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गीत लिखा

रोया,गीत लिखा,फिर रोया

रो गा कर तब सपने बोया।

बाँध नींव को जिन रिश्तों से

महल बनाए थे अपनों के

बिखर गये अब रंग बदलकर

बिके हाट में,रख दोनो पे।

शेष नहीं पहचान बची है

प्राण लगाकर जिसको ढोया।

मन बहलाने को जब मैंने

ईश्वर का भी लिया सहारा

नहीं साख बच पायी मेरी

कहाँ किसी को हुआ गँवारा

दिल से, पीड़ा से ,रुक रुककर

गूँथा मैंने,उसे पिरोया।

तीन पहर दिन बीत गया है

ड्योढ़ी पर बैठा मन कक्का

नहीं शहर अब जाना चाहे

बेटे से मिलने  है पक्का

हुआ तकाजा जब ,कर्जे का

मरा शर्म से,है कठुआया।

स्वरचित

अनिल कुमार झा

श्रीकांत रोड

देवघर (814142)

झारखंड 

About sahityasaroj1@gmail.com

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