कार चलाते-चलाते थकान होने पर मनीष सामने के ही ढ़ाबे पर चाय पिने चला गया I चाय आने तक वह ब्रिफकेस से सिगरेट का पैकेट निकालकर उसमें से एक सिगारेट उसने मूँह में लगाईं और लायटर के लिए जेब टटोलने लगा I शायद वह कार में ही छूट गया था I मूँह में सिगारेट लगाकर उसने इशारे से वहाँ के लडके को माचिस मांग ली I वहाँ से हटकर थोड़ी दूरी पर सिगारेट के छल्लों में वह अपनी थकान मिटा रहा था I
ऊपर उठते हुए धुएँ के छल्लों में उसे उषा का चेहरा बार-बार दिख रहा था I उषा एक गरीब घर की पढ़ी-लिखी ख़ूबसूरत लड़की थी परंतु पैसों की लालच में उसने चार वर्ष के प्यार को सदा के लिए त्याग दिया था I ढाबे के टेबूल पर रखी गर्मा गर्म चाय उठा ली I ज्यादा उबली, मीठी और कसैली सी स्वाद की चाय उसे अपनी पत्नी निशा की याद दिला गई I कॉलेज की उषा और बहूराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत निशा उसकी जिंदगी के दो धृव थे I
‘उषा! हर समय उसे क्यों याद आती है…?’
दोनों का पुस्तक प्रेम ही उन्हें एक दूजे के क़रीब लाया था I पुस्तकों का आदान-प्रदान होते होते कब उनकी मित्रता प्यार में परिवर्तित हुई थी पता ही नहीं चला I कॉलेज के कैंटीन में बैठकर समोसे और चाय के साथ ही दोनों किताबों पर चर्चा करते थे I उसने कभी सोचा ही नहीं कि वह उषा से अचानक हाथ छूड़ा लेगा I
‘दिन झरने के बहते पानी की तरह होते हैं, रुकते नहीं, अपनी हथेलियों में जितना भर सके भर लो, वहीँ हमारी असली कमाई होती है I’ गोपाल माथुर के एक कहानी के ये वाक्य उसे तड़पा रहे थे I चार सालों के कितने दिन? उसने हिसाब लगाया I दिन…? उसे तो पल-पल याद है I यद्यपि निशा के साथ शादी होकर दस वर्ष हुए परंतु याद करने लायक कुछ भी तो नहीं था I भावनाओं के तले रौंदते ज़ज्बात और एहसासों को पतझड़ के चरमराते पत्ते समझकर वह भूल रहा था I आज ही तो निशा से तलाक की आख़िरी कारवाही से वह विजयी योद्धा की तरह कोर्ट से बाहर निकला था और कार चलाते हुए इस ढ़ाबे पर सुस्ताने रुका था I
लेकिन बार-बार वह पतझड़ के पत्ते फिर से हरियाली लेकर उसके दिमाग के शाखाओं में लहराने लगते थे और हरी-हरी कोपलों की आड़ से अचानक ही उषा का चेहरा नज़र आने लगता था I इन दस वर्षों में एक पल भी ऐसा नहीं था जब उसने उषा को याद न किया हो I क्यों वह बार बार याद आती है…?
उषा, प्रभात की हलकी सुनहरी धूप थी जो मन के बादलों से अनगिनत रंगों की उस पर बौछार करती थी I रिमझिम बारिश में नहाकर आया हुआ ताज़ा, खिलती कलियों जैसा प्रफुल्लित चेहरा और स्नेह, प्यार के आँचल तले दोनों का खिलखिलाना, हाथ में हाथ डाले घूमना I कभी-कभी संध्या समय जुहू बीच पर समुद्र की लहरों की अठखेलियाँ देखते- देखते एक दूजे पर वह खारा पानी उछालना, तो कभी रेत के घरौंदे बनाकर उस पर अपने- अपने नामों की निशानियाँ उकेरना और लहरों के आगमन से नष्ट होते उसे देखना I उन चार वर्षों के प्यार में कभी भी कलुषित भावना नहीं थी ना कलंकित विचार थे ना अनुचित व्यवहार था I केवल हाथ में हाथ डाले घूमना ये ही उनका एक दूसरे से स्पर्श सम्पर्क हुआ करता था I
इसके विपरीत निशा का व्यवहार था I बड़े बाप की पैसों की गुड़िया हर चीज उसने झपटकर लेना सीखी थी I उसकी इच्छा के विरुद्ध, मनीष से शारीरिक सुख भी बलपूर्वक ही लेती थी I एक वहशीपन और गिरते मानसीकता का उत्तम उदाहरण थी निशा I काले नभ में मंडराते काले बादल और बिजली की चकाचौंध करती चमक में ठंडक पहुचाने वाले बारिश का नामो निशां न हो ऐसा ही निशा का स्वभाव था I उसके संपर्क में आने वाले हर इंसान को घायल होकर आहत होना ही था I लूटना और झपटना ये उसके अधिकार मानती थी I जो टूटता नहीं है ऐसे एक लंबी रात के अंतहीन दु:स्वप्न में वह जकड़ गया था I आखीर तंग आकर दो वर्ष पहले उसने यह फैसला लिया था I अंत में दु:स्वप्न का आज नाश हुआ I
“आपकी चाय ठंडी हो रही है I”
ढ़ाबे के लड़के का स्वर और जलती सिगारेट के अंतिम छोर से जली दो उंगलियाँ उसे विचारों से खींचकर लाई I
‘उषा!’ धीरे से मनीष बुदबुदाया I लेकिन कागज़ की हलकी गेंद की तरह उसकी आव़ाज दब गई थी I एक रेंगती सरसराहट जैसे उसे उषा की धीमी सी आवाज सुनाई दी I नहीं यह केवल आभास है, एक अंतीम सत्य है कि अब उषा के और उसके बीच में कुछ नहीं था I क्यों वह बार-बार याद आती है…?
शायद दोनों का पुस्तक प्रेम और समान प्रकृति के कारण बनी मित्रता ही अभी भी उसके अंतस में समाहित थी जो बार-बार मन के द्वार पर दस्तक देकर दिल से बाहर आने मचल रही थी I वह समझा था कि उन दिनों को उसने मन के किसी अँधेरे कोने में हमेशा के लिए छिपा दिया था I लेकिन ये क्या? पतझड़ के समय सूखे हुए जो वृक्ष, भिकारी जैसे कुछ लेने के लिए आकाश को ताकते थे उन्होंने तो अब सावन से भरी हुई हरी पोशाक पहन रखी थी और अचानक पत्तों से पल्लवीत होकर चिड़ियों को भी घोसला बनाने हेतु निमंत्रीत कर रहे थे I अपने प्यार को वह भूल नहीं पाया था I बादलों के आड़ से चमकती बिजुरियाँ जैसी उषा की यादे उसका पिछा नहीं छोड़ रही थी I उषा के लंबे घनेरे बालों के ऊपर उसने गीत लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियाँ उसे अब याद आ रही थी I
गीत लिखे है मैंने , होठों के लिए ही तेरे
गुनगुनाकर थम जाते मुस्कान बिखेरे II
घनघोर घटाएँ, रात अँधेरी,चांदनी गुमसुम
धीरे धीरे सहलाये पवन बनकर मासूम
गालों पे रुक जाती है गेसू की वो लट
लबों की तबस्सुम चूमने आती लेकर फेरे II
मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित
डॉ. नीलिमा तिग्गा
पता : डॉ. नीलिमा तिग्गा
द्वारा 39, ओमप्रकाश शर्मा, बजरंग कॉलोनी
माली मोहल्ला, फायसागर रोड ,
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