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यादों की ज्योतिर्मय दिवाली

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यादों के कारवाँ ने शैशव से लेकर अब तक के अनूठा दीयों का त्यौहार  दिवाली पर चिंतन की कलम ने  स्वतः ही संस्मरण में गुन दिया  है ।प्रकाश पर्व  यानी दीपोत्सव । दीयों  का प्रकाश सब का जीवन रोशन करे ।दिवाली की यादों का पिटारा दर परत दर  दिल के तहखाने से   खोल रहा है। भारतीय संस्कृति का महापर्व दीपावली को विविधता से भरे सांस्कृति देश भारत  के साथ दुनिया भी इस त्योहार को मनाती है क्योंकि जिस -जिस स्थान , विश्व के कोने में भारतीय गया वह अपने साथ भरतीय संस्कृति के संग पर्वों को भी  साथ ले गया ।
 ऋषिकेश उत्तराखण्ड मन्दिरों का नगर  , गंगा का तीर्थ , कुंभ पर्व के आध्यात्म का मेला की त्रिवेणी  के तीर्थ  क्षेत्र में  मेरे  पिता प्रेमपाल वार्ष्णेय भारत मंदिर कॉलिज के  प्राचार्य और माँ शांति देवी वार्ष्णेय शिक्षिका होने के साथ आध्यात्म और मूल्यों , संस्कृति की जड़ों से जुड़े हुए थे ।  सन 1942 में  अंग्रेज़ों के गुलाम  शासन में युवा दंपति कुछ करने की चाह में पुण्य सलिला गंगा का आशीर्वाद लेने ,जीविकोपार्जन के लिए ऋषिकेश  आए थे । जहाँ अज्ञान  ,अशिक्षा , अंधविश्वास , छुआछूत का अँधेरा छाया था जहाँ उन्होंने शैक्षिक क्रांति करके ज्ञान , शिक्षा का दीप जलाया है । शिक्षा के  प्रकाश से ऋषिकेश नगरी आलोकित तब भी और अब भी जबरदस्त  हो रही है । खुशहाल  बचपन की  दिवाली कीवअनन्त  यादें , दिल के जज्बात  स्मृति पटल से उत्साहित होकर  शब्द -शब्द लिखने को कलम मचल रही है । हम चार बहनें और तीन भाई  आपस में दोस्तों की तरह रहते थे और   हर खाने की चीज और हर बात शेयर करते थे । 

पँद्रह दिन पहले ही दिवाली की तैयारियों में जुट जाते थे । माँ कहती थी स्वच्छता में ही लक्ष्मी का वास है । यही स्वच्छता अभियान माँ -पिता ने हरिजन बस्ती में जाकर हरिजनों को साफ – सफाई का महत्त्व बताया था और  छुआछूत समाज के लिए कलंक है । समाज सेवा करके इस सामाजिक बुराई को मिटाया।हम सब मिलकर माँ के संग साफ -सफाई में हाथ बटाते थे । स्वच्छता अभियान का पाठ दिवाली पर्व के बहाने बचपन में  सीख लिया था । हमारी माँ -पिता दिवाली  उत्सव   बड़े उत्साह , उमंग , खुशी के साथ अडोस -पड़ोस के साथ मिलकर बनाती थीं  ।  पावन गंगा माँ के त्रिवेणी घाट से कुछ कदमों की दूरी पर सेठ महादेव की धर्मशाला में दस परिवार विविध वर्ण  , नस्ल  ,जाति,  संस्कृति , संप्रदाय , धर्म आदि  के लोग  भाईचारा , प्रेम , सद्भाव , समरसता  , मैत्री से रहते थे ।  इन में कोई पंजाबी , सिंधी , ईसाई , जैनी , पारसी , मुसलमान , हिन्दू आदि थे । उन सबके बच्चों के साथ हमारी अच्छी मित्रता थी । दीवाली से एक सप्ताह पहले ही  सब बच्चे मिलकर खूब चकरी , पटाके , अनार , चटरमटर छुड़ाते थे । शाम को हम सभी बच्चे गंगा जी की आरती में शामिल होते थे ।
आरती के बाद हमें प्रसाद  इलायची दाने , बताशे , बर्फी आदि भी मिलती थी ।  हम सबको प्रसाद का लालच तो रहता ही था । पुजारी जी घर के  लिए भी  प्रसाद देते थे । दिवाली के दिन खील – बतासे , मिठाई , दीपक और फूल ले के पास के रघुनाथ मन्दिर में जा के भगवान राम -सीता , लक्ष्मी – विष्णु जी की मूर्ति पर चढ़ाते थे ।पण्डित जी दीपक को जलाके देहरी को  प्रकाशित कर देते थे । गंगा जे रेतीले घाट पर रेत में पैर रख गीली रेत से सपनों का घर बनाते थे जब पैर रेत से बाहर निकालते तो कभी टूट जाता था कभी नहीं टूटता था । स्वतन्त्र मस्ती से भरा दीवाना  बचपन आज की तरह मोबाइल , घर में कैद नहीं था ।घर में सभी में दिवाली का जोश जबरदस्त रहता था । माँ , बड़ी बहन , बड़ा भाई   ही घर के कामों के रीढ़ होते  थे ।दिवाली की तैयारियाँ घर में एक महीने शुरू हो जाती थी । आज की तरह कपड़ों की ऑन शॉपिंग उस जमाने में नहीं होती थी क्योंकि माँ – बड़ी बहनें उस जमाने की फैशन डिजायनर होती थीं । वे खुद हम सातों भाई -बहनों के लिए सुंदर , खूबसूरत  नयी ड्रेस दिवाली में पहनने के लिए बनाती थीं क्योंकि नया कपड़ा पहन के  ही लक्ष्मी पूजन करना होता था ।
माँ के साथ बाजार से खील , बताशे ,कुल्हड़ , मिट्टी के दीपक , रंगोली के रंग ,  एक झाड़ू , पूजा का सामान,  लाते थे ।  घर पर तरह – तरह की मिठाइयाँ जैसे शक्करपारे , गुजिया , गुलाबजामुन  मठरी  नमकीन आदि बनती थी ।गुजिया बनाने में हम सब बच्चे माँ की मदद करते थे ।बाजार से भी मिठाइयाँ आती थी । दोस्तों ,अडोस -पड़ोस के घरों में मिठाई भरी थालियों यानी मैत्री , खुशी , सद्भवना , प्रेम   भाईचारे की मिठास का आदान -प्रदान होता था ।  कहने का मतलब है कि द्वेष  नफरत , जलन  स्वार्थ का कोई स्थान नहीं था । हमारे देश में हर साल कार्तिक अमावस्या दिवाली पर्व हर भारतीय जोर – शोर से मनाता है तो पाँच दिनों तक मनाये जानेवाला त्योहार है ।प्रथम दिन धनतेरस के रूप में माँ मनाती थी । उसी दिन माँ  – पिताजी नया बर्तन चाँदी का लाते थे जो इस बात का सूचक है कि घर में पूरे  साल लक्ष्मी बरसती रहेगी और इसी दिन सूरज ढलने के बाद देहरी पर एक दीपक जला कर रखते थे । महानगरों की फ्लेट संस्कृति में आज की पीढ़ी देहरी पूजन को जानती ही नहीं है ।  अगले दिन भोर में नहा धोकर नरक चतुर्दशी  का पर्व मनाते हैं । इसे छोटी दीवाली भी कह सकते हैं ।प्रभु श्रीकृष्ण ने इस दिन नरकासुर का वध करके 16 हजार रानियों को कैद से मुक्त किया था । स्त्रियों जा उद्धार किया था ।  उसी दिन भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धारण करके हिरण्यकश्यप का वध किया था ।
 हमारी माँ छोटी दिवाली की शाम को  एक पुराना दीपक जला के नाली पर रखती थी । नाली यानी  गंदगी का निकास करना अर्थात गन्दगी अस्वस्थता को जन्म देती है । हमें नाली को दीपक के प्रकाश की तरह आलोकित करना है ,  साफ , स्वच्छ रखना है । जिससे हमारा परिवेश – पर्यावरण , तन -मन निरोगी , स्वस्थरहे , दुर्गंध से मुक्त  रहे।अगले दिन बड़ी दिवाली यानी लक्ष्मी पूजन करने  का शुभ दिन , दीपक जलाने का दिन , उजास का पर्व । लक्ष्मी जो धन की देवी है । जीवन के लिए  धन जरूरी है । हर किसी को लक्ष्मी चाहिए । लक्ष्मी किसी के घर टिक के नहीं रहती है इसलिए लक्ष्मी को चंचला भी कहा है । परिश्रम , सत्य , उद्यम से कमाई लक्ष्मी पीढ़ियों तक सुरक्षित  रहती है । रघुवंश इसका उदाहरण है इसलिए लक्ष्मी अच्छे , सदाचारी लोगों के हाथों में रहनी चाहिए जो परहित में काम करके समाज का कल्याण करते हैं लेकिन कलयुग में लक्ष्मी जी भ्रष्टाचारियों , स्वार्थी , लोभियों पर अपनी कृपा दृष्टि दिखा रही है । ईमानदार , परिश्रमी लोग उपेक्षित हो रहे हैं ।  इसी दिन लक्ष्मी जी का जन्मदिवस है । हमारी  माँ लक्ष्मी पूजन इस श्लोक का 108 बार जाप करती थी ।   यह त्रिदिवसीय साधना लक्ष्मी प्राप्ति के लिए  है ।  दिवाली के दिन से भैयादौज तक सुबह  नहाधोकर  पीले कपड़े पहन के केसर का तिलक लगा के 108 बार स्फर्टिक मोतियों की माला से दो बार  जाप करना है ।
यह चमत्कारिक मन्त्र भाग्य को जगा देता है । माँ से सीखा यह श्लोक जाप को मैं अभी तक कर रही हूँ । यह  हर कोई कर सकता है जिसको लक्ष्मी चाहिए ।इस मंत्र को मैंने अपनी पुस्तक’  प्रांत पर्व पयोधि’  में लिखा है । जन समुदाय , समाज ने लाभ उठाया है । आज इस मंच से आप लाभ ले सकते हैं ।ॐ नमः भाग्य लक्षमी च विदमहे ।
अष्ट  लक्ष्मी च धीमहि । तन्नो प्रचोदयात । 
व्यापारी वर्ग बही –  खाते का पूजन करता है ।  क्या ही  अच्छा हो मानव भी अपने जीवन का लेखा -जोखा बनाए । आत्मनिरीक्षण करे।राग –  द्वेष से दूर मूल्यों का प्रकाश अपने अंतर में करे । दीपक प्रकाश का प्रतीक है । प्रकाश द्योतक है सत्य, न्याय , प्रेम , धर्म का । ऐसी मान्यता है जिसका घर साफ -सुथरा होगा जो दरवाजा खोल कर सोता है ।उसके घर लक्ष्मी आती है ।अखण्ड दीपक तेल का जलता है ।उस पर काजल पार के आँखों में लगाते हैं । आँखों की रोशनी बनी रहती है। मोतियाबिंद नहीं होता है ।5 दीपक घी के जलाते हैं । इसमें से पहला दीप तुलसी चोरा पर रखते हैं , दूसरा नल यानी पानी के पास  तीसरा लॉकर यानी जहाँ अर्थ का खजाना होता है चौथा मन्दिर में पांचवां दीपक चौराहे पर रखते हैं । अँधेरा  भागे और प्रकाश जगमगाए ।इसी दिन यानी त्रेता युग में प्रभु राम अपनी पत्नी  सीता , भाई लक्ष्मण के संग अयोध्या में 14 साल के वनवास के बाद लौटे थे ।इस खुशी में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाकर खुशियाँ मनायी थी । रामराज्य  की स्थापना हुई थी ।  अगला दिन नया साल या बलिप्रदा का होता है ।इसी दिन श्री कृष्ण न अपनी कन्नी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर इंद्र देव  के बरसा के प्रहार से  ब्रजवासियों को सुरक्षा प्रदान की थी । गाय , बैल गौधन को पूजा जाता है ।पाँचवाँ पर्व भैयादौज  का आता है ।बहन अपने भाई के माथे पर कुमकुम से तिलक कर दीर्घायु, स्वास्थ्य की कामना करती है । भाई का यह  तिलक स्थान यानी दर्शन केंद्र जाग्रत रहे जिससे समाज , पड़ोस की किसी भी बहन , बेटी पर कुनजर नहीं रखे । आज गली , घर में बलात्कार का दुष्कर्म नजर आ रहा है । परिवार ही अपने बेटों को मूल्यों के संस्कार देने होंगे । तभी बेटियाँ सुरक्षित रहेंगी ।

यह सारे संस्कार  बचपन में अपने माता -पिता से सीखे थे अब मेरी शादी के बाद भारतीय संस्कृतियों  को सँजोए मेरे साथ रहते हैं । मेरे संग अब ये त्यौहार मेरी बेटियों को हस्तांतरित हो गए हैं ।  भारतीय संस्कृति के पर्व , परंपराओं की विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जोड़ रही है ।हमें अपनी सोच , विचार ,चिंतन में साकारत्मकता लानी होगी ।दिवाली में हम घर को सुंदर औऱ स्वच्छ रखते हैं ।सब कुछ नया -नया घर लगता है। हम भी नए बनने  की होड़ लगी रहती है लेकिन हम पुराने  मन को नया नहीं बना पाते हैं ।  हमें अपने मन को नयी चेतना जगानी हो ।तभी हम सकारात्मक ऊर्जा से भरकर समाज देश का कल्याण कर सकेंगे  ।दिवाली पर भारतवासी पटाके नहीं जलाए क्योंकि  दमघोटू वाहनों के आवागमन से  पराली जलाने का जहरीला धुआँ मानव के स्वास्थ्य को रौंद रहा है इसलिए हम प्रदूषण नही बढ़ाएँ। चराचर के संग जान तो इंसान की जाती है ।

डॉ मंजु गुप्ता सेवा निवृत्त शिक्षिका, मुख्याध्यापिका, कवयित्री साहित्यकार , एंकर , योग प्रशिक्षिका वाशी , नवी मुंबई

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