पनप रही है जो माता की कोख में
अनजान है वह दुनिया के विविध रूप से
दिखती है जहां मंदिरों में देवी की पूजा
खींचता है वही नारियों के तन से लिपटा आंचल
क्यों मौत अपने को तरसती है यह बेटी
जीना किया दुर्भर इसका समाज ने
अपने ही खंजर भोंक देते हैं सीने में
( फिर भी)
क्यों रो रो कर अपनों के लिए मरती है ये बेटी
इसको जमाने से मिला रुसवा के सिवा क्या
मरते मरते औरों के लिए जीती है यह बेटी
इस दुनिया में बेटी शब्द हो गया है एक अपराध
पैदा हुए के दिन को कोसती है ये बेटी
अपनी जाति रूप से ही जो डरती है पल पल
अपने ही घरों में नित्य शिकार होती है ये बेटी
सहती है जुल्म हमेशा हैवानियत का ये
मुझको खुशी मिलेगी कब सोचती है ये बेटी
कोख में भी जो ने बक्से इस भ्रूण कन्या को
ऐसे बैहरूपिया समाज को क्यों चाहिए बेटी
क्या दुनिया की हवस मिटाने का जरिया है ये बेटी
क्या है ये बेटी – क्या है ये बेटी- क्या है ये बेटी
यह सोचकर ही दुनिया में पैदा होने से डरती है ये बेटी
अपनों के लिए बोझ जो बन जाती है जीवन में
वही अपनों के लिए जीवन को त्याग देती है ये बेटी
इस समाज को बनाने वाले लोगों पूछती हूं मैं तुमसे –
क्या इसी को समाज कहते हैं ?
क्या इसी को समाज कहते हैं ?
अरे क्या इसी को समाज कहते हैं?
जहां घुट घुट कर मरती है
ये बेटी आंखों में अश्रु नहीं रक्त की धारा है
बचा लो मुझे ,बचा लो मुझे ,
बचा लो मुझे, कहती है यह बेटी
अर्चना त्यागी