सनातन धर्म के विभिन्न ग्रंथों में मानवीय जीवन के चतुर्दिक विकास का माध्यम षोडश संस्कार का उल्लेख किया गया है। मानव को गर्भाधान संस्कार से अन्त्येष्टि संस्कार तक षोडश संस्कार किए जाते हैं। सनातन धर्म में गर्भाधन से मृत्यु तक १६ संस्कारों होते है। षोडश संस्कार के प्रवर्तक देवता द्वारा पूजा सम्प्रदाय के तहत आस्था दर्शन , पुनर्जन्म , कर्म , माया , दर्शन , धर्म , वेदांत , योग , आयुर्वेद में शाकंभरी ,युग में संस्कार , और भक्ति का संचार कराया गया है । वेदसंहिता , वेदांग ,आरण्यक , उपनिषद् · श्रीमद्भगवद्गीता ,रामायण ·, महाभारत ,सूत्र , पुराण , गौतम स्मृति में षोडश संस्कार का बर्णन किया गया है ।
01 . गर्भाधान संस्कार – सनातन धर्म शास्त्रों में सोलह संस्कारों में प्रथम गर्भाधान है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में गर्भाधान संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये गर्भाधान संस्कार करना आवश्यक । वैदिक काल में गर्भाधान संस्कार अति महत्वपूर्ण था। 02 . पुंसवन संस्कार – गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से एवं गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार को मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर गर्भधान करना उचित है। 03 . सीमन्तोन्नयन संस्कार – सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार सौभाग्य संपन्न होना है। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना सीमन्तोन्नयन संस्कार काउद्देश्य है। संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है। 04 . जातकर्म – नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म संस्कार को करने से दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। जातकर्म संस्कार के बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। 05 . नामकरण – जन्म के ग्यारहवें दिन धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) मानने के बाद नामकरण संस्कार ग्यारहवें दिन किया जाता है। महर्षि याज्ञवल्क्य तथा ज्योतिषविदों द्वारा नामकरण संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित कहा गया हैं। मनीषियों के अनुसार नामकरण से व्यक्तित्व के विकास होता है। धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान नाम के आधार पर व्यक्ति का भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। 06 . निष्क्रमण – दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करना निष्क्रमण संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना है। मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना एवं देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत कराया जाता है।
गौतम स्मृति में 48 संस्कार , महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार , महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 और मनु स्मृति में 13 संस्कार उल्लेखनीय हैं। मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का द्योतक संस्कार हैं। संस्कार के कारण मनुष्य को योग्य एवं उचित प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। खान से निकला हुआ सोना अत्यन्त मलिन को , आग में तपाकर उसे शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार स्मृतिकारों , महर्षियों ने जीवन को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए विविध संस्कारों की व्यवस्था कर दिया है।आचार विचार और संस्कार का पारस्परिक सम्बन्ध है, इसीलिए सनातन हिन्दू संस्कृति में संस्कारों पर विशेष बल दिया गया है। गौतम स्मृति एवं महर्षि व्यास द्वारा सोलह संस्कार में गर्भाधान , कर्णवेध ,. पुंसवन , उपनयन , सीमन्तोन्नयन , वेदारम्भ , जातकर्म , केशान्त , नामकरण , समावर्तन ,. निष्क्रमण, . विवाह , अन्नप्राशन ,विवाहाग्नि परिग्रह , चूड़ाकरण का वर्णन किया गया है । व्यास स्मृति 1/13/15 के अनुसार . त्रेताग्नि संग्रह गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नाशनं वपनक्रिया॥ कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः। केशान्तः स्नानमुद्वाहो विवाहाग्निपरिग्रहः॥ त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः।
अन्नप्राशन संस्कार – संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन भक्षण जन्य दोष बालक में मलिन भक्षण दोष नाश हो जाता है। बालक 6-7 मास का होता है और दाँत निकलने से पाचनशक्ति प्रबल होने लगती है । शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के बाद माता-पिता आदि सोने या चाँदी के चम्मच से बालक को खीर आदि पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।अथर्ववेद 8/2/18 के अनुसार शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतो अंहसः॥
अर्थ – हे बालक ! जौ और चावल तुम्हारे लिये बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएँ यक्ष्मा नाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं। चूड़ाकरण संस्कार – चूड़ाकरण संस्कार में फल बल, आयु तथा तेज की वृद्धि करना है। इसे प्रायः तीसरे, पाँचवें या सातवें वर्ष में अथवा कुल परम्परा का विधान है। मस्तक के भीतर ऊपर की ओर बालों का भँवर होता है, वहाँ सम्पूर्ण नाड़ियों एवं संधियों का मेल हुआ है। स्थान को ‘अधिपति’ नामक मर्मस्थान कहा गया है, इस मर्मस्थान की सुरक्षा के लिये ऋषियों ने उस स्थान पर चोटी रखने का विधान किया है। शुभ मुहूर्त में कुशल नाई से बालक का मुण्डन कराना चाहिए। इसके बाद सिर में दही-मक्खन लगाकर बालक को स्नान कराकर मांगलिक क्रियाएँ होती है । यजुर्वेद 363 के अनुसार नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय॥ अर्थात – हे बालक ! मैं तेरे दीर्घ आयु के लिये तथा तुम्हें अन्न के ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिये, उत्पादन शक्ति प्राप्ति के लिये, ऐश्वर्य वृद्धि के लिये, सुन्दर संतान के लिये, बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिये तेरा चूड़ाकरण (मुण्डन) संस्कार करता हूँ। कर्णवेध संस्कार – पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिये कर्णभेद संस्कार किया जाता है। संस्कार को छः मास से लेकर सोलहवें मास तक अथवा तीन, पाँच आदि विषम वर्ष में अथवा कुल परम्परा के अनुसार संपन्न किया जाता है।ब्राह्मण और वैश्य का रजत शलाका (सूई) से, क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका द्वारा कान छेदने का विधान है । वैभवशाली पुरुषों को स्वर्ण शलाका से कर्णभेद क्रिया सम्पन्न करते है। बालक के प्रथम दाहिने कान में फिर बायें कान में सूई से छेद करे। बालिका के पहले बायें फिर दाहिने कान के वेध के साथ बायीं नासिका के वेध का विधान है। बालकों को कुण्डल आदि तथा बालिका को कर्णाभूषण आदि पहनना चाहिये। उपनयन संस्कार- उपनयन संस्कार से द्विजत्व की प्राप्ति होती है। शास्त्रों तथा पुराणों मेंउल्लेख किया गया है कि उपनयन संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का द्वितीय जन्म होता है। विधिवत यज्ञोपवीत धारण करना संस्कार का मुख्य अंग है। संस्कार के द्वारा अपने आत्यन्तिक कल्याण के लिये वेदाध्ययन तथा गायत्री जप आदि कर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है। वेदारम्भ संस्कार – बालक का वेदाध्ययन में अधिकार प्राप्त हो जाता है। ज्ञानस्वरूप वेदों के सम्यक अध्ययन से पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान है। बालक की मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है और वेदाध्ययन आदि में विशेष अनुकूलता प्राप्त होती है तथा विद्याध्ययन में कोई विघ्न नहीं होने पाता। गणेश और सरस्वती की पूजा करने के पश्चात वेदारम्भ (विद्यारम्भ) में प्रविष्ट होने का विधान है। तत्वज्ञान की प्राप्ति कराना संस्कार का प्रयोजन है। यह वेदारम्भ मुख्यतः ब्रह्मचर्याश्रम संस्कार है। केशान्त संस्कार – वेदारम्भ संस्कार में ब्रह्मचारी गुरुकुल में वेदों का स्वाध्याय तथा अध्ययन करता है। उस समय वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता है तथा उसके लिये केश-दाढ़ी, मुंज, मेखला आदि धारण करने का विधान है। जब विद्याध्ययन पूर्ण हो जाता है, तब गुरुकुल में ही केशान्त संस्कार सम्पन्न होता है। संस्कार में आरम्भ में सभी संस्कारों की तरह गणेशादि देवों का पूजन कर यज्ञादि के सभी अङ्गभूत कर्मों का सम्पादन करना पड़ता है।दाढ़ी बनाने की क्रिया सम्पन्न की जाती है। यह संस्कार केवल उत्तरायण में किया जाता है तथा प्रायः 16 वर्ष में होता है। समावर्तन संस्कार – समावर्तन विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है । गृहस्थ जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन संस्कार का फल है। वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है, इसलिए यह वेदस्नान संस्कार है। ऋग्वेद 1/25 /21 के अनुसार उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥ अर्थ – हे वरुणदेव ! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्व भाग के मूँज, उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूत की मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें। विवाह संस्कार – पुराणों के अनुसार ब्राह्म आदि उत्तम विवाहों से उत्पन्न पुत्र पितरों को तारने वाला होता है।
विवाह संस्कार – भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण विवाह संस्कार है। कन्या और वर दोनों के स्वेच्छाचारी होकर विवाह करने की आज्ञा नहीं प्रदान की है। पाणिग्रहण संस्कार देवता और अग्नि को साक्षी बनाकर करने का विधान है। भारतीय संस्कृति में दाम्पत्य सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर है। विवाह संस्कार में होम आदि क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह ‘आवसथ्य’ अग्निव विवाहाग्नि कहा जाता है। अग्नि का आहरण तथा परिसमूहन आदि क्रियाएँ संस्कार में सम्पन्न होती हैं। विवाह के बाद जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर किसी पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परा के अनुसार सायं-प्रातः हवन करना आवश्यक है । नित्य हवन विधि द्विजाति के लिये आवश्यक बताई गयी है। सभी वैश्वदेवादि स्मार्त कर्म तथा पाक यज्ञ अग्नि में अनुष्ठित किये जाते हैं। त्रेताग्नि संग्रह संस्कार विवाहाग्नि परिग्रह संस्कार के परिचय में विवाह में घर में लायी गयी आवसथ्य अग्नि प्रतिष्ठित की जाती है और उसी में स्मार्त कर्म आदि अनुष्ठान किये जाते हैं।आवसध्य स्थापित अग्नि के अतिरिक्त तीन अग्नियों दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य तथा आहवनीय की स्थापना तथा उनकी रक्षा का विधान भी शास्त्रों में निर्दिष्ट है। अग्नियाँ त्रेताग्नि में श्रौतकर्म सम्पादित होते हैं। भगवान श्रीराम जब लंका विजय कर सीता जी के साथ पुष्पक विमान से वापस लौट रहे थे। तब उन्होंने मलयाचल के ऊपर से आते समय सीता को अगस्त्य जी के आश्रम का परिचय देते हुए बताया कि यह अगस्त्य मुनि का आश्रम है । त्रेताग्नि में सम्पादित यज्ञों के सुगन्धित धुएँ को सूँघकर मैं अपने को सभी पाप-तापों से मुक्त अनुभव कर रहा हूँ। अन्त्येष्टि क्रिया संस्कार से पितृमेध, अन्त्यकर्म, अन्त्येष्टि आदि नामों से जाना जाता है। अंत्येष्टि संस्कार में दाहक्रिया से लेकर द्वादशा तक के कर्म सम्पन्न किये जाते हैं। महर्षि अंगिरा के अनुसार जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित प्रयोग करने पर चित्र में सुंदरता एवं वास्तविकता आ जाती है, ठीक उसी प्रकार चरित्र निर्माण भी विविध संस्कारों के द्वारा प्राप्त होता है। जन्म से पहले के तीन संस्कार में गर्भाधान , पुंसवन और सीमन्तोन्नयन है । गौतम स्मृति में 48 संस्कार , महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार, महर्षि व्यास ने संस्कारों की संख्या 16 निश्चित की है। जिस क्रिया के योग से मनुष्य में सद्गुणों का विकास एवं संवर्धन होने की क्रिया को संस्कार कहते हैं। जब तक किसी पदार्थ का संस्कार (शुद्धिकरण) नहीं होता, तब तक वह सदोष और गुणहीन ही रहता है। शैशव संस्कारों में जातकर्म , नामकरण , निष्क्रमण , अन्नप्राशन , चूड़ाकरण , कर्णवेध एवं गृहस्थ जीवन संस्कार में विवाह और विवाहाग्नि परिग्रह है । सूत्र काल के अनुसार विवाह के 8 प्रकार में. ब्रम्ह विवाह , दैव विवाह , आर्ष विवाह , प्रजापत्य विवाह , गन्धर्व विवाह , आसुर विवाह : राक्षस विवाह , . पैशाच विवाह है।7वीं-6वीं शताब्दी ई०पू० से लेकर 3री० शताब्दी ई०पू० तक का काल सूत्र काल कहा जता है। सूत्र साहित्य में श्रौत सूत्र , गृह्य सूत्र , धर्म सूत्र है । सूत्र साहित्य : श्रौतसूत्र , गृह्यसूत्र , धर्मसूत्र , शुल्वसूत्र के अनुसार शुद्ध अंतःकरण में दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत हो पाता है। ब्रह्म विवाह , दैव विवाह , आर्ष विवाह व प्रजापत्य विवाह उत्तम कोटि के विवाह और गंधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह निम्न कोटि के विवाह थे। मनुस्मृति के अनुसार उत्तम विवाहों से उत्पन्न संतान गुणवान , शीलवान , सम्पत्तिवान , आदर्श , योग्य , धार्मिक , यशश्वी , अध्ययनशील व सदाचारी होता है। निन्दनीय विवाहों से उत्पन्न संतान दुराचारी , व्यभिचारी , अधार्मिक , मिथ्यावादी व अन्य दुर्गुणों से युक्त होते हैं। ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । ब्रह्म विवाह को सबसे अच्छा और सर्वश्रेष्ठ माना गया है। विवाह वर – कन्या के माता पिता की पूर्ण सहमति से होता था। शास्त्रों के अनुसार इस विवाह में एक पुत्री का पिता योग्य वर की खोज कर उसे बुलाकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार अलंकारों से सजा-धजा कर कन्यादान दिया जाता है।मनु ने ब्राह्म विवाह का उल्लेख किया है कि वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को स्वयं बुलाकर, वस्त्र, आभूषण आदि से सुसज्जित कर पूजा एवं धार्मिक विधि से कन्यादान करना ब्राह्म विवाह है।याज्ञवल्क्य के अनुसार विवाह के बाद पैदा पुत्र इक्कीस पीढ़ियों को पवित्र करने वाला होता है ।भारत में विवाह वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित हैं।दैव विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता यज्ञ की व्यवस्था कर एवं वस्त्र-अलंकार से सुसज्जित कन्या का दान उस व्यक्ति को कर देता है जो उस यश को समुचित ढंग से पूरा करता है। प्राचीन काल में गृहस्थ लोग समय-समय पर यज्ञ करवाते थे और ऋषियों के साथ आए हुए नवयुवक पुरोहितों में से किसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर देते थे। देवताओं की पूजा के समय दैव विवाह सम्पन्न होता था ।मनु ने लिखा है कि सद्कर्म में लगे पुरोहित को जब वस्त्र और आभूषणों में सुसज्जित कन्या दी जाती है, तो इसे देव विवाह कहा जाता है। डॉ. इन्द्रदेव के अनुसार, “यज्ञों की महत्ता और अपनी कन्या से किसी के विवाह को उसके आदर की पराकाष्ठा मानना, विवाह के इस रूप के कारण प्रतीत होते हैं। देव विवाह की मनु ने प्रशंसा करते हुए विवाह के उत्पन्न सन्तान सात पीढी ऊपर और सात पीढ़ी नीचे तक के लोगों का उद्धार कर देती है। आर्ष विवाह में विवाह का इच्छुक वर कन्या के पिता को एक गाय और एक बैल अथवा इनके दो जोड़े प्रदान करके विवाह करता है। गौतम ने धर्मसूत्र में लिखा है, “आर्ष विवाह में वह कन्या के पिता एक गाय और एक बैल प्रदान करता है। याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि दो गाय लेकर जब कन्यादान किया जाय तब उसे आर्ष विवाह कहते हैं।मनु के अनुसार “गाय और बैल का एक युग्म वर के द्वारा धर्म कार्य हेतु कन्या के लिए देकर विधिवत् कन्यादान करना आर्ष विवाह कहा जाता है। आर्ष अर्थात ऋषि किसी कन्या के पिता को गाय और बैल भेंट के रूप में देता है जब यह समझ लिया जाता था कि अब उसने विवाह करने का निश्चय कर लिया है। आचार्यों ने बैल को धर्म का एवं गाय को पृथ्वी का प्रतीक माना है । विवाह की साक्षी के रूप में दिये जाते थे। कन्या के पिता को दिया जाने वाला जोड़ा पुनः वर को लौटा दिया जाता था । प्रजापत्य विवाह : में पिता सम्मानपूर्वक एक व्यक्ति को यह उपदेश देकर “तुम दोनों एक साथ रहकर आजीवन धर्म का पालन करो” , विधिवत वर की पूजा करके , अपनी पुत्री उपहार स्वरूप देता था। याज्ञवल्क्य के अनुसार प्रजापत्य विवाह से उत्पन्न संतान अपने वंश की पीढ़ियों को पवित्र करने वाली होती है। ‘सत्यार्थप्रकाश‘ में उल्लेख है कि , ‘वर और वधु दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के लिए कामना करना प्रजापत्य का आधार है। गन्धर्व विवाह को आधुनिक युग में ‘प्रेम विवाह’ की संज्ञा दे सकते हैं। युवक-युवती तब परस्पर प्रेम या काम के वशीभूत होकर स्वेच्छा से संयोग कर लेते हैं उस विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य‘ पारस्परिक स्नेह द्वारा होने वाले विवाह को गान्धर्व विवाह कहते हैं। महर्षि गौतम के अनुसार, “इच्छा रखने वाली कन्या के साथ अपनी इच्छा से सम्बन्ध स्थापित करना गान्धर्व विवाह कहलाता है। गंधर्व विवाह में माता-पिता की इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। वास्तविक विवाह से पूर्व भी प्रेमिका से शरीर संयोग हो सकता है और बाद में उचित विधियों से सम्पन्न आज के प्रेम विवाह प्राचीनकाल के गान्धर्व विवाह माने जाते हैं। प्राचीनकाल में गंधर्व विवाह रूपवान गान्धर्व जातियों के लोग करते थे । बौधायन धर्मसूत्र और वात्स्यायन द्वारा कामसूत्र में गंधर्व विवाह को आदर्श विवाह स्वीकार किया गया हैं।दुष्यंत का शकुंतला के साथ गान्धर्व विवाह हुआ था। आसुर विवाह को कय विवाह है अर्थात कन्या मूल्य चुकाया जाता है। इस विवाह में व्यक्ति द्वारा कन्या और कन्या के परिवार के लोगों को शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या का ग्रहण किया जाता है।मनु ने उल्लेख किया हैं, “कन्या के परिवार वालों एवं कन्या को अपनी शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य एवं गौतम के अनुसार अधिक धन देकर कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहलाता है। कन्या मूल्य देकर सम्पन्न किये जाने वाले सभी विवाह असुर विवाह हैं। कन्या मूल्य देना कन्या का सम्मान करना है साथ ही कन्या के परिवार की उसके चले जाने की क्षतिपूर्ति है। असुर विवाह निम्न वर्ग में होता था । उच्च वर्ग में असुर विवाह घृणित दृष्टि से देखा जाता था। राक्षस विवाह में लड़ाई-झगड़ा करके, छीन झपट कर कपटपूर्वक या युद्ध में हरण करके किसी स्त्री से विवाह कर लेना राक्षस विवाह कहा जाता है। मनु के अनुसार, “मारकर, अंग छेदन करके घर को तोड़कर हल्ला करता हुआ, रोती हुई कन्या को बलात् अपहरण “युद्ध में कन्या का राक्षस विवाह कहलाता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार “युद्ध में कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है।” इस प्रकार के विवाहों को प्रचलन तब तक अधिक था जब युद्धों का बहुत महत्व था और स्त्री को युद्ध का पुरस्कार माना जाता था। राक्षस विवाह में वर और वधु पक्ष के मध्य मार पीट , लड़ाई झगड़ा होता था। राक्षस विवाह अधिकतर क्षत्रिय करते थे इस कारण इसे ‘क्षात्र विवाह’ भी कहते हैं । पैशाच विवाह को सबसे निकृष्ट कोटि का है । पैशाच विवाह ऐसा विवाह है जिसमें – निद्रारत, उन्मत्त घबराई हुई, मदिरापान से प्रभावित या रास्ते में जाती हुई कन्या के साथ बल का प्रयोग करके यौन सम्बन्ध स्थापित करने के उपरान्त उससे विवाह किया जाता है। बलपूर्वक कुकृत्य कर लेने के बाद भी विवाह से संबंधित विधियों को पूर्ण कर लेने पर ऐसे विवाहों को मान्यता दी जाती थी। वशिष्ठ एवं आपस्तम्ब ने पैशाची विवाह को मान्यता नहीं दी है । पैसगची विवाह को लड़की का दोष न होने के कारण कौमार्य भंग हो जाने के बाद उसे सामाजिक बहिष्कार से बचाने एवं उसका सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिए ही स्वीकृति प्रदान की गयी है। मनु कहते हैं, “सोयी हुई उन्मत्त, घबराई हुई, मंदिरापान की हुई अथवा राह में जाती हुई लड़की के साथ बलपूर्वक कुकृत्य करने के बाद उससे विवाह करना पैशाच विवाह है । बालात्कार के मामलों में लड़की के माता पिता बदनामी के डर से न्यायालय की शरण न लेकर उस कन्या से शादी कर देते है
उपनयन संस्कार – यज्ञोपवीत संस्कार व उपनयन संस्कार में जनेऊ पहन कर विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना पवित्र धागा यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से सात ग्रन्थित करके बनाया जाता है। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र सनातन त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न , जल ग्रहण नहीं किया जाता। पारस्कर गृहसूत्र ऋग्वेद 2/2/11 के अनुसार यज्ञोपवीत धारण करने के लिए यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।। छन्दोगानाम्:ॐ यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य तथा त्वोपवीतेनोपनह्यामि।। यज्ञोपवीत उतारने के लिए एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।। का मंत्र क्या जाता है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से जाना जाता है। जिस लड़की को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए जनेऊ धारण करती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के लिए कहा जाता हैं। आध्यात्मिक कार्य के लिए जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक तथा देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक और सत्व, रज और तम के प्रतीक , तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक , आश्रमों के प्रतीक , जनेऊ के 9 तारों में एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुनने का प्रावधान है । जनेऊ में पांच गांठ को प्रवर में ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक , पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का प्रतीक है। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुलका जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने के लिए 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि हैं। जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिए। मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। जनेऊधारक को मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है।शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है। भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं, तो प्यास कम लगेगी।उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा और यूटरस की बीमारियों में असरदार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते , जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है। जनेऊधारक को दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से बचाव है।जनेऊ यानि दूसरा जन्म पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश है। उपनयन यानी ज्ञान के नेत्रों का प्राप्त होना, यज्ञोपवीत यज्ञ – हवन करने का अधिकार प्राप्त होना।जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों के बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं।. जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है। जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है। जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है।. जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं।यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निर्थरक है।जनेऊ के तीन धागों में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं ।शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक 09 वर्ष, क्षत्रिय 11 वर्ष और वैश्य के बालक का 13 वर्ष के पूर्व संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व करते हैं।
करपी , अरवल , बिहार , 804419
9472987491