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"साहित्य सरोज त्रैमासिक पत्रिका - कविता, कहानी, लेख, शोध पत्र, बाल उत्‍थान, महिला उत्‍थान, फैंशन शों, शार्ट फिलम और विशेष आयोजन के लिए पढ़ें। संपादक: अखण्ड प्रताप सिंह 'अखण्ड गहमरी

उद्धव देवली की कहानी देते रहो

साहित्‍य सरोज कहानी प्रतियोगिता 2025, कहानी पर कमेंट जरूर देंं।
उत्तराखंड के एक छोटे से नगर में दीनदयाल नाम का व्यक्ति व्यापार करता था । वह विभिन्न प्रकार की सामग्री, खाने-पीने से लेकर आवश्यकता की सभी वस्तुएं अपनी दुकान में रखता था | वह मेहनती व अपने कार्य के प्रति पूर्णरूप से समर्पित था लेकिन उसमें सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह बहुत ही कृपण था, या ने इतना कि उसका बस चलता तो नाप तोल में भी कृपणता कर देता लेकिन तराजू के आगे वह लाचार था | उसकी कंजूसी देखिये- यदि किसी ग्राहक ने यह कह दिया कि लाला जी इस सामान के लिए कोई अखबार पैकिंग के लिए दे दो, तो वह चिढ़ कर बोलता यार मैं अखबार थोड़े ही बेचता हूँ ?| मेहनत व पूर्ण समय देने के बाद भी उसका कारोबार संतोषप्रद नहीं चल रहा था, ऊपर से आपूर्ति कर्ताओं की देन दारियां बढ़ते जा रही थी | वह समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है ?| यह बात उसने अपनी पत्नी को भी बतायी लेकिन पत्नी कोई राय देती तो वह उसको भी झिड़क देता |
एक दिन दीनदयाल के बचपन का दोस्त, रामप्रसाद उसकी दुकान में आया |  रामा-रूमी के बाद दोस्त ने हाल-चाल पूछा और कहा -और सुनाओ दोस्त ! कारोबार कैसा चल रहा है ?| दीन दयाल दुखित मुद्रा में बोला-यार सब ठीक है लेकिन मैं जितनी मेहनत करता हूँ उसके अनुसार कारोबार में घाटा ही हो रहा है ऊपर से देनदारी भी चढ़ गयी है, समझ में नहीं आता क्या करूँ ? | राम प्रसाद दोस्त की आदतों से भली भांति परिचित था, उसे पता था कि वह कंजूसी के कारण किसी की बात नहीं मानता | राम प्रसाद के मन में एक विचार आया कि दोस्त को किसी विद्वान से मिलाना उचित रहेगा जो उसे कोई उचित राय दे सके | राम प्रसाद ने कहा- यार मैं एक बाल ब्रह्मचारी संत को जानता हूँ वे प्रतिवर्ष श्री बद्रीनाथ के कपाट खुलने पर वहाँ दर्शन हेतु जाते हैं तथा श्री बद्रीनाथ  के पास स्थित कुटिया में चार माह तक निवास करते हैं | वे कई वर्षों से पैदल यात्रा करने वालों को भोजन व दवाइयाँ देकर वहाँ पर सेवा करते रहते हैं | कभी-कभी वे आते-जाते समय यहाँ भी पीपल के पेड़ के नीचे रात्रि विश्राम करते हैं | मैं उनको जानता हूँ ,तुम्हें भी उनसे मिलवा दूंगा शायद तुम्हारी समस्या का वे समाधान कर दें| अपनी स्थिति को देखते हुए दीनदयाल ने कहा, यदि ऐसा है तो ठीक है |
यात्रा काल शुरू होने को था इसलिए राम प्रसाद संत की प्रतीक्षा करने लगा | एक दिन वे संध्या काल को पहुँच गए | राम प्रसाद के द्वारा जो सेवा. संत की हो सकती थी करने लगा| संत ने हाल चाल पूछा कैसे हो राम प्रसाद ? राम प्रसाद ने उनसे आशीर्वाद लेते हुए कहा- महाराज मेरा एक बाल सखा है ,वह कारोबार करता है लेकिन वह हानि में चल रहा है | यदि आप उचित समझे तो मैं उसे बुला देता हूँ | महाराज ने कहा इस समय नहीं, उसे पंद्रह दिन बाद मेरी कुटिया में भेज देना |
पंद्रह दिन बीतने पर रामप्रसाद ने अपने दोस्त दीनदयाल को महाराज जी की कुटिया में भेज दिया और कहा – मैंने तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है लेकिन तुम एक काम करना-थोड़ा फल इत्यादि व कुछ दक्षिणा लेकर जाना |  ठीक है कहकर एक दिन दुकान बंद कर  दीनदयाल, महाराज जी के पास पहुँचा तथा चरण स्पर्श कर जो फल लाया था उन्हें भेंट किया लेकिन रुपये नहीं दिए | महाराज ने फल पकड़ते हुए कहा-ठीक है, देते रहो|
कुटिया में कई पैदल चलने वाले यात्री भोजन कर रहे थे तथा जो बीमार थे बाबा जी स्वयं उनका इलाज कर रहे थे | दीनदयाल से भी बाबा जी ने भोजन करने हेतु कहा, उसने भोजन किया और फिर महाराज जी के निकट खड़ा हो गया | महाराज जी ने कहा और तो सब ठीक है न ?अच्छा तुम इस समय जाओ बाद में गाड़ी नहीं मिलेगी | उसी समय एक व्यक्ति आया और कुछ सामग्री बाबा जी को देकर पैर छूने लगा | बाबा जी ने कहा-“ठीक है, देते रहो” | राम प्रसाद यह  सब देख-सुन रहा था  | दीनदयाल को रामप्रसाद पर बड़ा गुस्सा आ रहा था कि बाबा जी कुछ कहेंगे या मेरे व्यवसाय से संबंधित  बात करेंगे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ अब बाबा जी मुझे जाने को कह रहे हैं |फिर न जाने कैसे उसके मन में एक विचार आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बाबा जी को मेरी  जेब में रखे रुपयों का ज्ञान हो गया हो | यदि ऐसा हुआ तो बड़ी समस्या खड़ी हो जायेगी | इस डर से उसने जेब में से रुपये निकाले और बाबा जी को दे दिए | इसके उत्तर में भी उन्होंने कहा-“ठीक है, देते रहो” | और वह वहाँ  से घर को आ गया लेकिन राम प्रसाद पर उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ| वह सोचने लगा एक तो आज दिनभर दुकान बंद रखी और मिला भी कुछ नहीं उलटे रुपये खर्च हो गए| इन्हीं बातों को सोचते हुए उसे पता ही नहीं चला कि वह अपने नगर में पहुँच गया है | कंडक्टर ने कहा- उतरो  भाई ! तुम्हारा स्टेशन आ गया है|
दीनदयाल गुस्से में स्टेशन से सीधे रामप्रसाद के घर गया और अपने साथ उसके घर चलने को कहा |रामप्रसाद बोला क्या बात है ?बता तो सही| वह बोला -पहले मेरे साथ चल, फिर उसके बाद वह चुप हो गया |रास्ते में कोई बात नहीं की |घर पहुँच कर वह रामप्रसाद पर आग बबूला हो गया ,क्यों भेजा तुमने मुझे वहाँ, रुपये भी गए, दुकान  भी बंद की और रास्ते की परेशानी सो अलग |बाबा ने न तो कोई मंत्र दिया और न कोई वस्तु ,तुमने तो कहा था वे सारी समस्या हल कर देंगे| अब बता मैं खाली हाथ क्यों आया ?वहीं पर दीनदयाल की पत्नी भी बैठी सब सुन रही थी| वह बोली अपने दोस्त व बाबा जी पर विश्वास रखो ,थोड़ा शांत हो जाओ, पहले चाय-पानी पी लो फिर सब बातें हो जायेंगी।
रामप्रसाद सोचने लगा, ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि बाबा जी ने कुछ न कहा हो क्यों कि मैंने दीनदयाल की समस्या विस्तार से बता दी थी |चाय-पानी पीने के बाद दीनदयाल थोड़ा शांत हुआ |अब रामप्रसाद ने कहा अब गुस्सा थूको और याद करो ,कोई ऐसी बात बताओ जो बाबा जी ने तुमसे कही हो | अरे क्या बताऊँ, ऐसी कोई बात नहीं बतायी, हाँ मैंने जब फल दिए तब उन्होंने कहा -ठीक है, देते रहो| फिर घर आते हुए जब मैंने दक्षिणा दी तब भी उन्होंने कहा- ठीक है, देते रहो| और हाँ याद आया, एक और व्यक्ति ने उन्हें कुछ सामग्री भेंट की उसे भी उन्होंने कहा- ठीक है, देते रहो| बस इसके सिवा कुछ भी नहीं कहा।
अब रामप्रसाद सोच में पड़ गया, ” ठीक है, देते रहो ” में क्या उपदेश छिपा हो सकता है ? चूंकि वह विद्वान व नेक चाल चलन का स्वाभिमानी व्यक्ति था, धर्म कर्म में पूरी आस्था रखता था इसलिए उसकी समझ में बाबा जी का संदेश शीघ्र ही आ गया |उसने विचार किया-बाबा जी ने ठीक ही तो कहा – “ठीक है, देते रहो”| दीनदयाल मेहनती तो है लेकिन बहुत कृपण व्यक्ति है |किसी गरीब असहाय की सहायता ,भूखे को  भोजन, ग्राहकों को आत्म संतुष्टि देना, किसी जनकल्याण के कार्य हेतु तन-मन-धन से सहायता करना यह जीवन में उसने सीखा ही नहीं ,इसका यही  आशय है कि जहाँ भी सहायता की आवश्यकता हो दीनदयाल को वहाँ निर्मल भाव से सहायता करनी चाहिए तभी उसका भला  होगा |
रामप्रसाद ने कहा देखो  भाई दीनदयाल, तुम मेरे बाल सखा हो | मैं सदा ही तुम्हारी भलाई चाहता हूँ| तुम मेरी राय मान कर बाबा जी से मिलने गए यह बात भी ठीक है लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि तुम बहुत कंजूस व्यक्ति हो, यह मैं स्पष्ट रूप से कह रहा हूँ, तुम नाराज होते हो तो हो जाओ| अब जो बाबा जी का संदेश है उसे सुनो “बाबा जी का कहना यह है कि कमाई करो पर देते भी रहो या ने समाज में असहाय , गरीब, जरूरतमंद की सहायता कर उन्हें अपनी कमाई में से कुछ देते रहो तभी तुम्हारा भी भला होगा| मेरी यह बात भी एक बार और मान लो और अब कंजूसी छोड़ो  तथा  अभी से ईमानदारी से कारोबार के साथ, सहायता करना भी शुरू करो|
दीनदयाल बोला ठीक है यार मैं बचपन से ही तुमसे बहुत स्नेह करता  हूँ और तुम्हारा विश्वास भी करता हूँ |अब अपनी आदतें बदलकर इसी रास्ते पर चल कर देखता हूँ |
दीनदयाल मेहनत करता साथ ही सबसे अच्छा व्यवहार करने लगा |कोई गरीब, असहाय मिलता उसकी सहायता करता, ग्राहकों की भी सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखने लगा| इस प्रकार दिन बीतने लगे |अब दीनदयाल ने देखा कि उसका कारोबार भी बढ़ने लगा है व देनदारी  भी कम होने लगी हैं | एक वर्ष  में तो उसकी सारी देनदारी  समाप्त हो गयी व उसे लाभ होने लगा |
एक दिन रामप्रसाद उससे मिलने, दुकान पर आया तो देखा कि ग्राहकों की लाइन लगी है तथा  दो कर्मचारी भी काम पर लगे हैं ।दीनदयाल सभी से बड़े प्यार से बातें कर रहा है यहाँ तक कि एक गरीब को वह कह रहा है, भाई  इस समय पूरे पैसे नहीं तो कोई बात नहीं फिर दे देना | रामप्रसाद बिना दीनदयाल को मिले आत्म संतोष के साथ बाजार की ओर चला गया ।

उद्धव देवली
कर्णप्रयाग जिला-चमोली (उतराखंड)
मोबाइल -९०१२१३८९२४

 

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