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संस्‍मरण-अलका

कमलेश द्विवेदी लेखन प्रतियोगिता -4 संस्‍मरण
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उस दिन घर की छत पर जब मैं कपड़े सुखाने गई तब अचानक मेरी नज़र, एक दीवार की तरफ सम्मोहित सी गई। क्योंकि एक गिलहरी अपनी आवाज़ में जोर -जोर से ना जानें क्या गाती हुई फुदक -फुदक कर नाच रही थी । नज़दीक जाकर देखा तो पाया कि उस गिलहरी ने दीवार के एक छेद में अपना घोंसला बना लिया था, और उसमें उसका नन्हा सा बच्चा भी था। गिलहरी इधर -उधर से ढूंढ ढूंढ कर उसके लिए खाना लाती , बच्चे के मुंह में डाल खुशी से उछलती फुदकती। अब जब भी मैं छत पर जाती तो मंत्रमुग्ध हो ,देर तक इस मां – बच्चे की अठखेलियां देखती रहती। परंतु एक दिन गिलहरी शायद भोजन की तलाश में थोड़ा ज्यादा दूर निकल गई थी। और बच्चा बहुत इंतजार के बाद ,मां की तलाश में अपने घोंसले से बाहर आ गया था।अब जैसे ही वह बच्चा बाहर आया ,एक कौवा उसके ऊपर मंडराने लगा। मेरा मन तुरंत अनहोनी को भांप गया ।तभी मुझे बचपन की वो घटना स्मरण हो आई, जब हमारे घर के आंगन में रखे गमले से एक कौवा कबूतरी के एक नवजात बच्चे को चोंच में दबा ले उड़ा था । और मैं हक्की – बक्की सी बस उसे देखती ही रह गई थी। बच्चे को ना बचा पाने की पीड़ा से मैं, बहुत दिनों तक पीड़ित रही थी। वो दृश्य, वो स्मृति, वो पीड़ा आज फिर उभर आई थी।
मैंने झट से बच्चे को उठा पल्लू से ढक नीचे घर में ले आई। परंतु तभी उस मां का भी एस स्मरण हो आया, कि घर लौट कर बच्चे को ना पाकर वो कितनी व्याकुल हो उठेगी। तभी मोंटी मेरा पांच वर्ष का बेटा वहां आ पहुंचा, और सवालों की झड़ी लगा दी।मैंने उसकी गिलहरी के बच्चे से जुड़ी सभी जिज्ञासाएं शांत करते हुए , उसे सब बताया। वैसे मेरे बेटे मोंटी ने अक्सर अपने परिवार में प्रत्येक जीव के प्रति दया, करुणा, सहायता का भाव शुरू से ही देखा, तो यह सभी गुण उसमें, कुछ कुदरती रूप से और कुछ देख सुनकर ट्रांसफर हो गए थे। इसीलिए जितनी देर मैंने बच्चे को रूई से दूध पिलाया , और वहीं फर्श पर ही बैठ, थोड़ी देर उसे सहेजा , उतनी देर में मोंटी ने , वहीं छत पर पड़ी छोटी-छोटी ईंटों को इकट्ठा कर उन्हें तीन साइड से,अच्छे से खड़ा कर ऊपर से अपने गृहकार्य वाले रजिस्टर के गत्ते से उसे ढक दिया, और फिर उसे कुछ नहीं मिला तो एक रसोई का तौलिया वहां बिछा दिया।
कुछ ही समय में मोंटी ने गिलहरी के बच्चे का छोटा सा घर बना दिया था। और फिर दौड़ता हुआ मेरे पास आकर, मेरी आंखें बंद कर अपने साथ छत पर चलने का आग्रह करने लगा । फिर छत पर ले जाकर मुझे मेरी आंखें खोलने को कहने लगा। जैसे ही मैंने आंखें खोली ,” मां सरप्राइज, सरप्राइज” कहता ,ताली बजाता ,आंखों में अद्भुत चमक, मगर धूप से चेहरा लाल लिए, चहकता हुआ मेरा बच्चा, मुझे गिलहरी का वो छोटा सा घर , जो उसने जून की तपती दुपहरी में एक – एक ईंट जोड़कर,बड़ी मेहनत से बनाया था, दिखा रहा था। मैंने उसे इतना खुश उस दिन से पहले कभी नहीं देखा था। अपने बेटे और उसके छोटे से निर्माण को देख मेरी आंखें खुशी से छलक उठीं । मैंने झट से अपने बच्चे को अपने गले से लगा लिया और परिवार के संस्कारों को सार्थक होता हुआ देखकर सिर गर्व से ऊंचा हो गया ।
अलका गुप्ता पता – ब्लॉक C- 24 , इन्दिरा एनक्लेव, नेबसराय (Near IGNOU) नई दिल्ली – 110068

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