‘अति महत्त्वकांक्षा की भेंट चढ़ती ज़िंदगी’
अपनी पहचान बनाने के लिए,
सर पर एक जुनून होता है।
निस्वार्थ जग कल्याण के लिए,
महत्त्वकांक्षी व्यक्ति जीता है।
‘महत्त्वकांक्षा’ का अर्थ- उन्नति करने की प्रबल इच्छा, बड़ा बनने की इच्छा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को लेकर कोई
न कोई सपना देखता है। अधिकांश लोग केवल सपने ही देखते रह जाते हैं और करते कुछ नहीं। किंतु कुछ लोग अपने
लिए जो सपने बुनते हैं उन्हें पूरा करने के लिए जी तोड़ परिश्रम करते हैं। ये कुछ लोग को हम महत्त्वकांक्षी कहते हैं।
महत्त्वकांक्षा का होना जीवन में आगे बढ़ने का सूचक है। यह हमें निरंतर जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
भाग्य के भरोसे बैठने वाले महत्त्वकांक्षी नहीं होते। जो महत्त्वकांक्षी होते हैं वे पुरुषार्थ करते हैं। कला, साहित्य या किसी भी
क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए यदि जुनून है तो आप महत्त्वकांक्षी हैं।
कुछ बड़ा करने की सोच रखो,
ज़िंदगी सँवर जाए ऐसा काम करो।
पर उसके लिए भी हद में रहो,
ज़िंदगी को बर्बाद मत करो।
महत्त्व और आकांक्षा से निर्मित यह शब्द ‘महत्त्वकांक्षा’ बहुत कर्ण-प्रिय लगता है। बहुत गर्व से हम कहते हैं मैं बहुत
महत्त्वकांक्षी हूँ या अमुक व्यक्ति बहुत महत्त्वकांक्षी है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत्त्वकांक्षी होना ही जीवन की सफलता का
पर्याय है। कुछ लोग तो इतने महत्त्वकांक्षी होते हैं कि उनके लिए रिश्ते-नाते, घर-परिवार, मान-सम्मान, उचित-अनुचित जैसे
शब्दों का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता। किसी भी सूरत में मात्र अपनी महत्त्वकांक्षा को पूर्ण करना ही उनका ध्येय बन
जाता है। बिना विचारे एक अँधी-दौड़ में भागे चले जाते हैं। कभी-कभी तो अपनी महत्त्वकांक्षा की पूर्ति करने के लिए ये
अति महत्त्वकांक्षी लोग निर्दोष व मासूम लोगों को कुचल कर आगे बढ़ने से भी पीछे नहीं हटते। उनके अंदर का विवेक व
उनकी संवेदनाएँ भी उनकी महत्त्वकांक्षा के आगे दम तोड़ देती है। पर कहते हैं न अति किसी भी चीज़ की अच्छी नहीं
होती। इस संदर्भ में कबीरदास जी का यह दोहा द्रष्टव्य है-
अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप,
अति का भला न बरसना, अति का भला न धूप।
स्पष्ट है कि हर काम की सीमा होनी चाहिए, अति किसी भी चीज़ की हानिकारक होती है। जीवन में संतुलन बनाने की
ज़रूरत है। इसी प्रकार यदि ‘महत्त्वकांक्षा’ शब्द पर विचार करें तो महत्त्वकांक्षी होना ग़लत नहीं है किंतु अति महत्त्वकांक्षी
होना ख़तरनाक है। निःसंदेह यदि हम महत्त्वकांक्षी होंगे, जीवन में कुछ अच्छा, उत्कृष्ट या अनूठा करने की चाह रखेंगे और
उसके लिए सतत प्रयास करेंगे तो ही दुनिया की इस भीड़ में अपनी पृथक पहचान बना पाएँगे। परंतु विचारणीय प्रश्न यह
है कि कहीं हमारी महत्त्वकांक्षा सारी सीमाओं को तोड़ते हुए हमारी ही ज़िंदगी की बलि तो नहीं ले लेगी? क्या अपनी
महत्त्वकांक्षा की पूर्ति के लिए हम कुमार्ग पर चलने को भी हम उचित तो नहीं मानने लगे? यदि ऐसे प्रश्नों का उत्तर हाँ है
तो ऐसी महत्त्वकांक्षा के साथ हम धीरे-धीरे अपने अंत की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। यदि अपने अतिरिक्त कोई अन्य
विचार ही नहीं आ रहा, यदि जीवन में कोई संतुलन ही नहीं रहा तो विचार करना आवश्यक है कि हम सफलता की ओर
बढ़ रहे हैं कि मृत्यु की ओर।
वर्तमान समय में लोग अति महत्त्वकांक्षी होते जा रहे हैं। जिसके परिणामस्वरूप वे अपनी महत्त्वकांक्षा की पूर्ति के लिए
अपराध करने से भी पीछे नहीं हटते।
दूसरों की लाश पर चढ़कर कहाँ तक जाओगे,
एक दिन तुम भी तो मिट्टी में ही मिल जाओगे।
दूसरों को ग़लत सिद्ध करके स्वयं को श्रेष्ठ बताने का प्रचलन बढ़ रहा है जो सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए विनाशकारी है,
इससे मनुष्यता ख़तरे में है।
अत्यधिक महत्त्वकांक्षी लोग अक्सर दूसरों पर भी बहुत दबाव डालते हैं व आवश्यक न होने पर भी दूसरों के जीवन में
हस्तक्षेप करने लगते हैं। वे लोगों को अपने अनुकूल चलाने की कोशिश करने लगते हैं। इस प्रकार अपनी सफलता के लिए
दूसरों को कष्ट या परेशान करने की मानसिकता कहाँ तक तर्कसंगत है।
खुद आगे बढ़ने के लिए दूसरों को मत गिराओ,
दम है तो सबके संग आगे बढ़कर दिखाओ।
सबको साथ लेकर चलना यदि सम्भव नहीं तो दूसरों के मार्ग में अवरोध डालकर आगे बढ़ना भी पूर्णतः अनुचित है। अक्सर
देखा गया है कि स्वार्थ में लिप्त व्यक्ति स्वयं को महत्त्वकांक्षी सिद्ध करते हुए यदि अपनी योग्यता के बल पर आगे नहीं
बढ़ पाता है तो दूसरों को अयोग्य साबित करके, चापलूसी करके अपने अस्थायी लक्ष्य को प्राप्त भी कर लेता है। किंतु क्या
वास्तव में ऐसे व्यक्ति को महत्त्वकांक्षी कहा जाना समीचीन होगा? जो व्यक्ति अपने भविष्य में खोया रहेगा वह वर्तमान
को कभी नहीं जी सकता। इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि वर्तमान की भूमि पर ही भविष्य के बीज अंकुरित होते
हैं। जो वर्तमान में जिएगा ही नहीं वह भविष्य कैसे बना सकता है। महत्त्वकांक्षा को पूर्ण करने के लिए सुनियोजित ढंग से
जीवन में संतुलन बनाकर चलना पड़ता है। अंधा होकर किसी का पीछा करने वाले को महत्त्वकांक्षी नहीं कह सकते। अंत में
यही कहना सार्थक होगा कि महत्त्वकांक्षी बनना उचित है परंतु अति महत्त्वकांक्षी बनकर नैतिक मूल्यों व जीवन का भी नाश
हो जाता है। अतः अति महत्त्वकांक्षी बनने से बचना अनिवार्य है।
ज़िंदगी अनमोल है, जीवन-मूल्य बहुमूल्य हैं,
संतुलन बनाकर चले मनुज तो वह अतुल्य है।
-सीमा मिश्रा, हिसार