गोपालराम गहमरी पर्यावरण सप्ताह 30 मई से 05 जून में आप सभी का स्वागत है* *आज दिनांक 01 जून को आनलाइन कार्यक्रम के तीसरे दिन चित्र पर कहानी*
चिमनियों के धुएँ से आकाश का पेट फूलता जा रहा था और उसकी डकारें वायुमंडल को ध्वनित करने लगी थीं।आकाश मेघाच्छन्न हो गया था।लगता था अब बरसे कि तब बरसे।श्रमिक अपने और अपने बच्चों के उदर भरण के लिए उन्मत्त से अपने काम में लग गए थे।ऐसी स्थिति में किसी के पास नौनिहालों की सुधबुध लेने का अवकाश कहाँ था!
श्रमिक अपनी कौड़ियों की अधिकाधिक संख्या बढ़ाने के प्रयास में हाड़तोड़ मेहनत कर रहे थे और इधर एक बच्ची जाने कब अपनी मौज में चलती हुई राख के पहाड़ पर आ गई।उसके मुँह पर मास्क लगा हुआ था।वह अपने साथ प्लास्टिक की गुलाबी रंग की बाल्टी,कलछी और अपनी मनचाही पट्टी आदि लेकर आई थी।वह राख के ढेर पर खेलने के लिए बैठी और थोड़ा पसर सी गई।उसने अपने पैरों को फैला लिया और कलछी से कुछ देर राख को खुरचती रही।
बाल्टी के चारों ओर उसने राख का घेरा बनाया।उसके बाएँ पैर का टखना राख के ढेर पर पड़ा।राख का खुरदरापन उसे अच्छा लगा तो उसने दाएँ पैर की एँड़ी पर कलछी से थोड़ी सी राख डाली और उसे निहारने लगी।उसे पूरे मनोयोग से अपनी क्रीड़ा में तल्लीन देखकर ऐसा लगता है मानो वह कैलाश शिखर पर बालुका राशि में खेलती हुई महाकवि कालिदास के ‘कमारसंभवम्’ में कवि की कल्पनाकृति पार्वती हो,जो बालुका राशि से वेदियाँ बनाया करती थी,अल्पकाल में जिसने सभी विद्याओं को प्राप्त कर लिया और अपने कठोर तप से आशुतोष शिवशंकर को प्रसन्न कर लिया था।ऐसी एकाग्रमना कोमलांगी बच्चियाँ ही तो आगे चलकर पार्वती,राधा,सीता,सावित्री के रूप में परिणत होती हैं।
विजयशंकर मिश्र ‘भास्कर 94500 48158