गोपालराम गहमरी पर्यावरण सप्ताह 30 मई से 05 जून में आप सभी का स्वागत है* *आज दिनांक 01 जून को आनलाइन कार्यक्रम के तीसरे दिन चित्र पर कहानी*
सुबह सवेरे ही धुंधला धुंधला बादलों से घिरा मौसम था ।छोटी बस्ती वालों का जीवन भी निराला है यहां कौन इन्हें पूछने वाला कौन इन्हें अपना कहने वाला फिर किसके साथ खेल लाली और लाला चार दीवारी में घुट रहा इनका बचपन निराला । गांव के किनारे एक आलीशान कारखाना बना हुआ था जिसमें कई गांव के मजदूर काम करते थे। गगन में कारखाने का काला धुआं पतंग सा लहरा रहा था। यह तो चिमनियों का रोज का बोलबाला था। सभी मजदूर दो पैसों के लिए जी तोड़ मेहनत करते थे।ना भुख थी,ना बच्चों की सुध थी।अपने बच्चों को पास ही खिलोने दे खेलने बैठा देते खुद काम में जुट जाते हैं। एक दिन नन्ही सोनपरी मां की नजरे चुरा कर अपने खिलौने ले गंदी राख के ढेर पे जा बैठी। कभी कलची से राख उठा कर पैरों को दीवार बना उसे पे लगती। कहीं माक्स लगा लोहे को काटते देखा तो उस नन्ही परी ने भी कुछ अच्छा सोच माक्स मुंह पे लगा लिया था । छोटी बाल्टी, छोटा फावड़ा, छोटी पानी सिंचने की झारी लेकर सोचे एक प्यारा सा घर हो हमारा, कहां बनाऊं बगीचा कहां बनाऊं चौबारा ,कैसा होगा मकान हमारा बस दिमाग दौड़ा रहीं थी। देखो इन गरीब के पास कहां तन ढकने को कपड़ा हैं। ना दूध ना भर पेट खाना है। फिर भी खुश रहते बनके दीवाना है।
पहले कभी गांव में मन लगता था, परिवार वाले का प्रेम बहुत था। मगर अब गांव में कारखाने की काली धुआं से लोग बिमार रहते,दम घुटने लगा,सांस लेने में भी तकलीफ़ होने लगी थी। यहां कौन सा डाक्टर अच्छा है। खानें के लाले पड़े, तो इलाज कहां करायें। अब गांव गांव नहीं एक रेगिस्तान का मैदान सा लगने लगा है।बस ये अपना जीवन बच्चों को खुश देखने में बिता रहे हैं। जब कारखाने की छुट्टी हुई, बच्ची दिखाई नहीं दी तो मां हैरान हुई। इधर-उधर दौड़ भाग करने लगीं। बहुत ढुंढ़ने के बाद कारखाने के पीछे खेलतीं सोनपरी दिखाई दी । मां ने दौड़कर उसे गले से लगा लिया, और उसके बदन की राख झाड़ने लगी। मां के आंसु सोनपरी के बदन कि राख धो रहें थे।गरीब चाहें गरीब हो मगर वो भी उसी विधाता की संतान हैं।छोटे बड़े का क्यों करते अभिमान है। खुन पसीना बहाते ये ही मजदूर इस धरती पे अपने बच्चों के संग खुश रहते इंसान है।।
शिवा सिहंल आबुरोड 85296 69365