संस्मरण
जब-जब गंगा-दशहरा या माघ मेला आता है तब-तब मुझे माँ गंगा की गोद में विहार करने का बचपन का दृश्य दृग समक्ष साकार हो जाता है।मैं बचपन की उन सम्मोहक स्मृतियों में खो जाता हूँ।बात सन् उन्नीस सौ पैंसठ की है।मेरी माताजी मेरे चचेरे भाइयों की मुंडन कराने के लिए चाचाजी,चाचीजी मुझे और मेरे दो चचेरे भाइयों को लेकर विंध्यवासिनी माँ के धाम गई थीं।हमें नौका से गोमती पार करना पड़ा था और रेलमार्ग से जौनपुर जाकर हम लोगों ने शीतला माँ के चौकियाधाम का भी दर्शन किया था।वहाँ से हम लोग बस से गंगातट पर स्थित चील्हघाट पहुँचे थे।
तब चील्हघाट पर पुल नहीं बना था।वहाँ से गंगा की धारा के विपरीत चलकर नौका द्वारा विंध्याचल पहुँचा जाता था।मैंने देखा कि नदी तट पर नौकाएँ कतारबद्ध खड़ी हैं।धीवर बस का आगमन जानकर वहाँ से सड़क तक ऊपर आ गए थे और लोगों को अपनी नाव में बैठाने के लिए बुला रहे थे।यात्रीगण किराए का मोलभाव कर रहे थे।तब एक यात्री का नाव का किराया दो आना था।दो आना मतलब एक रुपए में आठ यात्री नौका पर बैठकर चील्हघाट से विन्ध्याचल पहुँच सकते थे।मल्लाहों ने बच्चों को निःशुल्क पहुँचाने की बात भी बताई थी और साथ में यह निवेदन किया था कि बच्चों को बीच धारा में नाव-नवरिया करवा देंगे और जो मन में आए न्यौछावर के रूप में दे दीजिएगा।न्यौछावर की यह प्रथा हमारी सनातन संस्कृति की एक सुदृढ़ कड़ी थी जो आधुनिकता के दौर में विलुप्त होने की कगार पर है।जन्मोत्सव, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, गृहप्रवेश,आदि पर यह प्रथा समाज के विविध वर्गों को जोड़ती आई है।व्यक्तिगत आयोजन इसी न्यौछावर के माध्यम से समाज में एक कड़ी बन जाते थे।अस्तु न्यौछावर पर बात तय हो गई और हम लोग नाव में बैठ गए।हमारे साथ दर्शनार्थियों के कई दल सवार हुए।
नाव चल पड़ी और एक ठंडा हवा का झोंका हमें दुलरा गया।दिन के लगभग तीन या चार बजे होंगे।गर्मी थी लेकिन उस कालखंड में हमने बेना या पंखी की हवा से ही ग्रीष्मकाल के आतप का निवारण किया था।माताजी के आँचल से चूता हुआ पसीना पोंछ दिया जाता था और हम आज के ए.सी.कूलर से भी आनंददायक शैत्य और पुलकन का आभास कर लेते थे।नौका आगे बढ़ रही थी और लहरें उसके वेग को रोकने का भरपूर यत्न कर रही थीं।मैं अगल-बगल देख रहा था।किनारे स्थित मकान पेड़ आदि पीछे भागते जा रहे थे।दाहिनी ओर दृष्टि गई तो चारों ओर पानी से घिरा हुआ बालू का टीला दिखाई दिया।और आगे निगाह गई तो सरपत के बाड़ों के बीच हरियाली और कुछ लोग दिखाई पड़े।पूछने पर माताजी ने बताया कि गंगा माई की तराई में तरबूज, खरबूजा,कोंहड़ा आदि की खेती होती है।तरबूज के नाम से मेरे मुँह में पानी भर आया था।
लगभग आधे घंटे बाद हमारी नाव विंध्याचल के पास आ गई।माताजी ने मंदिर की ओर हाथ जोड़कर विंध्यवासिनी माँ को प्रणाम किया और हम सबने उनका कायिक और वाचिक अनुसरण किया।गंगाजी की धारा तेज हो गई थी।हमारी नाव धीरे-धीरे रेंग रही थी,कभी-कभी बाएँ-दाएँ भी होने लगी थी।पानी में फूल-मालाएँ, शैवाल, कुछ अन्य वस्तुएँ कपड़े आदि बड़ी तेजी से हमारे पीछे भागे जा रहे थे।माताजी ने एक पैसे का ताँबे सिक्का मेरे हाथ में रखकर गंगाजी की धारा में उछाल दिया।अब दो धीवर डाँड़ चला रहे थे और उन्होंने नाव-नवरिया का संकेत किया।नौका को चक्राकार घुमाते ही लोगों ने गंगा माई की जै का कई बार उद्घोष किया।जिनके बच्चे थे,उन सबने अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक आने-दो आने पैसे और कुछ आखत जिसमें अरवा चावल,गुड़ उड़द आदि था; सहर्ष धीवरों को प्रदान किया।
नाव किनारे लगी।हम सब उतरे और कुछ आगे आकर धुरियाए पाँव विन्ध्यवासिनी माँ के दर्शन करने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे।माँ के मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़कर कुछ दूर सपाट और कुछ दूर सीढ़ियों पर चलना हुआ।हम लोग मंदिर पहुँचे और दरबार में हाजिरी लगाकर अपने पंडा श्री काशीराम जी महराज के चरणों में झुककर प्रणाम निवेदित किया।हमें रात्रिवास के लिए कमरा दिखाया गया और चूल्हा-चौका बरतन आदि की व्यवस्था समझाई गई।लकड़ी बाहर से खरीदना था।पेयजल उपलब्ध था।रात्रि में ही टिकरी बनाई गई और माँ को चढ़ाकर भोजन विश्राम हुआ।माँ का मंदिर आधीरात तक खुला रहता है।
सवेरे सब लोग नहा-धोकर,खा-पीकर प्रसाद आदि खरीदने के उपरांत पंडाजी का आशीर्वाद लेकर दक्षिणा अर्पण करने के उपरांत अपने-अपने घर को रवाना हुए।गंगाजी की गोद में यात्रा करने का यह अनुभव मैंने अपने गाँववालों को सुनाया और माताजी ने टिकरी,रामदाना और गंगाजी की बालुका का प्रसाद बाँटा।तब से अब तक गंगा मैया में बहुत पानी बह गया है लेकिन उनके प्रति मेरे मन में आदरभाव रंचमात्र भी कम नहीं हुआ है।
विजयशंकर मिश्र ‘भास्कर’
लखनऊ
आप का यह आयोजन साहित्य को समृद्ध करने का सशक्त कदम है।
बधाई,साधुवाद।