्षामित्रों को एक दुधारू गाय समझ लिया था वह जानते थे कि अगर सरकार ने वर्ष 2009 में आई श्क्षिा नीति के अनुसार टैट करवा दिया तो उनकी राजनीति खत्‍म हो जायेगी। इस लिए वह बार बार सरकार के कहने और जानकार शिक्षामित्रों के कहने के बाद भी सी टैट कराने का विरोध किया।

अब शिक्षामित्र नेता चंदें के पैसे से इतने बढ़ चुके थे कि सभी को लगने लगा कि वह कम से कम प्रदेश के 10 लाख वोटरों का एक समूह हैं। इस लिए कोई सरकार का मुखिया इनको छूना नहीं चाहता था। वर्ष 2015 में समायोजन की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही बी0एड वालो ने विरोध किया। सभी जानते थे कि नई शिक्षा नीति के अनुसार योग्‍यता जरूरी है, अनुभव और संवदेना कही काम नहीं आयेगी। परन्‍तु दो सालों में टैट की परीक्षा के लिए नेता विरोध करते रहे। शिक्षामित्रों के नेता जिले,गॉंव स्‍तर पर अपने प्रतिनिधि बनाने लगें। अपने अपने संगठन का प्रचार करने लगे, महत्‍वाकांक्षा इतनी बढी़ की कि इनमें कुछ विधायकी का सपना देखने लगे। एक दूसरे संगठन को उल्‍टा सीधा बोलना, उनके कार्यो का मज़ाक उड़ाना इन नेताओं की आदत बन गई थी। यह चंदाचोर नेता अपने चंदे के पैसे में इतना चूर हुए कि जब मामला हाईकोर्ट पहुँचा तब भी एक मत और एक साथ लडाई न लडकर अगल अगल वकील और अलग अलग मुकदमा दर्ज कराने लगें। फरमान जारी होने लगे कि इतना चंदा लगेगा। दूसरी तरह इनके विरोधी एकजुट होकर इनके खिलाफ लडाई लडते गये और जीतते गये। शिक्षामित्र नेताओं ने बस शिक्षामित्रों को बरगालने का ही काम किया।

स्थित यह हो गई थी कि शिक्षामित्र न अपने गॉंव समाज के नज़र में ही नेक बन पाये और न अपने हक और अधिकार की लड़ाई ही सही से लड़ पाये। चूकि शिक्षामित्रों मे अधिकांश सामान्‍य घरों से थे, वह अपनी जीवकोपार्जन की समस्‍या मे ही उलक्षे रहे वह समझ ही नहीं पाये कि उनके हितैशी बनने वाले नेता ही उनके प्रमुख दुश्‍मन बनते जा रहे हैं। चंदे के पैसे से एैश करने वाले नेताओं पर सरकार की भी थी निगाह थी। वह जान रहे थे कि नेता अब इस कदर फंस चुके है कि जरा सा जॉंच का डर दिखा कर उनको शांत कराया जा सकता है। मगर इस बात की भनक तक आम शिक्षामित्रों को नहीं थी। उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों के संघर्ष की कहानी केवल सरकार और अदालतों से नहीं, बल्कि उनके अपने नेतृत्व से भी जुड़ी है। बीते एक दशक में जितनी बार शिक्षामित्रों को उम्मीद की किरण दिखी, उतनी ही बार नेतृत्व ने उन्हें निराश किया।

अगले भाग में हम खोलेंगे:

  • शिक्षामित्र नेताओं की गंदी राजनीति का एक-एक राज
  • भीतरघात की परतें और जड़ें काफी गहरी
  • सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग वकील और चंदा वसूली का खेल
  • धरनों की रणनीति: नाटक ज़्यादा, नीति कम
  • नेताओं के उत्थान का बना चंदा
  • वोट बैंक बनाकर राजनीतिक छवि निर्माण की चालें

आम शिक्षामित्रों को सोचना होगा:

  • कफन में लिपटने के बाद भी नेतृत्व की जवाबदेही क्यों नहीं तय हुई?
  • आखिर कुछ तो ऐसी बात है जिस वज़ह से सकरार जरा सा टस से मस नहीं हो रही है?
  • कुछ तो बात है जब सरकार इनको देने के नाम पर पीछे हट रही है, सोचना तो दूर चर्चा नहीं करती?
  • एकजुटता क्यों टूटी?
  • पारदर्शिता क्यों नहीं रही?
  • नतीजे क्यों नहीं आए?
  • नेता धरने से क्यों भागे?

सच्चा नेतृत्व संकट में पहचाना जाता है। अब वक्त है शिक्षामित्रों के नए नेतृत्व और आत्मविश्वास के साथ उठने का। जब आम शिक्षामित्र ठान लेगा, तो खोया हुआ सम्मान लौटेगा। आपके सवालों के एक एक बिन्‍दू का जबाब देगें हम अगले सप्‍ताह


संपादक परिचय

अखंड गहमरी, साहित्य सरोज के संपादक हैं। शिक्षामित्र आंदोलन और सामाजिक विषयों पर शोधपूर्ण और व्यंग्यात्मक लेखन के लिए प्रसिद्ध हैं। 1999 से अमर उजाला से जुड़े रहे और शिक्षा-नीति पर विशेष समझ रखते हैं।

संपर्क: 94516478545

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