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गंगावतरण-लघुनाटिका

(पात्र-गंगा, भगीरथ, शिव)

गंगा के सामने भगीरथ एक पैर पर खड़े दिखलाई देते हैं।
गंगा : मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ वत्स!तुम्हारी कई पीढ़ियाँ तप करते-करते खप गईं।तुम्हारे जैसा तप किसी ने नहीं किया।वर माँगो।
भगीरथ : मैया! आपकी जय हो।आपका दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया।माँ सामने हो तो पुत्र क्या माँगे?आप पुत्र की हर मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ हैं।
गंगा : पुत्र से माँ कुछ भी नहीं छिपा सकती।तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने मुझे स्वर्ग से धरती पर आने का आदेश दिया तो मैंने आक्रोश प्रकट करते हुए पितामह से कहा,“ब्रह्मा, ये तुमने क्या किया? तुमने भगीरथ को क्या वर दे डाला?”
भगीरथ : पितामह ने क्या कहा मैया?
गंगा : पितामह तुम्हारी तपस्या से अति प्रसन्न हैं।उन्होंने कड़े शब्दों में कहा कि “मैंने ठीक ही किया है, गंगा!”
भगीरथ : फिर?
गंगा : ब्रह्मदेव के मन पर तुम्हारे तप का जादू चढ़ गया है।मैं चौंक गई और बोली, “ब्रह्मदेव आप मुझे धरती पर भेजना चाहते हैं और कहते हैं कि आपने ठीक ही किया है!”
भगीरथ : फिर?
गंगा : ब्रह्मा ने कहा,”देवी! मैंने ठीक ही किया है।” मैंने फिर पूछा,”कैसे?”
भगीरथ : माँ!आगे की बात सुनने के लिए
मेरी जिज्ञासा बढ़ रही है।


गंगा : ब्रह्मदेव ने कहा,“देवी, आप संसार का दु:ख दूर करने के लिए पैदा हुई हैं।आप अभी मेरे कमण्डल में बैठी हैं।अपना काम नहीं कर रही हैं।”
भगीरथ : आपने क्या कहा मैया?
गंगा : मैंने कहा, “ब्रह्मदेव,धरती पर पापी, पाखंडी,पतित रहते हैं।आप मुझे उन सबके बीच भेजना चाहते हैं?”
भगीरथ : फिर पितामह ने क्या कहा?
गंगा : ब्रह्मदेव ने मुझे बड़े प्रसन्न मन से समझाया,“देवी, आप बुरे को भला बनाने के लिए, पापी को उबारने के लिए, पाखंड मिटाने के लिए, पतित को तारने के लिए, कमज़ोरों को सहारा देने के लिए और नीचों को उठाने के लिए ही बनी हैं।”
भगीरथ : आपने क्या कहा माँ?
गंगा : मैं क्या कहती!
ब्रह्मदेव ने आदेश ही दे दिया,“देवी, बुरों की भलाई करने के लिए तुमको बुरों के बीच रहना होगा।पापियों को उबारने के लिए पापियों के बीच रहना होगा।पाखंड को मिटाने के लिए पाखंड के बीच रहना होगा।पतितों को तारने के लिए पतितों के बीच रहना होगा।कमज़ोरों को सहारा देने के लिए कमज़ोरों के बीच रहना होगा और नीचों को उठाने के लिए नीचों के बीच निवास करना होगा। तुम अपने धर्म को पहचानो,अपने कर्म को जानो।”
भगीरथ : तो आप धरती पर चलने को तैयार हैं?
गंगा : “ब्रह्मदेव ने मेरी आँखेंं खोल दी हैं।मैं धरती पर उतरने को तैयार हूँ,पर धरती पर मुझे संभालेगा कौन?”
भगीरथ : मैया! मुझे आभास हो रहा है कि ब्रह्मदेव मुझे भगवान शिव की शरण में जाने का संकेत कर रहे हैं।
गंगा : भगवान शिव शंकर आशुतोष हैं,महादेव हैं।अवढरदानी हैं,सदा देते रहते हैं और सोचते रहते हैं कि लोग और माँगें तो और दें। (डमरू का शोर होता है)
भगीरथ : माँ!कुछ सुन रही हैं आप?
गंगा : हाँ पुत्र! यह तो महादेव के डमरू का ही निनाद है।
(एक तेज प्रकाश पुंज चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाता है।भगवान शिव प्रकट हो जाते हैं।)
भगीरथ : भूतभावन भगवान भोलेनाथ की जय हो!
गंगा : संसार के आदिपुरुष जगदीश्वर की जय हो।
शिव: (भगीरथ से)“बोल बेटा,क्या चाहता है?”
भगीरथ : हे देवाधिदेव!गंगा मैया धरती पर उतरना चाहती हैं किंतु वे कहती हैं…..”
शिव:(बात पूरी होने से पहले बोल पड़ते हैं) आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है भगीरथ!तुमने बहुत बड़ा काम किया है।मैं सब बातें जानता हूँ।तुम गंगा से विनती करो कि वह धरती पर उतरें।मैं उनको अपने मस्तक पर धारण करूँगा।”
(गंगा अदृश्य हो जाती हैं।)
भगीरथ : (आँखें मूदकर आनंदविभोर होते हुए,हाथ जोड़कर) माँ धरती पर आइये।पतितपावनी माँ,धरती पर आइये।भगवान शिव आपको संभाल लेंगे।
(आकाशवाणी होती है-“विष्णु के पैरों के नखों से निकली हुई और ब्रह्मा के कमण्डल में रहने वाली गंगा रंग-बिरंगे बादलों से भरे आकाश से टूटते तारे की तरह कड़क से आसमान को कँपाती हुई,पहाड़ों को हिलाती हुई,दिशाओं में कंपन पैदा करती हुई उतरने ही वाली हैं।दिग्गजों को सावधान रहने की आवश्यकता है।)
(जोर की बिजली की कड़क होती है।)
भगीरथ : (आँखें मूँदकर शिव-शिव जपने लगते हैं।गंगाजी के लहराने का स्वर उभरता है।)
हे महेश्वर! हे देवेश्वर! गंगा मैया आपकी जटा में फँस गई हैं।वह उमड़ती हैं,उसमें से निकलने की राह खोजती हैं,पर राह मिलती नहीं है।गंगाजी घुमड़-घुमड़कर रह जाती हैं। बाहर नहीं निकल पा रही हैं।हे कैलाश के वासी!आपकी जय हो! आपकी जय हो! आप मेरी विनती सुनिये और गंगाजी को छोड़ दीजिये!महादेव मैं देख रहा हूँ कि आपने हाथ से जटा को झटक दिया है, आपकी कृपा से गंगा मैया धरती पर आ गई हैं।आपकी जय हो।
(गंगा प्रकट होती हैं)
भगीरथ : गंगा मैया की जय!मंदाकिनी मैया की जय!!
गंगा : पुत्र भगीरथ!अपने रथ पर बैठो और मेरे आगे-आगे चलो।”
भगीरथ : जैसी माँ की आज्ञा।
(मंच पर अंधकार छा जाता है और नेपथ्य से आवाज आती है)
हिमालय की पहाड़ियों से भगीरथ के पीछे चलती हुई गंगा मैदानों में उतर रही हैं।ऋषिकेश हरिद्वार और गढ़मुक्तेश्वर पहुँचकर ठहर सी गई हैं।गंगा ने भगीरथ से पूछा है कि क्या उन्हें भगीरथ की राजधानी के दरवाज़े पर भी चलना होगा? भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा है कि नहीं माता,हम आपको संसार की भलाई के लिए धरती पर लाये हैं। अपनी राजधानी की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं।”यह सुनकर गंगा माँ बहुत प्रसन्न हैं।उन्होंने अपना नाम भागीरथी रख लिया है।
भगीरथ सोरों, इलाहाबाद, बनारस, पटना होते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गए हैं।भगीरथ के साठ हजार पुरखों की राख की ढेरियाँ उनके पवित्र जल में डूब गई हैं।)
(मंच पर पुनः प्रकाश हो जाता है)
गंगा : (खिलखिलाकर हँसते हुए);बेटा भगीरथ!अब तुम लौट जाओ।मैं यहीं सागर में विश्राम करुँगी।”
भगीरथ : भागीरथी माँ तुमने मेरे नाम पर अपना नाम भागीरथी रख लिया है।मैं इस सागर का नाम गंगासागर रखना चाहता हूँ।
गंगा : और मैं तुम्हारे तपबल से प्रसन्नतापूर्वक यह वरदान देती हूँ कि जीवन में एक बार भी जो गंगासागर में स्नान करेगा उसके पितरों का उद्धार हो जाएगा और उसे धरती के समस्त तीर्थों में स्नान का पुण्य प्राप्त होगा।

(पटाक्षेप होता है।)

विजयशंकर मिश्र ‘भास्कर

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