कहानी संख्या 55 गोपालराम गहमरी कहानी लेखन प्रतियोगिता 2024
“राष्ट्र का विकास तभी संभव है जब एक महिला सशक्त होगी और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आत्मनिर्भरता आवश्यक है,” पूरा हाल तालियों की गड़गराहट से गूंज उठा। दिव्यांशी एक प्रखर वक्ता एवं बहुत ही प्रतिभावान लड़की थी। एक ऐसी लड़की जिसने अपनी जिंदगी में सिर्फ और सिर्फ जीतना ही सीखा, जो हमेशा से बड़े सपने देखा करती थी और हमेशा की तरह वह अपने सपनो को पूरा करने का साहस भी रखती थी, दिव्यांशी जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखती थी, उसका मानना था कि जीवन हर किसी को मौका देती है। आवश्यकता है उस अवसर को पहचानने की दिव्यांशी की जिंदगी बहुत अच्छी तरह से चल रही थी। घर परिवार से संपन्न और सब की लाडली दिव्यांशी अपने सपनों को साकार करने में लगी रहती थी। चार भाई बहनों में सबसे छोटी दिव्यांशी हमेशा चहकती रहती थी उससे पूरे घर में रौनक छाई रहती थी। दिव्यांशी हमेशा अपने स्कूल से लेकर कॉलेज तक प्रथम आती थी अपने स्कूल और कॉलेज के समय में वह हमेशा दूसरे सहपाठियों के लिए एक आदर्श थी। खेलकूद से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रम सभी क्षेत्र में दिव्यांशी अव्वल रहती थी। दिव्यांशी मृदुभाषी, होनहार, एवं व्यवहार कुशल छात्रा अपने सभी शिक्षकों के लिए प्रिय थी। दिव्यांशी का अब तक का सफर बहुत ही शानदार रहा। अपने घर परिवार में भी उसको सभी से बहुत प्यार सम्मान मिला। इस तरह अपने परिवार अपने दोस्तो के साथ उसकी जिंदगी बहुत ही अच्छे से चल रही थी।
दिव्यांशी अपने सपने को एक एक करके पूरे करती जा रही थी। आखिर एक दिन उसकी जिंदगी में एक ऐसा मुकाम आया जो सामान्यत हर लड़की के जीवन में आता है। आज लड़के वाले दिव्यांशी को देखने आ रहे थे। घर में चहल कदमी का वातावरण था सभी लड़के वालो की स्वागत की तैयारी में लगे हुए थे। लड़का दिखने में स्मार्ट था और एक अच्छी नौकरी थी, घर वालों के पसंद आने पर अच्छा लड़का देखकर दिव्यांशी के घरवालों ने उसकी शादी करा दी। बहुत ही धूम धाम से शादी हुई और दिव्यांशी अपने सुनहरे सपने लिए हुए नए शादीशुदा जीवन में कदम रखा, इस उम्मीद के साथ की उसके जो सपने शादी से पहले अधूरे रह गए थे वो अब पूरे होंगे। उसे पूरा विश्वास था कि वह अपने जीवन साथी के साथ मिलकर अपने जीवन में और आगे बढ़ती चली जायेगी और जैसा जीवन वह चाहती थी अब वो और उसका जीवनसाथी साथ में मिलकर हासिल करेंगे।
लेकिन कहते हैं ना की किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता है किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। दिव्यांशी ने बड़ी हिम्मत जूता कर कहा “मम्मी जी मैं कॉलेज जाना चाहती हूं अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करना चाहती हूं ताकि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो सकूं” दिव्यांशी के इन शब्दों को सुनकर एक कड़क आवाज उनके का उसके कानों पर सुनाई पड़ी “हमारे खानदान में आज तक हमने ना बेटियों को पढ़ाया है और ना हमारी बहू बेटियों ने चौखट को लांघ कर नौकरी की है, इसलिए ऐसी बातें सोचना भी मत।” इस बात से दिव्यांशी को एक जोरदार झटका लगा उसे लगा जैसे उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए हो। दिव्यांशी को एक ऐसा परिवार मिला जो बहुत ही पारंपरिक और दकियानूसी सोच रखने वाले थे। जीवन साथी भी ऐसा मिला जिससे दिव्यांशी किसी भी तरह के साथ की उम्मीद कभी कर ही नहीं सकती। पढ़ा लिखा तो था लेकिन अपनी मां के खिलाफ जाने का सोच भी नहीं सकता था। शादी होने के बाद एक एक करके दिव्यांशी के पैरो में परिवार की इज्जत और घर की जिम्मेदारी के नाम पर तरह तरह से जंजीरे बंधी जाने लगी। धीरे धीरे दिव्यांशी को घर की जिम्मेदारी के नाम पर उसका खुद का अस्तित्व खोने पर मजबूर किया जाने लगा। एक एक करके दिव्यांशी के सपनो का गला घोटा जाने लगा। ऐसे समय में दिव्यांशी जो कभी अपनी जिंदगी में कामयाब होने का और जीवन में अपने दम पर कुछ हासिल करने का सपना देखा करती थी वह सिर्फ एक हालतों की शिकार हो कर रह गई। हर दिन वह खुद को कोसने लग गई, अपनी किस्मत को,और अपने भगवान को जिन्होने उसके साथ ऐसा किया। दिव्यांशी पूरी तरह से बिखर चुकी थी, उसके सारे सपने टूट चुके थे।
एक खुशमिजाज लड़की जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाली, अपने जीवन के हर पल को खुल कर जीने वाली लड़की दिव्यांशी, एक नकारात्मक नजरिया रखने वाली लड़की बनकर रह गई और इसी कारण उसके जीवन में कई सारी नकारात्मक चीजे एक के बाद एक होने लगी। दिव्यांशी की जीवन पूरी तरह से निराशा में डूब चुका था।कुछ समय बाद ही जीवन में एक नया मोड़ आया दिव्यांशी ने एक नन्ही परी को जन्म दिया। दिव्यांशी की सांस सिर पर हाथ रखते हुए चिल्लाते हुए कर्कश आवाज के साथ बोली “हमने तो बेटा चाहा था ए कलमुंही बेटी पैदा कर दी”हमारे तो भाग ही फूटे हैं” सांस की आवाज सुनकर दिव्यांशी सहम सी गई। दिव्यांशी का परिवार एक रूढ़िवादी परिवार था जहां बेटी के जन्म को एक बोझ समझा जाता था। दिव्यांशी के बच्चे के जन्म के पश्चात ससुराल वालो का व्यवहार दिव्यांशी के प्रति और भी कठोर हो गया उसे हर वक्त बेटी जन्म देने के ताना देने लगे क्योंकि उन्हें अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए बेटा के रूप में चिराग चाहिए था। लेकिन दिव्यांशी के लिए तो वह नन्ही परी उसके जीवन में उम्मीद की एक किरण बन कर आई। इस नन्ही परी के आने के बाद दिव्यांशी की जिंदगी फिर बदलने लगी। दिव्यांशी अब अपनी नन्ही परी के लिए जीने लगी। धीरे धीरे दिव्यांशी कब एक साधारण लड़की से एक ऐसी मां के रूप में बदल चुकी थी जो अपने बच्चे के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाए। उस नन्ही परी के आने के बाद दिव्यांशी को यह एहसास होने लगा की वह अब एक और दिन ऐसा जीवन नही जिएगी। और अपनी बच्ची को एक नई जिंदगी देगी। अगर वह खुद अंदर से इतना टूट जायेगी तो फिर वह अपनी नन्ही परी को एक अच्छा जीवन केसे दे पाएगी।
इसीलिए अब दिव्यांशी ने अपने हक के लिए आवाज उठना शुरू कर दिया। दिव्यांशी अपने ससुराल वालों से साफ कर दी कि “अब मैं अपनी पढ़ाई आगे पूरी करूंगी और अपने पैरों पर खड़े होकर आत्मनिर्भर बनूंगी।” फिर क्या एक एक करके सभी दिव्यांशी के खिलाफ होने लगे यहा तक की खुद उसके जीवनसाथी ने उसका साथ छोड़ दिया, दिव्यांशी के ससुराल वालों ने उससे साफ कह दिया कि वह इस घर में रहकर पढ़ाई नहीं कर सकती। दिव्यांशी को अपनी बेटी के साथ घर से निकाल दिया गया। कुछ पल के लिए तो दिव्यांशी को कुछ समझ नहीं आ रहा था , जाए तो जाए कहां करें तो करे क्या। लेकिन तमाम संघर्षों, और विरोध के बाद भी दिव्यांशी अपनी लड़ाई लड़ती रही, और हार नहीं मानी क्योंकि अब दिव्यांशी ने यह निश्चय कर लिया था की वह अपने और अपने बच्चे का जीवन पर किसी भी प्रकार की मुसीबत नहीं आने देगी।और इस तरह से घुट घुट कर नही जीएगी। उसने फैसला किया की वह अपने आप को और अपने बच्चे को एक अच्छा जिंदगी देगी, जहा पर शांति और सुकून हो और खुल कर अपने विचारो को व्यक्त करने की आजादी हो। अपने जीवन को अपने अनुरूप जीने की आजादी हो।
दिव्यांशी के यह निश्चय कर लेने के कुछ समय बाद फिर धीरे धीरे दिव्यांशी का जीवन सकारात्मक रूप से बदलने लगा, उसे अपने जीवन के सभी कामों में सफलता मिलने लगी और दिव्यांशी अपने जीवन में एक के बाद एक सफलता हासिल करने लगी। आज अपनी मेहनत और परिश्रम से दिव्यांशी ने जिला शिक्षा अधिकारी के पद को प्राप्त कर लिया, और शिक्षा के क्षेत्र में अलग जगा रही है।
अब दिव्यांशी में एक ऐसी अंदरूनी शक्ति आ गई थी की दिव्यांशी अपने साथ में हो रही चीजो को समझने लगी थी और हर स्थिति का सामना करने की हिम्मत उसे अपने ही अंदर से मिलने लगी थी।अब दिव्यांशी पहले से बहुत ज्यादा खुश रहने लगी। उसके जीवन में सब कुछ बदलने लगा उसकी सफलता को देख कर उससे जलने वाले लोग कई तरह की बाते भी बनाने लगे परंतु अब दिव्यांशी को परवाह नही थी किसी की क्योंकि अब दिव्यांशी ने अपने ऊपर भरोसा करके अकेले जीना सीख लिया था। कहते हैं ना हौसला बुलंद हो तो मंजिल मिल ही जाती है।
डॉ शीला शर्मा पौंसरी, बिलासपुर,मो न-9589591992
Apki kahani bahut hi prernadayak hai aap aise hi kahani likhte rahiye taki shahitya me naye ras ka samavesh ho
Ji aapka bahut bahut dhanyawad aapane meri kahani padhi aur mujhe protsahit Kiya.
कहानी की हकीकत सामान्य जिंदगी से मेल खा रही है, संघर्ष ही जीवन की सच्चाई है और इसे स्वीकार करना ही होगा
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपने कहानी को पढ़ा और मुझे प्रोत्साहित किया सीख रही इस कहानी का दूसरा पार्ट लेकर प्रस्तुत होंगी
दकियानूसी समाज को आइना दिखाती हुई कहानी अय्तंत ही मार्मिक और प्रेरणास्पद है इसमें संदेह नहीं कि अख़बारों में बेटी जन्म को लेकर आये दिन हिकारत और तिरस्कार जैसी घटना समसामयिक हो चुकी है कल के ही अख़बार में परिवार के तानों से बचने के लिये अपनी ही दुधमुही बच्ची को मार डाला आखिर कब जागेगा समाज
बधाई
धन्यवाद शीला अच्छी कहानी
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर आपने इस कहानी के मर्म को समझा और अपने विचार प्रस्तुत कर मुझे अनुग्रहित किया।
दिव्यांशी की कहानी कैसी लड़की की कहानी है इन्होंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए संघर्ष की और सफलता के मुकाम तक पहुंचने में कामयाब हुई । यह कहानी हर एक पाठक को अपनी कहानी सी लगती है।