सनातन धर्म के ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि प्रारम्भ का सूर्य , चंद्रमा , नक्षत्र , तारे और ग्रह के अनुसार ज्योतिष का अविष्यकार ऋषि भृगु द्वारा किया गया । कालांतर ज्योतिषों ने नक्षत्र , योग , करण , तिथि और वार को पञ्चाङ्ग कहा जाता है । ज्योतिष और खगोल शास्त्र के विभिन्न शास्त्रियों द्वारा विभिन्न पंचांगों में सूर्य , चंद्रमा , तारों ,नक्षत्रों और तरामंडलों की दिशाओं का जीवन की आर्थिक , धार्मिक एवं सांस्कृतिक का समावेश सप्ताहों , दिनों , पक्षों , माहों और वर्षो का रूप दिया गया है । पक्षों में शुक्ल और कृष्ण है । पंचांग को संहिता संहिता पारग , पतरा , पंचांग , सौर पञ्चाङ्ग , चंद्र पञ्चाङ्ग ,एम्फेमेरिस कहा जाता है।
दो हजार ई .पू – ज्योतिष पर आधारित वैदिक काल के भारतीय खगोलशास्त्र की पंचांग , , 1000 ई . पू – बैबिलोनियाई खगोलशास्त्र के पंचांग ,दूसरी सदी ईसवी – टॉलमी की अल्मागेस्ट , ८वीं सदी ई . में इब्राहीम अल-फ़ज़ारी की ज़ीज (‘ज़ीज तारों ) , ९वीं सदी ईसवी – मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की ज़ीज , १२वीं सदी ईसवी – क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा अरबी ज़ीज पर आधारित ‘तोलेदो ‘यूरोप के प्रचलित पंचांग बन गए थे ।,१३वीं सदी ईसवी – मराग़ेह वेधशाला (ऑब्ज़रवेटरी) की ज़ीज-ए-इलख़ानी , १३वीं सदी ईसवी – ‘तोलेदो की तालिकाओं’ में कुछ ख़ामियाँ ठीक करने वाली ‘अल्फ़ोंसीन यूरोप का नया प्रमुख पंचांग बन गया था। , १४०८ ई – चीनी पंचांग , १४९६ ई – पुर्तगाल के अब्राऊं बेन सामुएल ज़ाकुतो का ‘अल्मनाक पेरपेतूम’ ,१५०८ ई – यूरोपीय खोजयात्री क्रिस्टोफ़र कोलम्बस द्वारा जर्मन खगोलशास्त्री रेजियोमोंतानस के पंचांग का प्रयोग करके जमैका के आदिवासियों के लिए चाँद ग्रहण , १५५१ ई – कोपरनिकस की अवधारणाओं पर आधारित एराज़मस राइनहोल्ड की ‘प्रूटेनिक ‘यूरोप का मानक पंचांग बन गई थी । १५५४ ई – योहानेस स्टाडियस ने अपनी कृति में ग्रहों की स्थितियों की भविष्यवानी थी ,१६२७ ई – योहानेस केप्लर की ‘रूदोल्फ़ीन तालिकाएँ’ नया यूरोपीय मानक बन गई है । विभिन्न राजाओं द्वारा भिन्न भिन्न समय पर पंचाग का प्रारंभ हुआ है । पंचांग में गणना के पाँच अंगों में वार , तिथि , माह ,नक्षत्र , योग .है। राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से ११ दिन ३ घड़ी ४८ पल छोटा है ।विक्रमी पञ्चाङ्ग – यह सर्वाधिक प्रसिद्ध पञ्चाङ्ग है जो भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित है।भारत में गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है।सभी विषय या वस्तु के प्रमुख पाँच अंग को पंचांग कहते हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पाँच अंगों की दैनिक जानकारी पंचांग में दी जाती है। ये अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हैं।हिन्दू पंचांग की उत्पत्ति वैदिक काल में ही हो चुकी थी। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उक्त काल में सूर्य एवं नक्षत्र सिद्धांत पर आधारित पंचांग होता था। वैदिक काल के पश्चात आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे खगोलशास्त्रियों ने पंचांग को विकसित कर उसमें चन्द्र की कलाओं का भी वर्णन किया।प्रतिपादित सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत और ग्रहलाघव ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अतीत में असंख्य कैलेंडर या पंचांगों का आधार बनाया है। सर्वप्रथम 153 ईस्वी पूर्व में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारम्भ माना गया एवं 45 ईस्वी पूर्व में जब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर द्वारा जूलियन कैलेण्डर का शुभारम्भ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रखा गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसा पूर्व 46 ई. को 445 दिनों का करना पड़ा था।1957 में भारत सरकार ने शक संवत् को देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में मान्यता प्रदान की थी। इसीलिए राजपत्र (गजट) , आकाशवाणी और सरकारी कैलेंडरों में ग्रेगेरियन कैलेंडर के साथ इसका भी प्रयोग किया जाता है। शक संवत को शालिवाहन संवत भी कहा जाता है और इसका आधार सौर गणना है। ग्रिगोरियन कैलेंडर सूर्य चक्र पर आधारित की शुरुआत सन् 1582 में हुई थी । पंचांग वैज्ञानिक है । जबकि ग्रेगोरियन कैलेंडर मुख्य रूप से सूर्य की गति पर आधारित होता है, हिंदू कैलेंडर चंद्रमा और सूर्य दोनों पर आधारित होता है। चंद्र चक्र 29.53 दिनों तक है। राजा ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में था। विश्व में कैलेंडर प्रयोग में लाया जाता है। रोमन सम्राट जूलियस सीजर का ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनाया कैलेंडर है। जूलियस सीजर ने कैलेंडर को बनाने में यूनानी ज्योतिषी सोसिजिनीस की सहायता ली थी। पंचांग या शाब्दिक अर्थ है पंच + अंग = पांच अंग यानि पंचांग। हिन्दू काल-गणना की रीति से निर्मित पारम्परिक कैलेण्डर या कालदर्शक कहते हैं। पंचांग के तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण पंच प्रमुख है। कृषि-पंचांग को ‘कृषि और संबद्ध गतिविधियों के, मूल रूप से क्षेत्र-वार, मौसम-वार और फसल का ज्योतिष पर आधारित है ।
पुराने रोमन वर्ष में 304 दिनों को 10 महीनों में विभाजितकी शुरुआत मार्च से हुई थी। इतिहासकार लिवी ने 12 महीने के कैलेंडर को तैयार करने के लिए दूसरे प्रारंभिक रोमन राजा नुमा पोम्पिलियस को श्रेय दिया जाता था । फाल्गुन हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का बारहवाँ तथा अंतिम महीना ईस्वी कलेंडर के मार्च माह में पड़ता है विक्रम युग (58 ईसा पूर्व) को जैन पुस्तक कालकाचार्यकथा के अनुसार शक पर राजा विक्रमादित्य की जीत के बाद स्थापित किया गया था। विक्रम युग की नींव का श्रेय सिथो-पार्थियन शासक एजेस हैं। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, 1879 व 22 मार्च 1957 को 78 ई. का शक संवत् को भारत के राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में अपनाया गया है। अमेरिका की माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। माया सभ्यता का आरम्भ 1500 ई० पू० में हुआ था । विश्व में उपयोग किया जाने वाला कालदर्शक या तिथिपत्रक को जूलियन कालदर्शक का रूपान्तरण को पोप ग्रेगोरी XIII ने लागू किया था। प्रतिपादित सिद्धांत, सूर्य सिद्धांत और ग्रहलाघव ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अतीत में असंख्य कैलेंडर या पंचांगों का आधार बनाया गया है । भारत में गणना के आधार पर सनातन पंचांग की तीन धाराएँ चंद्र आधारित, नक्षत्र आधारित है । विश्व के त्योहार एवं धार्मिक कार्यो के लिए विश्व मे 40 कैलेंडर बनाए गए थे । सौर पञ्चाङ्ग , चंद्र पंचांग , सप्तऋषि पंचांग , ऋषि पञ्चाङ्ग , युधिष्ठिर पंचांग , कली पंचांग , प्राचीन है ।
सनातन धर्म संस्कृति में प्राचीन काल से भारत में प्रयुक्त होते आ रहे पञ्चाङ्ग में चान्द्र सौर प्रकृति के कालगणना की समान संकल्पनाओं और विधियों पर आधारित एवं मासों के नाम, वर्ष का आरम्भ (वर्षप्रतिपदा) आदि की दृष्टि से अलग होते हैं। भारत में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख पञ्चाङ्ग में विक्रमी पञ्चाङ्ग – यह सर्वाधिक प्रसिद्ध पञ्चाङ्ग है जो भारत के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भाग में प्रचलित है। तमिल पञ्चाङ्ग – दक्षिण भारत में प्रचलित है, बंगाली पञ्चाङ्ग – बंगाल तथा कुछ पूर्वी भागों में प्रचलित है। मलयालम पञ्चाङ्ग – केरल में प्रचलित और सौर पंचाग है। ग्रेगोरी कैलेंडर चन्द्रवाक्य ,पञ्चाङ्गम् , इस्लामी कैलेंडर ,चीनी कैलेंडर ,भारतीय राष्ट्रीय पंचांग ,विक्रम पंचांग , ,शक पंचांग , माया पंचांग , विक्रम पञ्चाङ्ग का नाव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा , शालिवाहन पंचांग शक संबत चैत्र कृष्ण प्रतिपदा , फसली पंचांग ,बंगला पंचांग , नेपाली पंचांग ,हिजरी पंचांग , ग्रेगोरियन पंचांग , गुजराती पंचांग , ऋषिकेश पंचांग , काशी पंचांग , मिथिला पंचांग प्रचलित है ।
भारतीय ज्योतिष आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष पांडुलिपियों की संख्या एक लाख से अधिक है ।पुरातन काल में गणित एवं ज्योतिष संदर्शियों द्वारा तंत्र सिद्धांत ,होरा ,शाखा अर्थात तंत्र होड़ा शाखा को मिला कर संहिता पारग कहा गया था ।ज्योतिष या ज्यौतिष विषय वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्य खगोलीय पिण्डों का अध्ययन करने के विषय को ज्योतिष कहा गया था। सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, में महायुगादि से तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक व कलियुग के आरम्भ से करण कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में १-मध्यमाधिकार २–स्पष्टाधिकार ३-त्रिप्रश्नाधिकार ४-चन्द्रग्रहणाधिकार ५-सूर्यग्रहणाधिकार ६-छायाधिकार ७–उदयास्ताधिकार ८-शृङ्गोन्नत्यधिकार ९-ग्रहयुत्यधिकार १०-याताधिकार शामिल हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष ,सिद्धान्त ज्योतिष या ‘गणित ज्योतिष’ , फलित ज्योतिष , अंक ज्योतिष , खगोल शास्त्र संहिता पारग में शामिल था । यज्ञों की तिथि आदि निश्चित करने में ज्योतिष विद्या का प्रयोजन था । अयन का उल्लेख वैदिक ग्रंथों में है । पुनर्वसु से मृगशिरा (ऋगवेद), मृगशिरा से रोहिणी (ऐतरेय ब्राह्मण), रोहिणी से कृत्तिका (तौत्तिरीय संहिता) कृत्तिका से भरणी (वेदाङ्ग ज्योतिष) । तैत्तरिय संहिता के अनुसार प्राचीन काल में वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था । वासंत विषुवद्दिन से वैदिक वर्ष का आरम्भ माना जाता था । अयन की गणना माघ मास थी । वर्ष की गणना शारद विषुवद्दिन से आरम्भ हुई । वैदिक काल में वासंत विषुवद्दिन मृगशिरा नक्षत्र में पड़ता था । बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद से अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है । वासंत विषुबद्दिन की ईसा से 4 हजार वर्ष पूर्व थी । छह हजार वर्ष पहले हिंदुओं को नक्षत्र अयन आदि का ज्ञान और यज्ञों के लिये पत्रा बनाते थे। शारद वर्ष के प्रथम मास का अग्रहायण था जिसकी पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र में पड़ती थी । भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि ‘महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ’ । वराहमिहिर के समय में ज्योतिष के सम्बन्ध में पाँच प्रकार के सिद्धांत सौर, पैतामह, वासिष्ठ, पौलिश ओर रोमक थे । सौर सिद्धान्त सूर्यसिद्धान्त है । वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त द्वारा सूर्य सिद्धान्त ग्रंथ से सहायता थी । सूर्य सिद्धांत ग्रंथों में ग्रहों के भुजांश, स्थान, युति, उदय, अस्त , अक्षांश और देशांतर आदि जानने की क्रियाएँ हैं ।भारतीय ज्योतिषी गणना के लिये पृथ्वी को केंद्र मानकर और ग्रहों की स्पष्ट स्थिति या गति लेते थे । क्रांतिवृत्त द्वारा २८ नक्षत्रों में विभक्त किया गया था ।
करपी , अरवल , बिहार 804419
9472987491