नारी सशक्तिकरण मुझे सर्वप्रथम एक मूलभूत ऐतराज़ इसी बात पर है कि नारी जोकि स्वयं शक्ति स्वरूपा है , उसके सशक्तिकरण का नारा क्यों कर दिया जाता है ? इस आधुनिक युग में जहाँ हर वस्तु, व्यक्ति, सोच और विचारधारा प्रगति के पथ पर अग्रसर है वहां नारी की शक्ति में ऐसा क्या ह्रास आ गया कि उसके सशक्तिकरण पर इतना बल दिया जा रहा है ? देखा जाये तो आज की आधुनिक नारी हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर ही नहीं बल्कि उससे दो कदम आगे ही चल रही है। फिर नारी के किस सशक्तिकरण की आवश्यकता है?
इस प्रश्न को हम दो विभिन्न मानसिकताओं से परखने का प्रयत्न करते हैं। सर्वप्रथम पुरुष मानसिकता की बात करें तो भारतीय पुरुष में सोच के धरातल पर महाभारत काल से अब तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है। उसकी नज़र में तब भी नारी भोग्या थी , वस्तु के समान दांव पर लगाने योग्य थी, और आज भी पुरुष की नज़र में नारी भोग्या ही है। भारतीय पुरुष को बचपन से ही घुट्टी में पिलाया जाता है कि वह स्त्री का मालिक है, सत्तावान है, उसी का निर्णय अंतिम निर्णय है। उसको बहनों से अधिक मान सम्मान मिलता है और प्राथमिकता भी। यही नींव आगे चल कर उसके सम्पूर्ण व्यवहार को निर्धारित करती है। यह सच है कि यह महान कार्य उसकी माँ के रूप में एक नारी ही करती है परन्तु वह भी तो पति रूपी पुरुष के समक्ष नगण्य होती है। यही नींव हमारे समाज के लिए उस नासूर के समान है जिस पर न जाने कितने अपराधों का कैंसर पनपता है। क्योंकि पुरुष को बचपन से ही सिर्फ एक चीज़ के प्रति नफरत सिखाई जाती है और वो है विरोध। पुरुष सब कुछ सहन कर लेता है विरोध नहीं। और अगर कहीं विरोध मिले तो उसका जवाब उसके पास सिर्फ एक ही होता है अत्याचार। क्योंकि तर्क से जीतना उसे आता ही नहीं।
अब स्त्री मानसिकता की बात कर लेते हैं। स्त्री समाज आधी दुनिया कहलाता है , पर इस आधी दुनिया के पास अपना कहने को क्या है ? पिता या पति द्वारा दिया घर.… पिता या पति द्वारा दिया सम्मान… अन्यथा आप ही कहिये स्त्री के पास और क्या है ? वह कितना भी पढ़ लिख ले, कितनी भी उन्नति कर ले, पर अगर उसके पास पिता या पति का नाम नहीं है तो समाज की नज़र में उसका कोई अस्तित्व नहीं है। दुःख इस बात का है कि आज भी स्त्री अपनी इस स्थिति का विरोध नहीं करती। बल्कि अपनी सुरक्षा के लिए पुरुष पर आश्रित होना ही उचित समझती है।
इतिहास की बात करें तो राम राज्य में स्वयं भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता के निर्दोष होने के बावजूद जानते बूझते हुए समाज के नियमों के तहत उसे घर से निकाल दिया। परन्तु माता सीता ने अपने सतीत्व और आत्मसम्मान की रक्षा हेतु पति द्वारा दोबारा स्वीकार किये जाने के बावजूद घर लौटने की बजाय धरती में समा जाना स्वीकार किया। यह सत्ता और उसके तथाकथित सामाजिक नियम पालन का सशक्त व चुनौतीपूर्ण अस्वीकार था। जिस में एक नारी, एक पत्नी, एक माँ और एक महारानी की गरिमा जुडी हुई थी।
कमाल है आज भी नारी इस प्रकार के अस्वीकार का हौंसला अर्जित नहीं कर पाती। और अगर करती भी है तो या तो निर्भया की तरह बलात्कार का शिकार होती है , एसिड से वीभत्स कर दी जाती है, आरुषि की तरह माँ बाप द्वारा ऑनर किलिंग में मार दी जाती है। अब आप ही बताइये आखिर दोषी कौन है ? पुरुष समाज, स्वयं औरत या हम सब की दूषित मानसिकता ??? बदलना किसे चाहिए पुरुष को नारी को या हम सब की मानसिकता को ??? कैफ़ी आज़मी की कुछ पंक्तियां यहाँ सार्थक प्रतीत होती है ….
कद्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं।
काश नारी स्वयं अपनी शक्ति को पहचान कर अपनी पहचान बनाना सीख ले। काश…!
डॉ प्रिया सूफ़ी, होशियारपुर पंजाब