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चित्र पर कहानी में -आशा

*गोपालराम गहमरी पर्यावरण सप्ताह 30 मई से 05 जून में आप सभी का स्वागत है आज दिनांक 01 जून को आनलाइन कार्यक्रम के तीसरे दिन चित्र पर कहानी*

इस बार बहुत दिनों बाद गांव जाना हुआ। जैसे ही हम गाँव में पहुंचे, घर के सामने हमारी गाड़ी रुकी। उतरते उतरते गाड़ी से मेरी नजर सामने के खेतों की तरफ चली गई, जहां एक छोटा सा मासूम बच्चा शायद मिट्टी में कुछ कर रहा था। थोड़ा सा मैंने गौर किया तो देखा कि वह किसी छोटे से बर्तन में मिट्टी को भरने की कोशिश कर रहा था और उसने अपने चेहरे पर मास्क जैसा कुछ लगा रखा था। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, हंसी भी आई कि गांव में और वह भी मास्क लगाए हुए बच्चा! मैं इधर-उधर नजरें दौड़ाई तो देखा कि पास में ही एक बिल्डिंग बन रही थी जिसमें बहुत से मजदूर लगे हुए थे काम पर जिनमें स्त्री पुरुष दोनों थे। यह बच्चा शायद उनमें से ही किसी मजदूर स्त्री का रहा होगा जिसे उसने किनारे पर बैठा दिया था और खुद कम पर लग गई थी। मैंने एक नजर डाली बच्चे और वापस घर के अंदर आ गई। घर में लोगों से मिलना जुलना हुआ, बातें भी और इस तरह से शाम हो गई। दूसरे दिन जब सुबह मेरी आंख खुली तो मेरी जेहन में वही बच्चे का चेहरा घूम रहा था। मैंने अपने नित्य के काम निपटाये और मैं थोड़ी देर के लिए कह कर बाहर निकल गई। मैं सीधे उस तरफ चल दी, जहां नई बिल्डिंग बन रही थी। वह बच्चा मुझे आज भी वहीं नजर आया। आज भी उसने मास्क लगा रखा थी और अपनी बाल्टी नुमा बर्तन में मिट्टी को भरने में मग्न था। मैं जाकर उसके पास बैठ गई और उसे चुटकी बजाकर अपनी और देखने का इशारा करने लगी, पर बच्चा अपने काम में इतना मग्न था कि वह मिट्टी में ही ध्यान लगाए रहा। मुझे हंसी भी आ रही थी और उसे देखते हुए अपना सारा बचपन भी मुझे वापस से याद आ रहा था। जब हम गांव में हुआ करते थे छुट्टियों में, तब हमें भी मिट्टी से बड़ा लगाव रहता था क्योंकि शहर में मिट्टी देखनी नसीब नहीं होती है। पक्की बिल्डिंग, पक्के रास्ते हर तरफ। गांव में जब भी हम छुट्टियों में आते थे तो मिट्टी से वास्ता पड़ता था, नहर, खेतों से वास्ता पड़ता था और हमारा सारा दिन ऐसे छूमंतर हो जाता था जैसे लगता था कि हम कहीं स्वर्ग में हैं। कितने हसीन दिन हुआ करते थे तब। मैंने बच्चे की तरफ देखा,  मुझे बैठे देखकर उसकी मां मेरे करीब चली आई और मुझसे पूछने लगी कि क्या बातो है दीदी, क्या हो गया? मैंने कहा, कुछ नहीं मैं बस वैसे ही बच्चे को देखने चली आई। तो उसने कहा कि क्या करें दीदी काम करते रहते हैं तो बच्चे को वहां नहीं ले जा सकते इसलिए यहां बैठा दिया। मैंने कहा, हां ठीक है कोई बात नहीं लेकिन यह तो बताओ तुमने बच्चे को यह मास्क लगाया हुआ है, यह कहां से मिला तुम्हें और तुमने कैसे सोचा? वो उदास होकर बोलने लगी, दीदी अब क्या बताएं आपको, बड़ी लंबी कहानी है। मैंने कहा- हां बताओ कोई बात नहीं मेरे पास भी वक्त है मैं तुम्हारी कहानी सुन सकती हूँ । वो कहने लगी, दीदी हम तो शुरू से ही मजदूर हैं, मजदूरी का ही काम करते हैं। कुछ साल पहले की बातो है 4-5 साल पहले हम ऐसे ही किसी बिल्डिंग के पास काम कर रहे थे और वहां मिट्टी पड़ी रहती थी। एक मेरा बेटा था तो वहो दिन भर खेलता रहता था उसी मिट्टी में। अब कब उसके मुंह नाक में मिट्टी भर गई हमें पता ही नहीं चला। हम तो काम में लगे रहते थे। अब मिट्टी के साथ ही उसके मुंह में कहीं कोई लोहे का टुकड़ा भी चला गया जो हमें पता ही नहीं चला। एक-दो दिन बच्चे की तबीयत खराब रही, उसके बाद हमें समझ ही नहीं आया फिर उसे हल्के-हल्के बुखार होना शुरू हुआ, हमने इधर-उधर डॉक्टर को दिखाया, पता ही नहीं चल रहा था क्या बात है, क्या नहीं है फिर बच्चे का शरीर धीरे-धीरे नीला पड़ने लगा। हम बड़े अस्पताल ले गए वहां अच्छे से जांच कराई गई तब पता चला कि बच्चे के शरीर में जहर फैलो चुका है। पेट की जांच में उसके पेट में एक जंग लगा लोहे का टुकड़ा मिला जिसकी वजह से उसके पूरे बदन में जहर फैल गया था जब तक हम कुछ समझ पाते सोच पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी दीदी और मेरा बच्चा…. यह कहकर वह मजदूर स्त्री रोने लगी। मुझे भी बड़ा दुख हुआ उसकी कहानी सुनकर मैंने कहा देखो यह तो होनी थी हो गई लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि इसके बाद तुमने सच्चे मन से अपने दूसरे बच्चे के लिए यह सोचा और उसको मास्क लगाकर उसकी हिफाजत करनी चाही, यह बहुत बड़ी बात है। यह हमारी लापरवाही का ही नतीजा था, हम कहीं भी कुछ भी फैंक देते हैं, कभी कांच के टुकड़े, कभी लोहे के टुकड़े, कभी प्लास्टिक यह सारी चीजों के वजह से जो प्रदूषण व मानव को नुकसान होता है इसको कोई नहीं समझ पाता। मैंने एक ठण्डी सांस भरी, बच्चे के सर पर हाथ फेरा और घर की तरफ लौट पड़ी लेकिन एक ख्याल मेरे दिमाग में बार-बार आ रहा था कि आखिर इस मिट्टी के प्रति हम इतने असंवेदनशील कैसे हो जाते हैं? जिस मिट्टी से हमें अनाज मिलता है जिस मिट्टी से हमें जीवन मिलता है जिसमें मिट्टी पर हम घर बना कर रहते हैं जो मिट्टी हमारे काम आती है उसे मिट्टी के प्रति ऐसी उपेक्षा सही नहीं लगी।  मुझे बड़ी तसल्ली हुई यह देखकर कि वह एक मजदूर स्त्री कितनी सचेत है अपने बच्चे के लिए। उसने मिट्टी में बच्चे को खेलने तो दिया लेकिन बहुत ही हिफाजत के साथ।
आशा गुप्ता ‘आशु’, अंडमान द्वीप समूह  6263 696 578

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